Friday, 22 April 2016

शरीर और शरीरी , क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ , स्वामी जी

श्रीभगवान्‌ ने गीता के आरम्भ में शरीर और शरीरी का विवेचन किया है । शरीर और शरीरी (शरीरवाला)‒दोनों का विभाग अलग-अलग है । शरीर-विभाग जड़, असत् तथा नाशवान् है और शरीरी-विभाग चेतन, सत् तथा अविनाशी है । गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान्‌ ने इन दोनों को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा प्रकृति और पुरुष नाम से भी कहा है । शरीर का सम्बन्ध संसार के साथ और शरीरी का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है । गीता के आरम्भ में इन दोनों विभागों का विवेचन करने में भगवान्‌ का तात्पर्य है कि इनको अलग-अलग जानना ही मनुष्य के कल्याण में खास हेतु है* ।

     गीता में जहाँ भगवान्‌ ने ज्ञानयोग का वर्णन किया है, वहाँ शरीर और शरीरी, सत् और असत्, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष आदि दो विभागों का वर्णन किया है, पर भक्ति के वर्णन में इसको तीन विभागों में कहा है‒परा, अपरा और अहम् (सातवें अध्याय के चौथे से छठे श्लोकतक), अक्षर, क्षर और पुरुषोत्तम (पन्द्रहवें अध्याय के सोलहवें से अठारहवें श्लोकतक) । परन्तु इसमें भगवान्‌ ने एक रहस्य की बात यह बतायी कि परा (चेतन) और अपरा (जड़)‒दोनों ही मेरी प्रकृतियाँ अर्थात् स्वभाव हैं । तात्पर्य है कि भगवान्‌ का स्वभाव होने से परा और अपरा‒दोनों भगवान्‌ से अभिन्न हैं । अतः भक्ति की दृष्टि से एक भगवान्‌ के सिवाय कुछ नहीं है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ ( ७ । १९ ), ‘सदसच्चाहम्’ ( ९ । १९ ) । ज्ञान अथवा भक्ति, किसी भी दृष्टि से देखें, सत्ता एक ही है । एक सत्ता के सिवाय कुछ नहीं है ।

     जो साधक अपना कल्याण चाहता है, उसको पहले यह विचार करना चाहिये कि वह स्वतः-स्वाभाविक किसकी सत्ता और महत्ता को स्वीकार करता है अर्थात् उसपर किसका प्रभाव अधिक पड़ता है, संसार का, अपने-आप का अथवा परमात्मा का । अगर वह संसार को मानता है तो ‘कर्मयोग’ के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा, केवल अपने-आपके ही मानता है तो ‘ज्ञानयोग’ के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा और भगवान्‌ को मानता है तो ‘भक्तियोग’ के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा । अगर वह किसी को भी नहीं मानता तो भी उसका कल्याण हो जायगा; क्योंकि किसी को भी न मानने से तथा कल्याण की इच्छा होने से उसपर किसी का भी प्रभाव नहीं पड़ेगा और किसी का भी प्रभाव न पड़ने से राग-द्वेष नहीं होंगे, जिससे उसकी मुक्ति स्वतः हो जायगी ।

     *क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
     भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ (गीता १३ । ३४)

‘इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्र से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर (विभाग)- को तथा कार्य-कारणसहित प्रकृति से स्वयं को अलग जानते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं ।’
जय श्री कृष्ण

'सत्यकी खोज' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 1019, विषय- योग ( कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग ), पृष्ठ-संख्या- ३२-३३, गीताप्रेस गोरखपुर

ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

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