Saturday, 30 April 2016

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार

कृपापत्र मिला। आपके प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में इस प्रकार हैं-
भगवान श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। उनकी प्रत्येक लीला आनन्दमयी है। उनकी मधुर लीला को आनन्द-श्रृंगार भी कह सकते हैं। परंतु इतना स्मरण रखना चाहिये कि उनका यह आनन्द-श्रृंगार मायिक जगत् की कामक्रीडा कदापि नहीं है। भगवान की ह्लादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी तथा उनकी स्वरूपभूता गोपियों के साथ साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण की परस्पर मिलन की जो मधुर आकांक्षा है, उसी का नाम आप आनन्द-श्रृंगार रख सकते हैं। यह काम-गन्धरहित विशुद्ध प्रेम ही है। श्रीकृष्ण की लीला में जिस ‘काम’ का नाम आया है, वह अप्राकृत ‘काम’ है। ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ’ भगवान के सामने प्राकृत काम तो आ ही नहीं सकता।
वैष्णव भक्तों ने रति के तीन प्रकार बतलाये हैं - ‘समर्था’, ‘समन्जसा’ और ‘साधारणी’। ‘समर्था’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के सुख की एकमात्र स्पृहा और चेष्ठा रहती है। यह अप्राकृत है और व्रजमात्र में श्रीमती राधिकाजी में ही इसका पूर्ण विकास माना जाता है। ‘समन्जसा’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के और अपने - दोनों के सुख की स्पृहा रहती है; और ‘साधारणी’ रति उसका नाम है, जिसमें केवल अपने ही सुख की आकांक्षा रहती है। इन तीनों में ‘समर्था’ रति सबसे श्रेष्ठ है। इसका प्रसार महाभाव तक है। यही वास्तविक ‘रस-साधना’ है।
प्रेम के भी तीन भाव बतलाये गये हैं - ‘मधुवत्’, ‘घृतवत्’ और ‘लाक्षावत्’। ‘मधु’ भाव का प्रेम वह है, जो मधु की भाँति स्वाभाविक ही मधुर है, जिसमें स्नेह, आदर, सम्मान, सेवा आदि अन्य किसी भाव का न तो जरा-सा मिश्रण ही है और न आवश्यकता ही है, जो नित्य-निरन्तर अपने ही अनन्य भाव में आप ही प्रवाहित है। ये प्रेम होता है केवल प्रेम के लिये। इसमें प्रेमास्पद का सुख ही अपना परम सुख होता है। अपना कोई भिन्न सुख रहता ही नहीं। इस प्रेम में प्रेमास्पद का स्वार्थ ही अपना एकमात्र स्वार्थ होता है। पूर्ण आत्मसमर्पण ही इसका रहस्य है और नित्यवर्धनशीलता ही इसका स्वभाव है। यह वस्तुतः अनिर्वचनीय भाव है। ‘घृत’ भाव का प्रेम वह है, जिसमें पूर्ण स्वाद और माधुर्य उत्पन्न करने के लिये घृत में नमक, चीनी आदि की भाँति अन्य रसों के मिश्रण की आवश्यकता है। साथ ही, घृत जैसे सर्दी पाकर कड़ा हो जाता है और गरमी पाकर पिघल जाता है, वैसे ही विविध भावों के सम्मिश्रण से इस प्रेम के भी रंग बदलते रहते हैं। यह प्रेमास्पद के द्वारा आदर-सम्मान पाकर बढ़ता है और उपेक्षा-घृणा पाकर मर-सा जाता है। इसमें प्रेमी अपने प्रेमास्पद को सुखी तो बनाना चाहता है, परंतु स्वयं भी उसके द्वारा विविध भावों में सुख की आकांक्षा रखता है। यदि प्रेमास्पद से आदर-सम्मान नहीं मिलता तो यह प्रेम घट जाता है। इस प्रेम में स्वार्थ का सर्वथा अभाव नहीं है। न इसमें पूर्ण समर्पण ही है।
