Saturday, 2 April 2016

वास्तविक ज्ञान क्या है ? तृषित

जगत और जगतपति के भेद अभेद का सम्बन्ध जो वेद कहता है उसे लिखित नहीँ व्यवहारिक सिद्ध करना ज्ञान है ।
ज्ञान मौन अवस्था है , अज्ञान और ज्ञान की लालसा यह मौन नहीँ । ज्ञान सन्धि है ईश्वर और जीव की ।
ज्ञान और प्रेम में भेद जब तक है , जब तक दोनों का स्तर बाहरी है , आंतरिक रूप से दोनों आगे परिपूरक अवस्था में ही प्राप्त है ।
लौकिक जगत में ज्ञान अप्रगट प्रतीत होता है , जबकि ज्ञान बिन जगत भी नहीँ , जगतपति भी नहीँ ।
जगतपति ईश्वर सन्मुख होवें पर ज्ञात ना हो यहीँ ईश्वर है , तब ज्ञान की आवश्यकता स्वीकार्य है ।
आवश्यक ज्ञान सभी को प्राप्त है , प्राप्त ज्ञान के संग्रह से वह और गहन अवस्था को प्राप्त नहीँ कर पाता । वास्तविक ज्ञान अनिवर्चनीय , अकथनिय होकर भी सन्मुख पात्रता अनुरूप आवश्यक रस प्रकट हो सकता है ।
मैं मानता हूँ शास्त्र और अक्षरसः सभी बात वेद और पुराण की सत्य ज्ञान ही है , परन्तु उनकी सिद्धि न हो तब तक वह केवल भूल भुलैया सा ही है , एक वाक्य से कल्याण हो सकता है , वहीँ सम्पूर्ण बोध को प्रकट कर सकता है , और केवल ऊपरी ही रूप से सब बात सब रट ही लिए जावें , तब रस न होगा , विचारों का थोथा संग्रह बढ़ जाएगा और इसमें हानि यह है कि मूल स्वरूप बहुत नीचे दब जाएगा , जिस स्वरूप को आत्म अनुभूति और दिव्य रस अनुभूति होनी थी वह वहाँ गौण और शब्दजाल भर शेष रह जाते है , यह ज्ञान नहीँ । विचारों का समूह ज्ञान नहीँ । विचारों का विवेक युक्त विशुद्धिकरण ज्ञान है , ज्ञान विचारों के एक एक संकेत का दृष्टा होकर उसमें से सार तत्व ग्रहण कर लेता है ।
योग-बोध अथवा प्रेम , इनमें प्राप्त वह भगवत् विषयक या तत्व विषयक चेतना जो भीतर से आत्मसात् हो एक रूप हो गई है  ।
भीतर से । बाहर पुस्तकालय में अधिक पुस्तक पढ़ लेने वाला ज्ञानी नहीँ कहा जा सकता । शास्त्र जो कहे वहीँ विषय जीवन्त जीवन में उतरे वह ज्ञान है । शास्त्र की कोई बात जब तक जीवन्त ना हो , तब वहीँ रुक उसकी व्याकुलता बढ़ा उस सिद्धांत का जीवन्त बोध प्राप्त करना चाहिये । अथवा पहले बोध हो फिर वहीँ विषय लिखित शास्त्र में मिल जावें ।
यह नहीँ की 18 पुराण रट डाले , जीवन में एक श्लोक भी सिद्ध न हुआ हो ।
वस्तुतः वास्तविक ज्ञानी को संसार की आवश्यकता नहीँ , ना ही संसार को ऐसी आवश्यकता है । संसार अगर सच्चे बोध प्राप्त का संग ही कर लें तब तो संसार का अपना सूत्र गड़बड़ हो जाता है ।
संसार को वांग्मय रुपी ज्ञान ही ज्ञान समझ आता है । जीवन्त ज्ञान प्रत्यक्ष केवल उन्हें ही आएगा जिन्हें इसी जन्म में भगवत् प्राप्ति करनी हो , और भगवान की कृपा से जिनके सभी सन्देह निवृत्त हो गए हो ।
परमात्मा , ब्रह्मतत्व , ईश्वर , भगवान इन सभी का सूक्ष्म अति सूक्ष्म भेद - अभेद  जान लेना ।
जड़ और चेतन की सत्ता में चेतन का दर्शन कर लेना ।
जगत और जगत की वस्तु के अभेद और अखण्ड परमेश्वर से सब अभेद जान लेना ।
दर्शन के सभी 6 सूत्रों में सभी का व्यापारिक बोध और किसी एक दर्शन अनुरूप स्वयं को पाना , फिर स्वयं में ईश्वर को पाना , स्वयं से अभिन्न और भिन्न भी ईश्वर को पाना , यही बोध है , ज्ञान है ।
-- सत्यजीत तृषित

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