॥ओम नारायण ॥
मैं कौन हूँ और मेरा क्या कर्तव्य है ?
पोस्ट संख्या- (१)
प्रत्येक मनुष्यको विचार करना चाहिये कि 'मैं कौन हूँ और मेरा क्या कर्तव्य है ?' मैं नाम, रूप, देह, इंद्रिय, मन या बुद्धि हूँ या इनसे कोई भिन्न वस्तु हूँ ? विचारपूर्वक निर्णय करनेसे यही बात ठहरती है कि मैं नाम नहीं हूँ। मुझे आज जयदयाल कहते हैं परंतु जब प्रसव हुआ था, उस समय इसका नाम जयदयाल नहीं था । यद्यपि मैं मौजूद था, घरवालोंने कुछ दिन बाद नामकरण किया । उन्होंने उस समय जयदयाल नाम न रखकर महादयाल रखा होता तो आज मैं महादयाल कहलाता और अपनेको महादयाल ही समझता । मैं न पूर्वजन्ममें जयदयाल था, न गर्भमें जयदयाल था और न शरीर-नाशके बाद जयदयाल रहूँगा । यह तो केवल घरवालोंका निदेश किया हुआ सांकेतिक नाम है । यह नाम एक ऐसा कल्पित है कि जब चाहे तब बदला जा सकता है और उसीमें उसका अभिमान हो जाता है । जो विवेकवान पुरुष इस रहस्यको समझ लेता है कि मैं नाम नहीं हूँ वह नामकी निन्दा-स्तुतिसे कदापि सुखी-दु:खी नहीं होता । जब मनुष्य 'नाम'की निन्दा-स्तुतिमें सम नहीं है, निन्दा-स्तुतिमें सुखी- दु:खी होता है, तब वह नाम न होनेपर भी 'नाम' बना बैठा है, जो सर्वथा भ्रमपूर्ण है । जो इस रहस्यको जान लेता है, उसमें इस भ्रमकी गन्धमात्र भी नहीं रहती । इसीलिये श्रीभगवानने तत्ववेत्ता पुरुषोंके लक्षणों को बतलाते हुए उन्हें निन्दा और स्तुतिमें सम बतलाया है… 'तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी' (गीता १२ । १९) 'तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:' (गीता १४ । २४)
फिर यह प्रसिद्ध भी है कि जयदयाल 'मेरा' 'नाम' है, 'मैं’ जयदयाल नहीं हूँ। इससे यह सिद्ध हुआ नाम 'मैं' नहीं हूँ।
इसी प्रकार रूप- भी मैं नहीं हूँ, क्योकि देह जड है और मैं चेतन हूँ । देह क्षय, वृद्धि, उत्पति और विनाश धर्मवाला है, मैं इससे सर्वथा रहित हूँ। बालकपनमें देहका और ही स्वरूप था, युवापनमें दूसरा था और अब कुछ और ही है; किंतु मैं तीनों अवस्थाओंको जाननेवाला तीनोंमे एक ही हूँ। किसी पुरुषने मुझको बाल्यावस्थामें देखा था, अब वह मुझसे मिलता है तो मुझे पहचान नहीं सकता । देहका रूप बदल गया । शरीर बढ़ गया, मूँछें आ गयी । इससे वह नहीं पहचानता । किन्तु मैं पहचानता हूँ, मैं उससे कहता है, आपका शरीर युवावस्थासे वृद्ध होनेके कारण उसमे कम अन्तर पडा है, इससे मैं आपको पहचानता हूँ। मैने अपको अमुक जगह देखा था । उस समय मैं बालक था, अब मेरे शरीरमें बहुत परिवर्तन हो गया, अत: आप मुझे नहीं पहचान सके । इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर 'मैं नहीं हूँ।' किंतु 'शरीर मैं हूँ' ऐसा अभिमान भी पूर्वोक्त नामके समान ही सर्वथा भ्रमपूर्ण है । जो पुरुष इस रहस्यको जानते हैं वे शरीरके मानापमान और सुख-टु:खमें सर्वथा सम रहते हैं, क्योकि वे इस बातको समझ जाते है कि मैं शरीरसे सर्वथा पृथक हूँ। इसीलिये तत्त्ववेत्ताओँके लक्षणोंमें भगवान कहते हैं-
'समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापनायो: ।'
(गीता १२। १८)
'मानापमानयोस्तुल्य:' ( गीता १४ । २५)
'समदुखसुखः स्वस्थ: ' ( गीता १४ । २४)
अतएव विचार करनेसे यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि यह जड शरीर मैं नहीं हूँ, मैं इस शरीरका ज्ञाता हूँ और प्रसिद्ध भी यही है कि -शरीर 'मेरा' है । मनुष्य भ्रमसे ही शरीरमें आत्माभिमान करके इसके मानापमान और सुख-दु:खसे सुखी-दु:खी होता है ।
॥ ओम नारायण ॥
क्रमश :--
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित 'ज्ञानयोगका तत्व' में परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका का लेख ।
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