Monday, 4 April 2016

ज्ञानी (तत्वज्ञ) के जीवन में काम क्रोधादि दोष रहते है अथवा नहीँ ।

सेठ जी जयदयाल गोयन्दका जी ने एक प्रश्न कई विद्वानों से किया ,
ज्ञानी (तत्वज्ञ) के जीवन में काम क्रोधादि दोष रहते है अथवा नहीँ । यदि तत्वज्ञानी के जीवन में यह विकार रहे तब दुःख भी रहेगा , यदि तत्वज्ञान से दुःख की निवृत्ति नहीँ हुई तो कोई भी तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रयत्न क्यों करेगा ?
श्री जयेंद्रपुरी जी महाराज ने पूर्व में इसी विषय पर पूछने पर कुम्भ में कहा था कि विकारों का कारण अविद्या लेश है , जैसे किसी दोने में चम्पा का पुष्प पहले रखा हो और उसको हटा देने पर भी दोनें में थोड़ी सी गन्ध रह जाती है , वैसे ही ज्ञानी के अन्तःकरण में अविद्या का लेश शेष रह जाता है । इससे विकार होते देखे जाते है ।
सेठ जी को यह जँचा नहीँ , उनका कहना था कि अविद्या यदि सत् वस्तु है तो अद्वैत सिद्धान्त की हानि हो जायेगी , द्वेत सिद्ध हो जायेगा । यदि अविद्या असद् वस्तु हो तो बन्धन की सिद्धि नहीँ हो सकेगी । इसलिये अज्ञानी अज्ञान रहकर ही अविद्या की कल्पना करता है , तत्व ज्ञान होने पर न अविद्या है न अविद्या का लेश ही है ।
श्री उड़िया बाबा जी का कहना था कि तत्वज्ञ की स्व दृष्टि से अविद्या तत्कार्य नहीँ है । भ्रांत दृष्टि से कल्पित है। अतएव अविद्या एवं तत्कार्य की स्थिति अनिवर्चनीय ही है , वास्तविक नहीँ है ।
सेठ जी यहीँ प्रश्न करपात्री जी महाराज से किया और तत्वज्ञ के जीवन में विकार मानने से समाज की हानि का प्रतिपादन किया ।
श्री करपात्री जी महाराज ने निरूपण किया कि " औपनिषद् महावाक्य के द्वारा अखण्डार्थ का साक्षात्कार होने पर अविद्या की निवृत्ति हो जाती है , यह तो ठीक है । परन्तु जब तक शरीर है तब तक उसमें यौवन , वार्धक्य , रोग आते रहते है । स्वप्न , सुषुप्ति अवस्थाएं भी आती है । साक्षी के ब्रह्मत्व का बोध होने से अन्तः करण एवम् विषय के भान में कोई अंतर नहीँ पड़ता । ब्रह्मविद्या केवल भ्रम को निवृत्त करती है , भासमान (प्रपञ्च) को नहीँ । अतएव साक्षीभास्य अन्तःकरण में यदि तत्वज्ञान के अनन्तर भी विकार आते है , तो मुक्ति में कोई बाधा नहीँ पड़ती , क्योंकि आत्मा तो नित्य मुक्त स्वरूप ही है । अविद्या की निवृत्ति तो केवल उपलक्षण मात्र है । इसलिये समाज के लिये यही हितकारी है कि उसे ज्ञात रहे कि तत्वज्ञ के जीवन में भी विकार हो सकते है । और वह अंध श्रद्धा के वश होकर ज्ञानी को निर्विकार समझकर , ठगा न जाएं और किसी धोखे में न पड़े । इससे सम्प्रदाय आदि की कोई हानि नहीँ होगी , पूर्व में सत्य आग्रह से प्रत्युत सत्यवादी होने से समाज में प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी । जब पुनः इस विषय पर श्री उड़ियाबाबा जी महाराज से पूछा तब वें बोलें कि निर्विकारता और विकारता दोनों ही अज्ञ दृष्टि का अनुवाद है । वस्तुतः अपना स्वरूप नित्य , शुद्ध , बुद्ध , मुक्त ही है ।
--स्वामी श्री अखण्डानन्द जी द्वारा वर्णित । सत्यजीत "तृषित" |||

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