‘लाक्षा’ भाव का प्रेम वह है, जो चपड़े के समान स्वाभाविक ही रसहीन और कठोर होने पर भी जैसे चपड़ा अग्नि का स्पर्श पाकर पिघल जाता है, वैसे ही प्रेमास्पद को देखकर उदय होता है। प्रेमास्पद के द्वारा भोग-सुख प्राप्त करना ही इसका लक्ष्य होता है।
श्रीराधिकाजी के प्रेम को ‘मधुवत्’ चन्द्रावलीजी आदि के प्रेम को ‘घुतवत्’ और कुब्जा आदि के प्रेम को ‘लाक्षावत्’ कह सकते हैं।
इसी प्रकार राग के भी तीन प्रकार माने गये हैं - ‘मन्जिष्ठा, ‘कुसुमिका’ और ‘शिरीषा’।
‘मन्जिष्ठा’ नामक लाल रंग की चमकीली बेल का रंग जैसे धोने पर या अन्य किसी प्रकार से नष्ट नहीं होता और अपनी चमक के लिये किसी दूसरे वर्ण की भी अपेक्षा नहीं रखता, उसी प्रकार ‘मन्जिष्ठा नामक’ राग भी निरन्तर स्वभाव से ही चमकता और बढ़ता रहता है। यह राग श्रीराधा-माधक के अंदर नित्य प्रतिष्ठित है। यह राग किसी भी भाव के द्वारा विकार को प्राप्त नहीं होता। प्रेमोत्पादन के लिये इसमें किसी दूसरे हेतु की आवश्यकता नहीं होती। यह अपने-आप ही उदय होता है और बिना किसी हेतु के आप ही निरन्तर बढ़ता रहता है।
‘कुसुमिका’ राग उसे कहते हैं, जो कुसुम्भ के फूल के रंग की तरह हृदय क्षेत्र को रँग देता है और मन्जिष्ठा और शिरीषादि दूसरे रागों को अभिव्यन्जित करके सुशोभित होता है। कुसुम्भ के फूल का रंग स्वयं पक्का नहीं होता, परंतु किसी दूसरी कषाय वस्तु को साथ मिला देने पर वह पक्का और चमकदार हो जाता है। वैसे ही यह राग भी श्रीकृष्ण के मधुर मोहन सौन्दर्यादि कषाय के द्वारा पक्का और चमकदार हो जाता है।
‘शिरीषा’ राग अल्पकालस्थायी होता है। जैसे नये खिले हुए शिरीष के पुष्प में पीली-सी आभा दिखायी देती है, परंतु कुछ ही समय मे वह नष्ट हो जाती है, वैसे ही यह राग भी भोगसुख के समय उत्पन्न होता है और वियोग में मुरझा जाता है। इसी से इसका नाम ‘शिरीषा’ है।
जिनका जीवन श्रीकृष्ण-सुख के लिये है, उनकी रति ‘समर्था’ प्रेम ‘मधुवत्’ और राग ‘मन्जिष्ठा’ होता है। जिनका दोनों के सुख के लिये है, उनकी रति ‘समन्जसा’, प्रेम ‘घृतवत्’ और राग ‘कुसुमिका’ होता है; और जिनका प्रेम केवल निजेन्द्रियतृप्ति के लिये ही होता है, उनकी रति ‘साधारणी’, प्रेम ‘लाक्षावत्’ और राग ‘शिरीषा’ होता है। इनमें पहले भाव उत्तम, दूसरे मध्यम और तीसरे अधम हैं। जयजय श्यामाश्याम ।।।

