'कार्यकरणकर्त्तृत्त्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।
पुरुष: प्रकृतस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुष: पर:।।'[1]
इस सृष्टि का संचालक एक चेतन है। वह सृष्टि में व्यापक रहता भी इससे परे है और इस शरीर में- अन्त:करण में ही वह अन्तर्यामी रूप से स्थित है। वह महेश्वर उपद्रष्टा है, अनुमन्ता है। वस्तुत: वही भर्ता और भोक्ता भी है। वह अन्तर्यामी अन्त:करण में होकर भी केवल उपद्रष्टा है। वह अन्त:करण का मुख्य द्रष्टा नहीं है और अन्त:रण में तादात्म्यापन्न होकर कर्त्ता भी नहीं बना है। कर्त्ता तो है प्रकृति। अन्त:करण और बहि:करण[2] दोनों प्रकृति के कार्य हैं। अत: इन्द्रियों से या मन से जो कुछ होता है, सब कार्य प्रकृति के गुणों से ही होता है।
'प्रकृते र्क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।'[1]
वस्तुत: जीव किसी कर्म का कर्त्ता नहीं है; किन्तु अहंकार से मूर्छितप्राय होकर प्रकृति के गुणों से हुए कार्यों को वह अपने में आरोपित करके अपने को कर्त्ता मान लेता है। यह मान लेने के कारण ही कर्म के शुभाशुभ फल का वह भोक्ता बन जाता है।
जो महेश्वर है, प्रकृति का संचालक है, वही वास्तविक भोक्ता है। लेकिन वह इस शरीराभिमानी जीव का भर्ता है- इसका भरण-पोषण वही करता है, अत: जब अज्ञानी जीव अपने को कर्त्ता मान लेता है, तब वह इसकी मान्यता का अनुमोदन कर देता है। वह अनुमन्ता बना रहता है। सत्यजीत तृषित ।
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