Friday, 29 April 2016

सेवा कैसे हो

किन्हीं ने कुछ पूछा , अयोग्यता वश मुझे इतना कोई ज्ञान नहीँ , ना ही ज्ञान के संकलन का मानस ।
हाँ भीतर से जो उनका उत्तर निकलता है वह कहता हूँ ,
कितनी माला जप  करनी चाहिये ?
संख्यावाची उत्तर यहाँ केवल उस संख्या तक लें जाना होगा , माला उतनी जपिये जब माला छोड़ते न बने । अगर 5 माला बाद इतना रस हो कि माला की संख्या आदि विस्मरण होने लगें तब छोड़ दीजिये , जब भी छोड़ा न जा सके उस अवस्था तक जा कर जप रोकिये , रुकना वहाँ है जहाँ रुकना सुकूँ नहीँ पीड़ा देवें , ऐसे छोड़ी माला भीतर व्याकुल कर देगी । अगर 100 माला जप कर भी माला छोड़ना सहज हो तो जपते रहिये जब तक जप छोड़ना असहज न हो।
सेवा कैसी करें ?
पहले मुझे लगता है यथा सामर्थ्य सेवा हो । जैसी बन पड़े , जो की जा सकें । पर अब लगा यह तो अहम् को ही पुष्ट करेगा । देखा भी अपनी सहूलियत की सेवा लेने पर आराध्य के सुख की नहीँ अपने सुख की चिंता वहाँ कारगर होती है , अतः सेवा वह करनी हो जो बस में न हो , कम से कम मानस सेवा तो वहीँ ही जो लौकिक सेवा नहीँ बन सकती हो । जैसे यहाँ किन्हीं के पैरों में दर्द रहता है तो मानस सेवा में वह झाड़ू और पोछा करें । हो सकें तो लोक में भी करें । अपनी सुविधा अनुसार सेवा का चुनाव अपने अहम् की सिद्धि होने लगती है । अपने आराध्य की सुविधा और उसमेँ अपनी क्षमता से भी ऊपर बात हो तब वहीँ करना है । मान लीजिये लोक में नाचना बस की बात नहीँ तो भगवत् सेवा में नाचिये । सेवा वह हो जो अपनी सुविधा और सहजता में ना हो , यह होता नहीँ वैसे । सभी जगह सेवा प्रसाद में स्वीकारी नहीँ जाती , अपने अनुकूल सेवा ही की जाती है ।
लौकिक मालिक जिस तरह अपने सेवक के दायरे से ऊपर सेवा लेते है ऐसे ही पूर्णमनोयोग भगवान के लिये सेवा हो , सेवक सच्चा हो । हम सेवा करते समय भी भगवान की सहजता और सरलता आदि के आडम्बर में स्वाँग करते है , कठिन इसलिये नहीँ करते कि भगवान को पीड़ा होगी हमारी कठिन सेवा से । फिर जगत् में उलटे हो जब मालिक होते है तब हम सेवक का हित नहीँ अपना हित सोचते है । अर्थात् कुल मिला कर अपना हित ही जानते और मानते है पर सेवा और परम् सेवा में भी स्व हित की भावना होने लगती है और होनी चाहिये स्वामी का सुख सम्पादन ही ।
शेष प्रश्न भूल गया , याद आने पर आगे .... सत्यजीत तृषित ।

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