भगवत् प्रेम - भाई जी

भगवत्प्रेम

भगवत्प्रेम के पथिकों का एकमात्र लक्ष्य होता है-भगवत्प्रेम। वे भगवत्प्रेम को छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहते- यदि प्रेम में बाधा आती दीखे तो भगवान के साक्षात् मिलन की भी अवहेलना कर देते हैं, यद्यपि उनका हृदय मिलन के लिये आतुर रहता है। जगत का कोई भी पार्थिव पदार्थ, कोई भी विचार, कोई भी मनुष्य, कोई भी स्थिति, कोई भी सम्बन्ध, कोई भी अनुभव उनके मार्ग में बाधक नहीं हो सकता। वे सबका अनायास- बिना ही किसी संकोच, कठिनता, कष्ट और प्रयास के त्याग कर सकते हैं। संसार के किसी भी पदार्थ में उनका आकर्षण नहीं रहता। कोई भी स्थिति उनकी चित्त भूमि पर आकर नहीं टिक सकती, उनको और नहीं खींच सकती। शरीर का मोह मिट जाता है। उनका सारा अनुराग, सारा ममत्व, सारी आसक्ति, सारी अनुभूति, सारी विचार धारा, सारी क्रियाएँ एक ही केन्द्र में आकर मिल जाती हैं; वह केन्द्र होता है केवल भगवत्प्रेम - वैसे ही जैसे विभिन्न पथों से आने वाली नाना नदियाँ एक समुद्र में आकर मिलती हैं।

शरीर के सम्बन्ध, शरीर का रक्षण-पोषण भाव, शरीर की आसक्ति,(अपने या पराये) शरीर में आकर्षण, (अपने या पराये) शरीर की चिन्ता-सब वैसे ही मिट जाते हैं जैसे सूर्य के उदय होने पर अन्धकार। ये तो बहुत पहले मिट जाते हैं। विषय- वैराग्य, काम-क्रोधदिका नाश, विषाद-चिन्ता का अभाव, अज्ञानान्धकार का विनाश भगवत्प्रेम-मार्ग के अवश्यम्भावी लक्षण हैं! भगवत्प्रेम का मार्ग सर्वथा पवित्र, मोहशून्य, सत्त्वमय, अव्यभिचारी, त्यागमय और विशुद्ध होता है। भगवत्प्रेम की साधना अत्यन्त बढ़े हुए सत्त्वगुण में ही होती है। उस में दीखने वाले काम क्रोध, विषाद, चिन्ता, मोह आदि तामसिक वृत्त्तियों के परिणाम नहीं होते, वे तो शुद्ध सत्त्व की ऊँची अनुभूतियाँ होती हैं, जिनका स्वरूप बतलाया नहीं जा सकता। भूल से लोग अपने तामस विकारों को उनकी श्रेणी में ले जाकर ‘प्रेम’ नाम को कलंक्ति करते हैं।
वे तो बहुत ही ऊँचे स्वर की साधना के फलस्वरूप होती हैं। उनमें-हमारे अन्दर पैदा होने वाली भोग-वासना की सूक्ष्म और स्थूल तमोगुणी वृत्तियों का कहीं लेश भी नहीं होता। बहुत ऊँची स्थिति में पहुँचे हुऐ महात्मा लोग ही उनका अनुभव कर सकते हैं, वे कथन में आने वाली चीजें नहीं हैं- कहना-सुनना तो दूर रहा, हमारी मोहाच्छन्न् बुद्धि उनकी कल्पना भी नहीं कर सकती। भगवत्कृपा से ही उनका अनुमान होता है तभी उनकी अस्पष्ट-सी झाँकी होती हैं। इस अस्पष्ट झाँकी में ही उनकी इतनी विलक्षणता प्रतीत होती है कि जिससे यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि ये चीजें दूसरी ही जाति की हैं।

नाम एक-से हैं-- वस्तुगत भेद तो इतना है कि उनसे हमारी लौकिक वत्त्तियों का कोई सम्बन्ध ही नहीं जोड़ा जा सकता, तुलना ही नहीं होती। भगवान की कृपा से- इस प्रेम मार्ग में कौन कितना आगे बढ़ा होता है, कौन किस स्तर पर पहुँचा होता है, यह बाहर की स्थिति देखकर कोई नहीं जान सकता; क्योंकि यह वस्तु बाहर आती ही नहीं। यह तो अनुभव रूप होता है। जो बाहर आती है, वह तो प्रायः नकली होती है। जिसे हम अप्रेमी मानते हैं, सम्भव है वह महान प्रेमी हो। जिसे हम दोषी समझतें हैं, सम्भव है वह प्रेममार्ग पर बहुत आगे बढ़ा हुआ महात्मा हो; और जिसे हम प्रेमी समझ बैठते हैं, सम्भव है वह पार्थिव मोह में ही फँसा हों। भगवत्प्रेमियों को कोटिशः नमस्कार है। उनकी गति वे ही जानें। सीधी और सरल बातें जो करने की हैं, वे तो ये सात है-

