Saturday, 9 April 2016

श्रीराधाकृष्ण की सुषुप्ति ही अद्वैत है , तृषित

श्री राधा में यहाँ राधा पूर्ण राधा नहीँ , अर्ध ही है । शेष अर्द्ध राधांश श्रीकृष्ण में है । राधाकृष्ण का मिलन होने पर ही पूर्णराधा और पूर्ण कृष्ण का संयोग है । मिलन से पूर्व , श्री कृष्ण में भी राधाभाव है और श्री राधा में भी कृष्ण भाव । अतः पूर्ण श्रीकृष्ण माधुर्य अतिमधुर रससारपूर्णराशि और पूर्ण श्री राधा रसामृत सिंधु का दर्शन युगलतत्व में ही है । राधा ही कृष्ण और कृष्ण ही राधा है और यही रसवर्धन को दो होकर जब  एकत्व में हो तब ही पूर्ण माधुर्य रस का निभृत दर्शन है ।
श्री कृष्ण 16 कलाओं से पूर्ण है , वहीँ श्री राधा का एक नाम षोडशी है । यह उनकी नित्यकिशोर अवस्था हेतु भी है ।
श्री कृष्ण सच्चिदानन्द साकार परमब्रह्म साक्षात् है , श्रीकृष्ण से शेष जो भी परमतत्व वह ही शेष भगवान बलराम है । यह परब्रह्म सत् चित् आनन्द के गुण स्वरूप है , या कहे "शिव" है ।  सगुण साकार श्री कृष्ण और फिर भी शेष निर्गुण निराकार स्वरूप ही शेष भगवान है ।  राधाकृष्ण सम्मिलन में एक अखण्ड रसमय तत्व विग्रह के रूप में नित्य विराजमान है । राधा और कृष्ण वस्तुतः एक होने पर भी लीला के लिये परस्पर पृथक् से भासित होने पर भी पृथक् नहीँ ।
एक भाव यह भी है अद्वैतत्त्व एक प्रकार से श्री राधाकृष्ण की सुषुप्ति (विश्रामवस्था) अवस्था है । इस अवस्था में ना श्रीराधा में स्फूर्ति हो पाती है ,ना ही श्रीकृष्ण में स्फूर्ति हो पाती है । अतः तब शेष तत्व अद्वैतब्रह्म है । इस रसमय सुषुप्ति में दोनों सभी विशेष अतिविशेष का परिहार्य कर महासुषुप्ति में निमग्न है । जब यह सुक्षुप्ति भग्न होती है अर्थात् जब श्री गोविन्द के अंग से अकथनिय अन्तः और बाह्य प्रयास से श्री राधा अलग होकर जाग उठती है और इनके जागते ही स्वभाववश गोविन्द भी जागने लगते है , तब फिर लीलामय , विचित्र-माधुर्यमय, सांख्य से दूर संख्यातीत विलासमय, अनन्तभावमय और अनन्त रसों के अनन्त प्रकार के आस्वाद से पूर्ण व्रजधाम स्फुट होता है । और उसके ही साथ उसके वैभव रूपी गोलोक धाम का भी विकास दृश्य होने लगता है । --- सत्यजीत तृषित ।

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