Tuesday, 5 April 2016

प्रश्नोत्तर मणिमाला भगवत् प्रेम सम्बन्ध में

स्वामी रामसुखदास जी के पुस्तक
'प्रश्नोत्तरमणिमाला' कोड 1175 गीताप्रेस गोरखपुर :
प्रश्न - जीव का भगवान में आकर्षण (प्रेम ) है ,
पर भगवान का जीव में आकर्षण कैसे है ?
उत्तर - आकर्षण तो भगवान और जीव - दोनों में है ,
पर भूल जीव में है , भगवान में नहीं |
जैसे बच्चे को माँ का प्रेम नहीं दिखता , ऐसे
ही संसार में आकर्षण होने के कारण मनुष्य को
भगवान का प्रेम (आकर्षण ) नहीं दिखता | यदि
भगवान का प्रेम दिखे (पहचान में आये ) तो उसका संसार में
आकर्षण हो ही नहीं |
भगवान कहते है - ' सब मम प्रिय सब मम उपजाए' ( मानस,
उत्तर. ८६ |२ ) भगवान का प्रेम ही
जीव को खींचता है , जिससे कोई
भी परिस्थिति निरन्तर नहीं
रहती |
प्रश्न - क्या परम प्रेम की प्राप्ति से पहले मुक्त
होना आवश्यक है ?
उत्तर - ज्ञान मार्ग में मुक्ति के बाद प्रेम प्राप्त होता है और
भक्ति मार्ग में प्रेम -प्राप्ति के बाद मुक्ति होती है |
प्रेम तो जीवनमात्र में पहले से ही
विधमान है , पर संसार में राग होने के कारण वह प्रेम प्रकट
नहीं होता | सत्संग से जितना राग मिटता है , उतना
ही प्रेम प्रकट होता है और जितना प्रेम प्रकट होता
है , उतना ही राग मिटता है |
वास्तव में प्रेम के अधिकारी मुक्त महापुरुष
ही होते है | मुक्ति से पहले भी प्रेम हो
सकता है , पर वह असली नहीं होता | हाँ
, साधक के लिए वह बहुत सहायक होता है | असली
प्रेम मुक्ति के बाद ही होता है | मुक्ति से पहले ' मैं
भगवान का हूँ '- ऐसी मान्यता रहती है ,
पर मुक्ति के बाद मान्यता नहीं रहती ,
प्रत्युत अनुभव होता है |
प्रश्न - भगवान ने प्रेम लीला के लिए
स्त्री -पुरुष ( राधा -कृष्ण )- का रूप क्यों धारण किया ?
दो मित्रों में भी तो प्रेम हो सकता है !
उत्तर - संसार में सबसे अधिक आकर्षण स्त्री -पुरुष
के बीच ही होता है | इसलिए आकर्षण
तो स्त्री -पुरुष की तरह हो , पर
अपनी सुखबुद्धि किंचिन्मात्र भी न हो -
यह बात संसारी लोगों को समझाने के लिए ही
भगवान ने राधा -कृष्ण का रूप धारण किया | जिसकी
दृष्टि में स्त्री -पुरुष का भेद हो , वह राधा -कृष्ण
की प्रेम -लीला की
नहीं समझ सकता | इसको ठीक समझने
के लिए साधक को चाहिए की वह स्त्री -
पुरुष का भाव न रखे | अपने में सुखबुद्धि होने के कारण इसको
समझने में कठिनता पड़ती है | जिसके
भीतर किंचिन्मात्र भी अपने सुख
की आसक्ति है , वह प्रेम -तत्व को
नहीं समझ सकता | इसलिए जीवन्मुक्त
ही इस भाव को ठीक समझ सकता है |
प्रश्न -क्या श्रीजी की
रागात्मिका भक्ति जीव को प्राप्त हो सकती
है ?
उत्तर - हाँ , हो सकती है | कारण की
भगवान ने श्रीजी को भी
अपने में से प्रकट किया है और जीवों को
भी | अतः श्रीजी और
जीव में कोई अन्तर नहीं है | अन्तर
इतना ही है की जीव ने
मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरूपयोग किया , पर
श्रीजी ने दुरुपयोग नहीं किया |
अतः श्रीजी की रागात्मिका
भक्ति (प्रेम ) सब जीवों को प्राप्त हो
सकती है |
प्रश्न - प्रेम में एक से दो होनेपर दोनों समान रहते है , फिर
दस्यभाव (एक स्वामी , एक सेवक ) कैसे होता है ?
उत्तर - दास्य आदि कोई भाव हो ,प्रेम में अपनी
अलग सत्ता नहीं है ; क्योंकि प्रेम में एक होकर दो
हुए है | इसलिए कभी सेवक स्वामी हो
जाता है , कभी स्वामी सेवक हो जाता है |
कभी राधा कृष्ण बन जाती है ,
कभी कृष्ण राधा बन जाते है | शंकर जी
के लिए कहा भी है - 'सेवक स्वामी सखा
सिय पि के'(मानस ,बाल.१५|२ ) !
दक्षिण के एक मंदिर में शंकर जी ने
नन्दी को उठा रखा है ! कभी