भोगों मे वैराग्य की भावना।
कुविचार, कुकर्म, कुसगं का त्याग।
विषय-चिन्तन का स्थान भगवच्चिन्तन को देने की चेष्टा।
भगवान का नाम-जप।
भगवद्गुण-गान-श्रवण।
सत्यसंग-स्वाधयाय का प्रयत्न।
भगवात्कृपा में विश्वास बढ़ाना।
जयजय श्यामाश्याम ।।।

सच्चा एकांत

सच्चा एकान्त

वस्तुतः बाहरी एकान्त का महत्त्व नहीं; सच्चा एकान्त तो वह है, जिसमें एक प्रभु को छोड़कर चित्त के अंदर और कोई कभी आये ही नहीं-शोक-विषाद, इच्छा-कामना आदि की तो बात ही क्या, मोक्षसुख भी जिस एकान्त में आकर बाधा न डाल सके।जबतक चित्त में नाना प्रकार के विषयों का चिन्तन होता है, तब तक एकान्त और मौन दोनों ही बाह्म हैं और महत्व भी उतना ही है, जितना केवल बाहरी दिखावे के लिये होने वाले कार्यो का होता है। उन प्रेमी महापुरूषों को धन्य है जो एकमात्र श्रीकृष्ण के ही रंग में पूर्ण रूप् से रँग गये हैं, जिनका चित्त जगत के विनाशी सुखों की भूलकर भी खोज नहीं करता, जिनकी चित्त वृत्ति संसार के ऊँचे-से-ऊँचे प्रलोभन की ओर भी कभी दृष्टि नहीं डालती, जिनकी आँखें सर्वत्र प्रियतम श्यामसुन्दर के दिव्य स्वरूप को देखती हैं और जिनकी सारी इन्द्रियाँ सदा केवल उन्हीं का अनुभव करती हैं। सच्चा एकान्तवास और सच्चा मौन उन्हीं प्रेमी महात्माओं में है।
जय जय श्यामाश्याम ।

