Wednesday, 13 April 2016

गुरु रूप श्री कृष्ण

गुरू रूप श्रीकृष्ण
चिन्तामणिर्जयति सोमगिरिर्गुरुर्मे, शिक्षागुरुश्च भगवाञ्शिखिपिञ्छमौलिः ।
यत्पादकल्पतरुपल्लवशेखरेषु, लीलास्वयम्वररसं लभते जयश्रीः ।।

सर्वाभीष्टपूरक मेरे दीक्षागुरु श्रीसोमगिरि की जय हो और जिनके पदकल्पतरु के पल्लेवशेखर अर्थात् पदनखों के अग्रभाग में जयश्री राधा लीलावश स्वयम्बर सुख पाती हैं, मेरे उन्हीं शिक्षागुरु शिखिपिञ्छमौलि (मोरपंखधारी) व्रजेंद्रनन्दन श्रीकृष्ण की जय हो ।। 1 ।।

श्रीलीला शुक कहते हैं, वही वृन्दावनबिहारी ही मेरे शिक्षा गुरु हैं। “शिक्षागुरु के तो जानि कृष्णेर स्वरूप! अंतर्यामी भक्त श्रेष्ठ एइ दुइरूप।”

“नैवोपयंन्त्यपचितिं कवयस्तवेश, ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।
योन्तऽर्वहिसतनुभृतामशुभः विधुन्वन्नाचार्यचैत्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति ।।”[3]
उद्धवजी ने श्रीकृष्ण से कहा- “हे ईश! तुम बाहर आचार्य रूप से और भीतर अंतर्यामी रूप से देहधारियों का भक्ति के प्रतिकूल विषयवासना रूपी अशुभ विनष्ट कर उनके आगे अपना रूप प्रकट करते हो, इसलिए पंडितगण तुम्हारे उपकारों का स्मरण करते-करते आनन्द में अधीर हो जाते हैं और सोचते हैं कि ब्रह्माजी की- सी आयु पाकर भी वे तुम्हारा ऋण नहीं चुका सकेंगे।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-

“तेषां सतत युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
द्वदामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।”[1]
“जो सतत मुझे चित्त अर्पित कर प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, उन सभी भक्तों को मैं ऐसा बुद्धियोग प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर लें।
उद्धवजी से कहा है-

“आचार्य मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचत् ।
न मर्त्यबुद्धयासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ।।”[2]
गुरुदेव को मेरा ही स्वरूप जानना। मनुष्य समझकर उनकी अवमानना नहीं करना, कारण गुरु सर्वदेवमय हैं। “गुरु कृष्णरूप हन शास्त्रेर प्रमाणे। गुरुरूपे कृष्ण कृपा करेन भक्त गणे।।” (चै.च.) सारंगरंगदा टीका में रसशिक्षा का एक अन्य श्लोक भी भक्तिरसामृतसिन्धु से उद्धृत हुआ है-

“कर्णाकर्णि- सखी-जनेन विजने दूती-स्तुति-प्रक्रिया,
पत्युर्वञ्चन-चातुरी-गुणनिका कुञ्ज-प्रयाणे निशि।
बाधिर्यं गुरुवाचि वेणु-विरुतावुत्कर्णतेति व्रतान्,
कैशोरेण तवाद्य कृष्ण ! गुरुणा गौरीगणः पाठ्यते ।।”
अर्थात् “निर्जन में सखियों के साथ कानाफूसी कर कैसे बात की जाती है, कैसे दूती की खुशामद की जाती है, किस प्रकार पतिवंचना में चतुराई हासिल करनी होती है, रात के समय किस कौशल से कञ्ज में जाते हैं, गुरुजन की बात सुनकर भी कैसे बधिर की तरह आचरण किया जाता है, वेणु-रव सुनने के लिए कैसे कान खड़े कर रहना पड़ता है, हे कृष्ण! व्रज की गोरियाँ आजकल इन सब बातों की शिक्षा तुम्हारे नवकैशोररूपी गुरु से ले रही है।” नवकिशोर श्रीकृष्ण ही व्रजकिशोरियों की इन सब विद्याओं के आदि गुरु हैं। श्रीकृष्ण के इसी माधुर्य का अनुभव पाकर श्रीलीलाशुक ने कहा है- ‘शिखिपिञ्छमौलि श्रीकृष्ण ही मेरे शिक्षागुरु हैं। इस कर्णामृत’ के ही एक अन्य श्लोक में उन्होंने कहा है-
“प्रेमदञ्च मे कामदञ्च मे, वेदनञ्च मे वैभवञ्च मे ।
जीवनञ्च में जीवितञ्च मे, दैवतञ्च मे देव नापरम् ।।”[1]
“हे देव! तुम्ही मेरे प्रेमद हो, तुम्हीं मेरे कामद हो, (गोपीजातीय प्रेमप्रदाता), तुम्हीं मेरे ज्ञानप्रदाता शिक्षागुरु हो; तुम्हीं मेरी अखिल सम्पदा तुम्हीं मेरे जीवन, तुम्हीं मेरे जीवन के हेतु, तुम्हीं मेरे देवता हो, तुम्हें छोड़ मेरा और कोई कुछ नहीं।” इस श्लोक में भी श्रीकृष्ण को शिक्षागुरु कहा गया है। जय जय श्यामाश्याम ।।

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