भगवान के सामीप्य की अवस्था में यह बात सत्य सिद्ध है । अगर अभी आप धाम में है , उनकी गोद में ।
चरित्र तो सभी जगह विद्य है , जहाँ आप वहाँ चरित्र सहज सुलभ है , वहीँ भगवान और नित्य धाम भी , भेद नहीँ , पर प्राकृत स्वरूप हेतु प्राकृत संग भी आवश्यक है ।
चरित्र अप्राकृत सुगन्ध से भरे है और प्राकृत देह आभास संग चरित्र से अप्राकृत महक तो ली जा सकती है । परन्तु भगवान के अप्राकृत स्पर्श हेतु अप्राकृत देह अनिवार्य ही है ।
प्राकृत आभास से भगवत् स्वरूप की भक्त प्राकृत अनुभूति करना चाहता है । अगर अप्राकृत पूर्ण भगवत् माधुर्य स्वरूप की झाँकी चित् में उतरे तो वह अप्राकृत कही नहीँ जा सकती है । भगवान को देख कर भी कहने में भेद होगा ,
अप्राकृत स्वरूप कहा नहीँ जायेगा कहा हुआ प्राकृत होगा । और प्राकृत जीव को प्राकृत बात सरलता से समझ आएगी ।
मूल में भगवत् रूप , नाम , लीला , धाम , आदि में भेद ही नहीँ है । एक ही है ।
No comments:
Post a Comment