॥ओम नारायण ॥
मैं कौन हूँ और मेरा क्या कर्तव्य है ?
पोस्ट संख्या- (२)
(पिछली पोस्टमें अपने आत्म-स्वरूपमें नाम, रूप तथा देहका निषेध बताया था। अब इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदिकी अपने सत्-स्वरूपमें स्थितिके बारेमें बता रहे हैं।)
इसी तरह इन्द्रियाँ भी मैं नहीं हूँ। हाथ-पेरोंके कट जाने, आँखें नष्ट हो जाने और कानोंके बहरे हो जानेपर भी मैं ज्यों-का-त्यों पूर्ववत् रहता हूँ, मरता नहीं । यदि मैं इन्द्रिय होता तॊ उनके विनाशमें मेरा विनाश होना सम्भव है । अतएव थोडा-सा भी विचार करने पर यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि मैं जड़ इन्द्रिय नहीं हूँ, वरन् इन्द्रियोंका द्रष्टा या ज्ञाता हूँ।
इसी प्रकार मैं मन भी नहीं हूँ। सुषुप्तिकालमें मन नहीं रहता, परन्तु मैं रहता हूँ । इसीलिये जागनेके बाद मुझको इस बातका ज्ञान है कि मैं सुखसे सोया था । मैं मनका ज्ञाता हूँ। दूसरोंकी दृष्टिमें मी मनके अनुपस्थितिकाल में(सुषुप्ति या मूर्च्छित-अवस्थामें) मेरी जीवित अवस्था प्रसिद्ध है। मन विकारी है, इसमें भाँति-भाँतिके संकल्प-विकल्प होते रहते है । मनमें होनेवाले इन संकल्प-विकल्पोंका मैं ज्ञाता हूँ । खान, पान, स्नान आदि करते समय यदि मन दूसरी ओर चला जाता है, तो उन कामोंमें कुछ भूल हो जाती है; फिर सचेत होनेपर मैं कहता हूँ- मन दूसरी जगह चला गया था, इस कारण मुझसे भूल हो गयी; क्योंकि मनके बिना केवल शरीर और इन्द्रियोंसे सावधानीपूर्वक काम नहीं हो सकता । अतएव मन चञ्चल एवम चल है, परन्तु मैं स्थिर औरअचल हूँ । मन कहीं भी रहे, कुछ संकल्प-विकल्प करता रहे, मैं उसको जानता हूँ, अतएव मैँ मनका ज्ञाता हूँ, मन नहीं हूँ ।
इसी तरह मैं बुद्धि भी नहीं हूँ, क्योकि बुद्धि भी क्षय और वृद्धि स्वभाववाली है । मैँ क्षय-वृद्धिसे सर्वथा रहित हूँ । बुद्धिमेँ मन्दता, तीव्रता, पवित्रता, मलिनता, स्थिरता, अस्थिरता आदि भी विकार होते है परंतु मैं इन सबसे रहित और इन सब स्थितियोंको जाननेवाला हूँ । मैं कहता हूँ- उस समय मेरी बुद्धि ठीक नहीं थी, अब ठीक है । बुद्धि कब क्या विचार रही है, क्या निर्णय कर रही है और क्या निश्चय कर रही है, इसको मैं जानता हूँ । बुद्धि दृश्य है, मैं उसका दृष्टा हूँ । अतएव बुद्धिका मुझसे पृथकृत्व सिद्ध है; मैं बुद्धि नहीं हूँ।
इस प्रकार मैं नाम, रूप, देह इन्द्रिय, मन, बुद्धि अादि नहीं हूँ। मैं इन सबसे सर्वथा अतीत, इनसे सर्वथा पृथक, चेतन, द्रष्टा, साक्षी, सबका ज्ञाता, सत्, नित्य, अविनाशी, अविकारी, अक्रिय, सनातन, अचल और समस्त सुख-दु:खोंसे रहित केवल शुद्ध आनन्दमय आत्मा हूँ , यही मैं हूँ । यही मेरा सच्चा स्वरूप है ।
॥ ओम नारायण ॥
क्रमश :--
गीताप्रेस, गोरखपुरसे प्रकाशित 'ज्ञानयोगका तत्व'में परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका का लेख ।
No comments:
Post a Comment