नन्दी शंकर जी को उठाता है ,
कभी शंकर जी नन्दी को
उठाते है ! कभी भगवान कृष्ण इष्ट है ,
कभी अर्जुन इष्ट है - 'इष्टोचसि मे
दृढमिति'( गीता १८ | ६४ ) | इसलिए प्रेम को
प्रतिक्षण वर्धमान कहा है |
प्रश्न -जब साधक भगवान में अपनापन करता है , तब उसको
प्रेम प्राप्त होता है , पर सिद्ध (जीवन्मुक्त ) -को
प्रेम कैसे प्राप्त होता है ?
उत्तर - साधक के लिए अपनापन है और मुक्त के लिए असन्तोष
है | तात्पर्य है की जब भगवान की कृपा
मुक्ति के रस को भी फीका कर
देती है , तब उसको मुक्ति से असन्तोष हो जाता है
की 'आप' (स्वयं ) तो मिल गया , पर 'अपना
' (स्वकीय ) नहीं मिला ! मुक्ति से
असन्तोष होने पर उसको परम प्रेम की प्राप्ति हो
जाती है |
प्रश्न - भगवान मीठे कैसे लगें ?
उत्तर - भगवान मीठे लगेंगे संसार खारा लगने से !
प्रश्न - मुक्ति में तो सूक्ष्म अहंकार रहता है , पर प्रेम में वह
नहीं रहता , इसका क्या कारण है ?
उत्तर - कारण यह है की जीव परमात्मा
का अंश है | अतः यह परमात्मा से ज्यों-ज्यों दूर जाता है , त्यों -
त्यों अहंकार ढृढ़ होता जाता है और ज्यों -ज्यों परमात्मा
की तरफ जाता है त्यों -त्यों अहंकार मिटता जाता है |
इसलिए स्वरूप में स्थित होनेपर भी सूक्ष्म अहंकार
रहता है और प्रेम में भगवान के साथ अभित्र होनेपर अहंकार
सर्वथा मिट जाता है |
प्रश्न - भगवान में प्रेम कैसे बढे ?
उत्तर -हम केवल भगवान के ही अंश है ; अतः वे
ही अपने है | उनके सिवाय और कोई भी
अपना नहीं है | इस प्रकार भगवान में अपनापन होने
से प्रेम स्वत: बढ़ेगा | इसके सिवाय भगवान से प्रार्थना
करनी चाहिए की ' हे नाथ ! आप
मीठे लगो , प्यारे लगो !' भगवान का गुणगान करने से,
उनका चरित्र पढने से , उनके नाम का कीर्तन करने से
उनमे प्रेम हो जाता है | भगवान के चरित्र से भी
भक्त -चरित्र पढने का अधिक माहात्म्य है |
प्रश्न - प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान कैसे होता है ?
उत्तर - प्रेम में योग और वियोग ,मिलन और विरह दोनों होते है |
जब भक्त की वृति भगवान की तरफ
जाती है , तब 'नित्ययोग ' होता है और जब
अपनी तरफ जाती है , तब 'नित्यवियोग '
होता है | भगवान की तरफ वृति जानेपर एक भगवान
के सिवाय कुछ नहीं दिखता और अपनी
तरफ वृति जानेपर स्वयं अलग दिखता है | 'भगवान ही
है' -यह नित्ययोग है और 'मैं भगवान का हूँ '- यह नित्यवियोग है
| नित्ययोग में प्रेम का आस्वादन होता है और नित्यवियोग में प्रेम
की वृद्धि होती है |
प्रश्न - यदि हम निष्काम भाव से किसी व्यक्ति से
प्रेम करे तो उसका क्या परिणाम होगा ?
उत्तर - कामना के कारण ही संसार है | कामना न हो तो
सब कुछ परमात्मा ही है , संसार है ही
नहीं | निष्काम प्रेम होनेपर संसार नहीं
रहेगा | कामना गयी तो संसार गया ! इसलिए निष्काम भाव
से किसी के साथ भी प्रेम करें तो वह
भगवान में ही हो जायगा |
प्रश्न - भगवान में प्रेम की भूख क्यों है ?
उत्तर - भगवान में अपार प्रेम है , इसलिए उनमे प्रेम
की भूख है | जैसे , मनुष्य के पास जितना ज्यादा धन
होता है , उतनी ही ज्यादा धन
की भूख होती है | भगवान में प्रेम
की कमी नहीं है , पर भूख
है |
प्रश्न - प्रेम से रोना और मोह (शोक ) - से रोना - दोनों में क्या
अंतर है ?
उत्तर - प्रेम के आँसू ठण्डे और मोह के आँसू गरम होते है |
मोह के आँसू तो नेत्रों के बीच से निकलते है , पर
प्रेम के आँसू नेत्र के भीतरी ( नासिका
की तरफ ) कोने से निकलते है | अधिक प्रेम होनेपर
आँसू पिचकारी की तरह तेजी
से निकलते है |
राम राम राम राम राम

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