Sunday, 10 April 2016

ज्ञान और आत्मा का स्वरूप एक है

ज्ञान का आदि या अंत अनुभव का विषय नहीँ होता है ।
क्योंकि यदि वह (आदि और अंत ) अनुभव का विषय हो तो पूर्व सिद्ध ज्ञान के द्वारा ही होगा । अतः ज्ञान जीव या ईश्वर द्वारा निर्मित नहीँ है , स्वयंप्रकाश है । वह घट-पट आदि के समान वेद्य न होने पर भी वहीँ साक्षात् अपरोक्ष ही है ।
जो कुछ भी बीज-निर्बीज , भाव-अभाव , व्यष्टि-समष्टि विषय होगा वह ज्ञान के द्वारा होगा । ज्ञान यदि अन्य हो तो उसका प्रकाशक क्या होगा ? परिच्छिन्न हो तो वह किसे प्रतीत होगा ? ज्ञान से आत्मा अलग होने पर आत्मा में जड़ता आ जायेगी । ज्ञान का आत्मा से अलग होने पर ज्ञान जड़ हो जाएगा । निर्विकार बोध रूप आत्मा ही तो वैदिक महावाक्यों का प्रतिपाद्य है । इसी तत्व में यह प्रपञ्च कहाँ से आया, इसका उपपादन करने के लिए अनिवर्चनीय माया का अध्यारोप श्रुति ने किया है । इसी अघटित घटना घटनपटीयसी माया के द्वारा परमार्थ ब्रह्म सत्ता से किञ्चित् न्यून सत्ताक ईश्वर का निरूपण किया जाता है । उसी में निमित्तता एवम् उपादानता दोनों है । बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव से वहीँ ईश्वर-जीव है ।

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