ईश्वर की ईच्छा ।
मन में अपनी कोई चाह हो , और बड़े भारी मन से हताश होकर यह कहना जैसी प्रभु की इच्छा । यह अक्सर होता है , इतनी पीड़ा उनकी इच्छा के प्रति और भीतर अपनी चाह का ऑप्प्शन तब भी कि देख लो होना तो यह चाहिये था , हुआ नहीँ ।
कभी कभी तो ऐसा भी होता है , देख लो मैंने तो अपनी कह दी , अब आप करो जो करो । यहाँ भी उन्हें करुणानिधान जान यह जबरन कहना है , यहाँ भी उनकी चाह स्वीकार नहीँ ।
वास्तव में जबकि जीवन में आपके मन के विपरीत हो , वह भगवत् चाह है , भक्ति क्षेत्र के साधकों की बात कर रहा हूँ ।
जब आपको मीठा खाना हो और मिले कड़वा , वह आपकी चाह के विपरीत है , अतः किसी की तो चाह है तब देखियेगा किनकी है । खाइये फिर वहीँ कड़वा वह हमारे मीठे से अधिक हितकर होगा ।
जब अपने मन की न हो तब उनके मन की होती है , पर बड़ी पीड़ा वहाँ सभी को होती है ।
अपनी चाह को भगवान की चाह बहुत लोग कहते है , अपने मन के विराम , जब तक उसमेँ कोई चाह न आवें ईश्वर की ईच्छा जीवन में दर्शन नहीँ देती ।
उदाहरण - भगवान श्यामसुन्दर को तो राग रागिनी पसन्द है , शास्त्रीय गान , क्या आपको है ? अगर कभी ऐसा गान सुनने को भी मिले तो अधिक समय वहाँ हम टिकते नहीँ । जबकि विशुद्ध संगीत का आलम्बन उनके निकट करता है ।
उनकी सभी पसन्द गजब की है , हमारी ठीक उसी के विपरीत , और हम अपनी ही ईच्छा को उनकी ईच्छा बारबार कहते है ।
उनकी ईच्छा जीवन में आ जावें तब किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीँ यह निष्कामता , (अचाह) , अप्रयत्न से हो जावेगा ।
जब आप को दक्षिण जाना हो और जीवन उत्तर को जाने को कहे तो मना मत कीजिये , विचार कीजिये , यह किसकी चाह है , वहीँ जाईये वह भगवत् इच्छा हो सकती है ।
अपनी इच्छा रहते भगवत् इच्छा फलित नहीँ होती , भगवत् इच्छा सदा मंगलमय है । सत्यजीत तृषित ।
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