Thursday, 21 April 2016

नवधा भक्ति की बाह्य आन्तरिक और बाह्यांतर भक्ति

प्रेममय भगवद्-भक्ति की भागीरथी के पवित्र जल में स्नान किये बिना मनुष्य-जीवन सुख-शान्तिमय नहीं बन सकता।

श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का निरूपण किया गया है-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।

यह नव प्रकार की भक्ति और दसवीं प्रेमलक्षणा भक्ति तथा ग्यारहवीं पराभक्ति है। भक्ति की प्रथम सीढ़ी बाह्योपासना है और दूसरी सीढ़ी आन्तरोपासना है।
पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य और सख्य-ये पाँचों भक्तिमार्ग के बहिरंग साधन हैं और स्मरण, आत्मनिवेदन ये अन्तरंग साधन हैं और श्रवण तथा कीर्तन-ये दो बाह्यान्तर मिश्र साधन हैं। इन साधनों से बहिर्मुख वृत्ति को अन्तर्मुख किया जाता है। भक्ति का मुख्य लक्षण यही है कि भक्त की बहिर्मुख वृत्तियाँ लौकिक पदार्थों की ओर से हटकर अन्तर्मुख बन जायँ, जिससे वह मनोवृत्ति अपने भगवान के आराध्यस्वरूप में विलीन हो सके।

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