सृष्टि सत्य नहीं है, आभासमात्र है। इसका अभिन्न निमित्तोपादान कारण जो सत्ता है, वह चिन्मात्र है। वह अद्वय सत्ता निराकार, निर्विकार, निर्धर्मक, निर्विशेष, निर्गुण है, अत: निष्प्रयोजन है; क्योंकि प्रयोजन सदा व्यक्ति का होता है। उस अद्वय सत्ता में व्यक्त-अव्यक्त दोनों कल्पित हैं,अत: व्यक्ति भी उसमें स्वप्नवत ही भासते हैं। वह सत्ता न किसी का प्रयोजन है, न उसका कोई प्रयोजन है और न उससे किसी-के-किसी प्रयोजन की पूर्ति होती; क्योंकि उसमें दूसरा है ही नहीं। श्रुति, शास्त्र और सन्तों की समस्त वाणी सप्रयोजन है। यह व्यक्ति के लिए है। प्रयोजन ही व्यक्ति का होता है। श्रुति-शास्त्र-सन्त वाणी का प्रयोजन नहीं मानेंगे तो वह व्यर्थ हो जायेगी। प्रयोजन अधिकारी के अनुसार होता है, अत: यह वाणी भी अधिकारी के लिए उसके अधिकार के अनुरुप साधन का निर्देश करती है।
अधिकारी का आधार है अन्त:करण। अत: समस्त वाणी-सब साधन-साध्य का निरुपण अन्त:करणवान पुरुष के लिए है। सामान्य चेतन अर्थात ब्रह्म तो अन्त:करण भी है और उसका प्रकाशक भी। वह वाणी का मन-बुद्धि का भी विषय ही नहीं है। वह है- उसका जो प्रतिपादन श्रुति-शास्त्र में है, वह भी सप्रयोजन है और वह प्रतिपादन निषेध मुख से ही है। वह सामान्य चेतन किंचित सविशेष हुए बिना किसी का प्रयोजन नहीं बनता और न उससे किसी के किसी प्रयोजन की पूर्ति होती। अत: उसका जो प्रतिपादन है श्रुति-शास्त्र में, वह उसे किंचित सविशेष बनाकर ही है। वह निर्विशेष है, निर्गुण है, यह कहना भी उसे सगुण, सविशेष से कुछ भिन्नता, विशेषता देता है या नहीं?
प्रयोजन अन्त:करणवान पुरुष का है और वह प्रयोजन है अन्त:करण से सदा के लिए पिण्ड छुड़ा लेना। क्योंकि समस्त आध्यात्मिक साधनों का उद्देश्य दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति तथा शाश्वत सुख की प्राप्ति ही है और यह प्रयोजन अन्त:करण संयुक्त रहते पूरा हो नहीं सकता। अन्त:करण त्रिगुणात्मिका प्रकृति का कार्य है। अत: उसमें कोई एक गुण नित्य जागृत नहीं रह सकता। उसमें तो कभी सत्त्वगुण, कभी रजोगुण तथा कभी तमोगुण का प्राबल्य होगा ही। अत: दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति का अर्थ ही है अन्त:करण की अन्त्येष्टि।
सामान्य चेतन निष्प्रयोजन भले हो; किन्तु जब वह वृत्त्यारूढ़ होता है, तब अन्त:करणारूढ़ चेतन से उसका तादात्म्य हो जाता है। इस तादात्म्य को ही ब्रह्माकार वृत्ति कहते हैं और यही मुक्ति का हेतु है; क्योंकि सामान्य चेतन से एकत्व का बोध होने पर अन्त:करण का बोध हो जाता है। तब आकाश की नीलिमा के समान उसकी प्रतीति भले बनी रहे; किन्तु उसमें व्यवहार सम्भव नहीं है। प्रतीति से तादात्म्य होकर ही व्यवहार होता है। रज्जु में सर्प की प्रतीति है, तभी तब उससे भय, भागना, बचना या उसे मारने का प्रयत्न है। उसकी प्रतीति भले सर्पाकार बनी रहे, वह रज्जु (रस्सी) है, यह जानते ही उसके साथ सर्पवत व्यवहार समाप्त हो जाता है।
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