Monday, 4 April 2016

अध्यास ही बन्धन है - स्वामी अखण्डानन्द जी

अनिवर्चनीय माया के योग से परमेश्वर ही प्रपञ्च के रूप में भास रहा है । जीव अनादि है । प्रपञ्च में इसका अध्यास भी अनादि है । इस अध्यास के कारण ही यह अपने को कर्ता मान रहा है । अकर्ता आत्मा में कर्तृत्व बुद्धि ही अध्यास है । अध्यास ही बन्धन है । इसी के कारण जीव लोक-परलोक , पुनर्जन्म के संकट में फंस गया है । इसको इससे मुक्त करने के लिये शास्त्र, विधि-निषेध का विभाग बनाता है । ईश्वर के अनुग्रह से यह जीव विहित का अनुष्ठान करता है और निषिद्ध का त्याग करता है । इससे अन्तः करण शुद्ध होता है । शुद्ध अन्तः करण में ईश्वर स्वरूप का बोध की योग्यता आ जाती है । योग्य अधिकारी, अपने और परमात्मा के स्वरूप की सिद्ध एकता का अनुभव करता है । अध्यास अर्थात् अनात्मा में आत्मा का भ्रम मिट जाता है । जो मायिक प्रपञ्च पहले सत्य है ऐसा जान पड़ता था , वह मिथ्या , केवल प्रतिती मात्र रह जाता है । अज्ञानी की दृष्टि से माया थी , ज्ञानी की दृष्टि से वह अपना अस्तित्व नहीँ रखती है । फिर यह नाम-रूप-क्रियात्मक प्रपञ्च भी प्रत्येक चैतन्याभिन्न ब्रह्मरूप ही अनुभव होता है ।
नोट -आत्म तत्वज्ञान पहले प्रपञ्च को मिथ्या नहीँ मानना चाहिये , जब तक स्वबोध और दृश्य न हो । तब तक यथाभाग दायित्व को निष्कामता से निर्वह करना है , वरन् स्वबोध हुये बिन प्रपञ्च को मिथ्या कहना दम्भ और अधिक प्रपञ्च की सृष्टि कर सकता है । आज जगत को मिथ्या सब कहते है , परन्तु जगत के मिथ्या होने के लिये पूर्ण बोध किन्हीं विरले सन्त महात्मा और भगवत् अनुरागी जन को प्राप्त होता है , और जिन्हें मिथ्या दर्शन हो उनसे तो सहज मिथ्या कहना बनता नहीँ ।

No comments:

Post a Comment