लीलामय भगवान लेख 3

लीलामय भगवान 3

24- भगवान के सम्बन्ध होते ही सब दोष मिट जाते हैं। भगवान ने अपनी यह शक्ति लीला-कथा में छिपा रखी है। भगवान ने कृपा करके अपनी लीला-कथा-माधुरी इसीलिये छोड़ रखी है कि जगत् के बहिर्मुख लोगों का कल्याण हो। ऐसे लोगों (बहिर्मुखों) से कहा जाय कि यम-नियम आदि करो तो कौन करेगा। पर कथा में कोई रोचक प्रसंग आ जाय तो उनका भी मन लग ही जाता है।
25- अग्नि को देखे नहीं, अग्नि को समझे नहीं, पर अग्नि से स्पर्श हो जाय तो अग्नि का वस्तुगुण दाहकता जला ही देता है और जलने पर उस पर श्रद्धा अपने-आप हो जाती है। इसी प्रकार लीला कथा से अपने-आप श्रद्धा प्राप्त हो जाती है।
26- बिना पुण्यबल के, बिना भगवत्कृपा के भगवत्कथा सुनने को मिलती ही नहीं। जो तार्किक हैं, वे उसी व्यर्थ मानते हैं और जो गृहासक्त हैं, उन्हें कथा सुनने का भी अवकाश नहीं।
27- भगवान की लीला-कथा के लिये एक ही उपाय है - उसकी जो धारा आती है, उसके लिये अपने कानों का मार्ग खोल दो। वह पीयूष धारा बिना बाधा के कानों में जाती रहे। वह धारा भीतर पहुँची कि उसने जन्म-जन्मान्तर के कूड़े की राशि को धो-बहा दिया। फिर आग की आवश्यकता नहीं रहेगी। और आग की आवश्यकता नहीं रहेगी। और आग को जलाकर भस्म का ढेर छोड़ देती है, पर यह इस प्रकार की बाढ़ है कि सब चीजों को दूर बहा देगी और साथ ही अन्तःकरण को बना देगी द्रवतामय। उसी श्रीकृष्ण प्रेम का साम्राज्य बना देगी।
28- जहाँ श्रोता के मन में तर्क नहीं, विवाद नहीं, केवल रस पीने की इच्छा है और केवल उस रस को बढ़ाने के लिये ही प्रश्न है, वही वास्तव में लीला-कथा में रस आता है।
29- कथा-अन्तरंग रहस्य-कथा वहीं पर प्रकट होती है, जहाँ वक्ता के मन में स्वतः श्रोता की रुचि एवं इच्छा देखकर वस्तु जाग्रत हो जाती है। कहने वाले के पास बहुत-सी बातें हैं, पर श्रोता की रुचि न देखकर वे छिप जाती हैं; किंतु एक समुदाय वह होता है, जहाँ बैठने से वक्ता के मन में नयी-नयी बातें उदय होती हैं। परीक्षित् की भाँति जहाँ श्रवण का आग्रह है तथा निरन्तर कथा श्रवण करने पर भी जहाँ तृप्ति नहीं- खाये जायँ और भूखे, खाये जायँ और भूखे - ऐसे समुदाय में वक्ता के मन में अन्तरंग नवीन-नवीन कथाओं की स्फूर्ति होती रहती है।
30- भगवान की लीला-कथा ही ऐसी है कि वह कैसे भी कानों में जाय, पाप-ताप को नष्ट कर देती है। पर जो श्रीकृष्ण के भक्त हैं, प्रेमी हैं, उनके मुख से यदि कथा सुनने का सौभाग्य मिल जाय, तब तो पाप-ताप रह ही नहीं सकते; क्योंकि उनका मन श्रीकृष्ण के साथ जुड़ा रहता है। अतएव वे जो भी शब्द उच्चारण करते हैं; श्रीकृष्ण की प्रेरणा से ही।
31- ज्ञानयोग से भगवान को ब्रह्म समझकर भजने वाले संसार से मुक्त होना चाहते हैं, अष्टांगयोग वाले समाधि में स्थित होकर परमात्म-ज्योति के दर्शन चाहते हैं, ऐश्वर्य ज्ञान युक्त भक्त लोग सामीप्यादि मुक्ति चाहते हैं। ये सब आत्महित चाहते हैं, श्रीकृष्णहित की चिन्ता किसी के मन में नहीं है। ये तो श्रीकृष्ण को नित्य सुखमय मानते हैं। पर जो लोग श्रीकृष्ण के साथ ममता के बन्धन से बँधकर उनको पुत्र, सखा, प्राणवल्लभ आदि मानते हैं, वे अपने सारे सुखों को भूलकर श्रीकृष्ण के हित की चिन्ता करते हैं। उपना अपना सुख-दुःख कुछ नहीं रहता। वे अहं को भूलकर केवल ‘श्रीकृष्ण-सुख’ रूप ही बन जाते हैं। श्रीकृष्ण भी ऐेसे ममतावान् भक्तों की ममता के अनुरूप लीला करके दिव्य प्रेमरस का आस्वादन करते हैं। ऐसे प्रेमी भक्त धन्य हैं।
32- भगवान जिस-जिसके साथ मिलकर लीला करते हें, वे सभी भगवान के पार्षद हैं। पार्षदों के दो भेद हैं - (1) अनुकूल पार्षद, (2) प्रतिकूल पार्षद। जो अनुकूल पार्षद हैं, वे लीला में सहायता करते हैं मित्ररूप से और जो प्रतिकूल पार्षद हैं वे सहायता करते हैं शत्रु-भाव से। दिव्यधाम में अनुकूल पार्षदों के साथ लीला होती है। वहाँ प्रतिकूल पार्षद अचेतनभाव से रहते हैं।
33- भगवान की कृपा शक्ति इतनी बलवती है कि सारी शक्तियाँ उसका अनुगमन करती हैं। भगवान भी उसके वश में होकर भक्त के नाना प्रकार के बन्धन स्वीकार करते हैं।
34- भगवान की जितनी लीलाएँ हैं, उनमें बाललीला परम उदार है। अन्य लीलाओं में यदि भगवान किसी को ज्ञान दे दें, राक्षसों को मार दें अथवा राजाओं को राजा बना दें तो इसमें कोई बड़प्पन नहीं है। बड़ा बड़ा बन जाय, इसमें कोई बड़प्पन नहीं; क्योंकि वह बड़ा है ही। बड़ा छोटा बन जाय, इसमें ही बड़प्पन है। बाललीला में भगवान को अज्ञ बालक बनना पड़ता है, अज्ञ बालकों के साथ स्वयं सम्मिलित होकर वैसी ही लीला करनी पड़ती है और इसी में उदारता है।
35- भगवान के माता-पिता, आभूषण, धाम, लीला, वस्तु आदि सब भगवान के ही स्वरूप हैं और सब नित्य हैं।
36- भगवान की लीलाओं का तत्त्व जानने की चेष्ठा न करके उन लीला-कथाओं का गायन करें, श्रवण करें, ध्यान करें - हमारा यही कर्तव्य है।
श्री भाई जी । जयजय श्यामाश्याम । पूर्व में दो भाग और दिए थे , उन संग इस तीसरे भाग का मनन करना चाहिये । सत्यजीत तृषित ।

