Wednesday, 13 April 2016

भक्ति का दिव्य दर्शन विनोबा भावे

भक्ति का दिव्य दर्शन
-- विनोबा भावे

भाइयो, अर्जुन के सामने जब स्वधर्म-पालन का प्रश्न उपस्थित हुआ, तो उसके मन में स्वकीय और परकीय का मोह उत्पन्न हो गया और वह स्वधर्माचरण को टालने की चेष्टा करने लगा। उसका यह वृथा मोह पहले अध्याय में दिखाया गया। इस मोह को मिटाने के लिए दूसरा अध्याय शुरू हुआ। उसमें ये तीन सिद्धान्त बताये गये-

अमर आत्मा सर्वत्र व्याप्त है,
देह नाशवान है और
स्वधर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए। साथ ही कर्मफल-त्यागरूपी वह युक्ति भी बतलायी, जिससे इन सिद्धान्तों पर अमल किया जा सके। इस कर्मयोग का विवरण देते हुए उसमें से कर्म, विकर्म और अकर्म, ये तीन वस्तुएं उत्पन्न हुई। कर्म-विकर्म के संगम से उत्पन्न होने वाले दो प्रकार के अकर्म पांचवें अध्याय में हमने देख लिये। छठे अध्याय से भिन्न-भिन्न विकर्म बताने की शुरूआत की गयी है। छठे अध्याय में साधना के लिए आवश्यक एकाग्रता बतायी गयी।
आज सातवां अध्याय है। इस अध्याय में विकर्म का एक नया ही भव्य कक्ष खोल दिया गया है। सृष्टि-देवी के मंदिर में, किसी विशाल वन में, हम जिस तरह नाना प्रकार के मनोहर दृश्य देखते जाते हैं, वैसा ही अनुभव गीता ग्रन्थ में होता है। छठे अध्याय में एकाग्रता का कक्ष देखा। अब हम जरा दूसरे कक्ष में प्रवेश करें।

2. उस कक्ष का द्वार खोलने से पहले ही भगवान ने इस मोहकारिणी जगत् रचना का रहस्य समझा दिया है। एक ही प्रकार के कागज पर एक ही कूंची से चित्रकार नानविध चित्र अंकित करता है। कोई सितारिया सात स्वरों से ही अनेक राग निकालता है। वाङ्मय के बावन अक्षरों की सहायता से हम नाना प्रकार के विचार और भाव प्रकट करते हैं। वैसा ही इस सृष्टि में भी है। सृष्टि में अनंत वस्तुएं और अनंत वृत्तियां दिखायी देती हैं। परन्तु यह सारी अंतर्बाह्य सृष्टि एक ही अखंड आत्मा और एक ही अष्टधा प्रकृति के दुहरे मसाले से बनी हुई है। क्रोधी मनुष्य का क्रोध, प्रेमी मनुष्य का प्रेम, दुःखी का क्रंदन, आनंदी का हर्ष, आलसी का नींद की ओर झुकाव, उद्योगी का कर्मस्फुरण; ये सब एक ही चैतन्य-शक्ति के खेल हैं। इन परस्पर-विरुद्ध भावों के मूल में एक ही चैतन्य भरा हुआ है। भीतरी चैतन्य एक ही है। उसी तरह बाह्य आवरण का भी स्वरूप एक ही है। चैतन्यमय आत्मा और जड़ प्रकृति, इस दुहरे मसाले से सारी सृष्टि बनी है, जनमी है, यह आरंभ में ही भगवान बता रहे हैं।
आत्मा और देह, परा और अपरा प्रकृति, सर्वत्र एक ही है, फिर भी मनुष्य मोह में क्यों पड़ जाता है? भेद क्यों दिखायी देता है? प्रेमी मनुष्य का चेहरा मधुर मालूम होता है, तो किसी दूसरे को देखकर तबीयत हटती है। एक से मिलने की और दूसरे को टालने की तबीयत क्यों होती है? एक ही पेंसिल, एक ही कागज, एक ही चित्रकार, परन्तु नाना चित्रों से नाना भाव प्रकट होते हैं। इसी में तो चित्रकार की कुशलता है। चित्रकार की, सितारिये की उंगलियों में ऐसी कुशलता है कि वे हमें रुला देते हैं, हंसा देते हैं। यह सारी खूबी उनकी उन उंगलियों में है।
यह निकट रहे, वह दूर रहे; यह मेरा, वह पराया- ऐसे जो विचार मन में आते हैं और जिनके चलते मनुष्य मौके पर कर्तव्य से कतराने लगता है, उसका कारण मोह है। इस मोह से बचना हो तो उस सृष्टि-निर्माता की उंगली की करामात का रहस्य समझ लेना चाहिए। बृहदारण्यक उपनिषद में नगाड़े का दृष्टांत दिया है। एक ही नगाड़े से भिन्न-भिन्न नाद निकलते हैं कुछ नादों से मैं डर जाता हूं, कुछ को सुनकर नाच उठता हूं। उन सब भावों को यदि जीत लेना है, तो नगाड़ा बजाने वाले को पकड़ लेना चाहिए। उसके पकड़ में आते ही सारे नाद पकड़ में आ जाते हैं। भगवान एक ही वाक्य में कहते हैं- "जो माया को तर जाना चाहते हैं वे मेरी शरण आयें।"

