Monday, 25 April 2016

रहस्य भाव 80

"ईशावास्यमिदंजगत्"
इस सम्पूर्ण जगत मेँ रहने
वाले सब चर-अचर
प्राणी परमात्मा मेँ ओत
प्रोत हैँ ,
अतः किसी भी सांसारिक
पदार्थ से मोह न रखते हुए
त्याग पूर्वक जीवन
निर्वाह हेतु
जितना आवश्यक
हो उतना ही उपभोग
करना चाहिए ।
तृष्णा का सदैव त्याग
करने का प्रयास
करना चाहिए क्योँकि यह
जगत एवं
सम्पत्ति किसकी और कब
हुई?
इसलिए त्यागपूर्वक
इनका उपभोग
करना चाहिए "तेन
त्यक्तेन भुञ्जीथा" अर्थात
सर्वस्व ईश्वर को अर्पण
कर देना ही श्रेयस्कर है
"त्वदीयं वस्तु गोविन्द
तुभ्यमेव समर्पये " दूसरो के
धन को प्राप्त करने
की स्पृहा नही करना चाहिए
"मा गृधः कस्यस्विद्धनम्"

यह सारा जगत ईश्वर से
व्याप्त है अर्थात् प्रभु
सर्वव्यापक है ,
"सियाराम मय सब जग
जानी "
ऐसा जो सोचेगा वह
कभी भी किसी से द्रोह
नही करेगा ।मन
को विषयोँ मे न फँसने देँ।
इस जगत के पदार्थ आज तक
किसी के नहीँ हुए और न
होँगे । फिर हम उनसे
ममता रखकर क्योँ उनमेँ
आसक्ति बढ़ाते है ?
ऋषि भी मोक्ष पाने से
पूर्व सत्कर्म करते हैँ।
सत्कर्म करने वाले
ही निष्काम भाव
को प्राप्त करने मे सफल
हो पाते हैँ ।
यहाँ तक कि ईश्वर
को भी सत्कर्म करने पड़ते
हैँ परन्तु ईश्वर
कभी भी किसी भी कर्म मे
आसक्त नहीँ होते । वे
अनासक्त रहकर कर्म करते
है । राम , कृष्ण
आदि अवतारो मे मानव
द्वारा अपनाने योग्य
श्रेष्ठ आचरण का आदर्श
बताने के लिए ही भगवान
ने सत्कर्म किये है ।
क्योँकि कर्म किये
बिना नहीँ चल सकता -- न
हि कश्चित्क्षणमपि जातु
तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
इसलिए अनासक्त रहकर
ही कर्म करना चाहिए ।
जय श्री कृष्ण

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