परमात्मा के विद्यमानता का हमारे जीवन में ,
प्रभाव क्या है ?
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सुभाषितानि से सीख
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बुद्धिमानों के साथ से मंद व्यक्ति भी बुद्धि प्राप्त कर लेते हैं जैसे रीठे के फल सेउपचारित गन्दा पानी भी स्वच्छ हो जाता है॥
मन्दोऽप्यमन्दतामेति
संसर्गेण विपश्चितः।
पङ्कच्छिदः फलस्येव
निकषेणाविलं पयः॥
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संत वाणी :~
विश्वासी साधक के ,
अनेक ममतायें ,
एक आत्मीयता में ,
और अनेक कामनायें ,
प्रियता की माँग में ,
विलीन हो जाती है ।
और फीर साधक ,
साध्य की प्रियता पा जाता है ।
यह जीवन का सत्य है ।
जिसे अपना लेने पर वह ,
सर्वदा ही ,
सर्व समर्थ के गोद में रहता है ।
( मानव सेवा संघ , वृन्दावन )
जीवन विवेचन :~
परमात्मा के विद्यमानता का हमारे जीवन में ,
प्रभाव क्या है ?
परमात्मा के विद्यमान ता का प्रभाव यह है कि ,
बिना देखे ,
बिना जाने भी ,
हम लोगों से ,
उसकी चर्चा किए बिना ,
रहा नहीं जाता है ।
बातचीत होती ही रहती है ।
नाम लेते ही रहते हैं ।
विविध प्रकार के विचार ,
उनके संबंध में ऐसे प्रकट करते ही रहते हैं ,
जैसे कि वह एक अविभाज्य तत्व है , हमारे जीवन का
सन्तवाणी
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानंदजी महाराज
जो किसी को बुरा समझता है, उसके जीवन में से अशुद्ध संकल्पों का नाश ही नहीं होता । अशुद्ध संकल्पों की उत्पत्ति अशुद्ध कर्म को जन्म देती है । अतः दूसरे को बुरा समझकर कोई भी व्यक्ति अशुद्ध कर्म से बच नहीं सकता । इस दृष्टि से दूसरों को बुरा समझना अपने को बुरा बनाने में मुख्य हेतु है । किसी को बुरा समझने का किसी भी मानव को कोई अधिकार नहीं है । इतना ही नहीं, यहाँ तक कि कोई स्वयं ही अपनी बुराई स्वीकार करे, तब भी उससे उसकी वर्तमान निर्दोषता की चर्चा करते हुए उसे यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वर्तमान सभी का निर्दोष है । हाँ, यह अवश्य है कि वर्तमान की निर्दोषता को सुरक्षित रखने के लिए किये हुए दोषों का त्याग अनिवार्य है ।
यद्यपि ईश्वर हमारी सभी प्रार्थनाओं को सुनते हैं, तथापि वे सदा ही उत्तर नहीं देते। हमारी अवस्था उस बालक जैसी है जो अपनी माँ को पुकारता है परन्तु माँ उसके पास आना आवश्यक नहीं समझती। वह उसे शान्त रखने के लिये एक खिलौना दे देती है परन्तु जब बालक किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट न होकर माँ की उपस्थिति ही चाहता है, तब माँ आती है। यदि आप ईश्वर को जानना चाहते हैं, तो आपको भी उस नटखट बालक की तरह बनना होगा जो तब तक रोता रहता है जब तक उसकी माँ नहीं आ जाती।
—श्री श्री परमहंस योगानन्द
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥
- (अत्रिसंहिता, श्लोकः १४०)
अर्थ- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है|
उपनयन संस्कार हाे जाने पर 'द्विजश्रेष्ठ' कहलाता है|
विद्या प्राप्त कर लेने पर 'विप्र' कहलाता है|
इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है|
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