येथ एकचि लीला तरले। जे सर्व भावें मज भजले।
तयां ऐलीच थडी सर लें। मायाजळ॥

-‘यहां वही व्यक्ति लीला को तरते है, जो सर्वभाव से मेरा भजन करते हैं। उनके लिए इसी किनारे मायाजाल सूख गया है।’ तो यह माया क्या है ? माया कहते है परमेश्वर की शक्ति को, उसकी कला को, उसकी कुशलता को। आत्मा और प्रकृति- अथवा जैन परिभाषा में कहें, तो जीव और अजीवरूपी इस मसाले से जिसने यह अनंत रंगोंवाली सृष्टि रची है, उसकी शक्ति अथवा कला ही ‘माया’ है। जेलखाने में जैसे एक ही अनाज की वह रोटी और वही एक सर्वरसी दाल होती है, वैसे ही एक अखंड आत्मा और एक ही अष्टधा शरीर समझो। इससे परमेश्वर तरह-तरह की चीजें बनाता रहता है। हम इन चीजों को देखकर अनेक विरोधी, अच्छे-बुरे भावों का अनुभव करते हैं। इसके परे जाकर यदि हम सच्ची शांति पाना चाहते हैं, तो इन वस्तुओं के निर्माता को पकड़ना चाहिए, उससे परिचय कर लेना चाहिए। उससे जान-पहचान होने पर ही यह भेद-मूलक, आसक्ति-जन्य मोह टाला जा सकेगा।
उस परमेश्वर को समझ लेने का एक महान साधन, एक महान विकर्म, बताने के लिए सातवें अध्याय में भक्ति का भव्य दालान खोल दिया है। चित्त-शुद्धि के लिए यज्ञ-दान, जप-तप, ध्यान-धारणा आदि अनेक विकर्म बताये जाते हैं; परंतु इन साधनों को मैं सोडा, साबुन और अरीठा की उपमा दूंगा। लेकिन भक्ति को पानी कहूंगा। सोडा, साबुन अरीठा सफाई करते हैं, परंतु पानी के बिना उनका काम नहीं चल सकता। पानी न हो, तो उनसे क्या लाभ? सोडा, साबुन, अरीठा न हो, केवल पानी हो, तो भी वह निर्मलता ला सकता है। उस पानी के साथ यदि ये पदार्थ भी हों, तो अधिकस्य अधिकं फलम् हो जायेगा। कहेंगे कि दूध में शक्कर पड़ी है। यज्ञ-याग, ध्यान, तप, इन सबमें यदि हार्दिकता न हो, तो फिर चित्त-शुद्धि होगी कैसे? हार्दिकता का ही अर्थ है - भक्ति।
सब प्रकार के साधनों को भक्ति की जरूरत है । भक्ति सार्वभौम उपाय है। सेवा शास्त्र सीखकर, उपचारों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर कोई मनुष्य रोगी की सेवा-शुश्रूषा के लिए जाता है, पर यदि उसके मन में सेवा की भावना न हो तो बताओ‚ सच्ची सेवा कैसे बनेगी? बैल भले ही खूब मोटा-ताजा हो, पर यदि गाड़ी खींचने की इच्छा ही उसे न हो, तो वह कंधा डालकर बैठ जायेगा और संभव है कि गाड़ी को किसी खड्डे में भी गिरा दे। जिस कार्य में हार्दिकता नहीं है, उससे न तृष्टि मिल सकती है, न पुष्टि। -- गीता प्रवचन , विनोबा भावे । क्या आप इस विषय को पूरा पढ़ना चाहेँगे - सत्यजीत तृषित । क्रमशः ....

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