वृत्त्यारूढ़ सामान्य चेतन व्यवहार का निवर्तक है। एक बार एक क्षण के लिए ही रज्जु के ठीक स्वरूप का बोध हो जाने पर उसको बार-बार देखना आवश्यक नहीं रहता और न उसके साथ सर्प का व्यवहार ही रह जाता। ऐस ही अन्त:करण का बोध हो जाने पर उसके साथ व्यवहार नहीं रह जाता और अन्त:करण बिना चेतन के तादात्म्य के कोई वस्तु नहीं है कि वह स्वयं सक्रिय रहेगा, जैसे गगन की नीलिमा स्वयं कुछ कर नहीं सकती।
शरीर की अत्यन्त सामान्य आवश्यक क्रिया भी अन्त:करण के साथ किंचित तादात्म्य होने से ही होती हैं। इसीलिये सप्तम भूमिका में उनकी भी निवृत्ति मानते हैं। यह असम्भव है कि अन्त:करण का बोध भी हो जाय और वह राग-द्वेषादि सबको लिए सक्रिय भी रहे। अत: जहाँ भी ऐसा होता है, अद्वय तत्त्व बोध का केवल बोद्धिक-विलास है और वह किसी को मुक्त नहीं करता; क्योंकि सामान्य चेतन में बन्धन था ही नहीं और जिसमें बन्धन था, वह अन्त:करण से तादात्म्य तोड़कर बंधन-मुक्त हुआ नहीं। तादात्म्य टूट गया होता तो आभास मात्र अन्त:करण में सक्रियता समाप्त हो जाती।
यह चेतन का वृत्त्यारूढ़ होना क्या है? यह एक कल्पित स्थिति है। जैसे स्वप्न का रोग स्वप्न की ही औषधि से मिटता है, वैसे ही सृष्टि की कल्पना के कारण जो अन्त:करण की कल्पना करके उससे कल्पित रूप से तादात्म्यापन्न हो गया है, वह उस कल्पित अन्त:करण की कल्पित वृत्ति में कल्पित ब्रह्म की कल्पना करके इस तादात्म्य से मुक्त होता है। ब्रह्म कल्पना का विषय कभी बनता ही नहीं, अत: वृत्ति में आया ब्रह्म कल्पित ही होता है; किन्तु यह कल्पित ब्रह्माकार वृत्ति सकल अनर्थ की निवर्तिका है।
श्रुति-शास्त्र-सन्तवाणी मात्र सप्रयोजन हैं। यह प्रयोजन सृष्टि में-संसार में है और सप्राण मानव के लिए- शरीरधारी के लिए है। इस स्तर पर सृष्टि, शरीर, संसार- इस सबको सत्य मानकर ही साधक को चलना पड़ता है। अन्यथा प्रयोजन-पूर्ति के पश्चात तो जेसे शरीर तथा संसार का बाध होता है, शास्त्र का भी बाध हो जाता है।
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