Friday, 29 April 2016

सेवा कैसे हो

किन्हीं ने कुछ पूछा , अयोग्यता वश मुझे इतना कोई ज्ञान नहीँ , ना ही ज्ञान के संकलन का मानस ।
हाँ भीतर से जो उनका उत्तर निकलता है वह कहता हूँ ,
कितनी माला जप  करनी चाहिये ?
संख्यावाची उत्तर यहाँ केवल उस संख्या तक लें जाना होगा , माला उतनी जपिये जब माला छोड़ते न बने । अगर 5 माला बाद इतना रस हो कि माला की संख्या आदि विस्मरण होने लगें तब छोड़ दीजिये , जब भी छोड़ा न जा सके उस अवस्था तक जा कर जप रोकिये , रुकना वहाँ है जहाँ रुकना सुकूँ नहीँ पीड़ा देवें , ऐसे छोड़ी माला भीतर व्याकुल कर देगी । अगर 100 माला जप कर भी माला छोड़ना सहज हो तो जपते रहिये जब तक जप छोड़ना असहज न हो।
सेवा कैसी करें ?
पहले मुझे लगता है यथा सामर्थ्य सेवा हो । जैसी बन पड़े , जो की जा सकें । पर अब लगा यह तो अहम् को ही पुष्ट करेगा । देखा भी अपनी सहूलियत की सेवा लेने पर आराध्य के सुख की नहीँ अपने सुख की चिंता वहाँ कारगर होती है , अतः सेवा वह करनी हो जो बस में न हो , कम से कम मानस सेवा तो वहीँ ही जो लौकिक सेवा नहीँ बन सकती हो । जैसे यहाँ किन्हीं के पैरों में दर्द रहता है तो मानस सेवा में वह झाड़ू और पोछा करें । हो सकें तो लोक में भी करें । अपनी सुविधा अनुसार सेवा का चुनाव अपने अहम् की सिद्धि होने लगती है । अपने आराध्य की सुविधा और उसमेँ अपनी क्षमता से भी ऊपर बात हो तब वहीँ करना है । मान लीजिये लोक में नाचना बस की बात नहीँ तो भगवत् सेवा में नाचिये । सेवा वह हो जो अपनी सुविधा और सहजता में ना हो , यह होता नहीँ वैसे । सभी जगह सेवा प्रसाद में स्वीकारी नहीँ जाती , अपने अनुकूल सेवा ही की जाती है ।
लौकिक मालिक जिस तरह अपने सेवक के दायरे से ऊपर सेवा लेते है ऐसे ही पूर्णमनोयोग भगवान के लिये सेवा हो , सेवक सच्चा हो । हम सेवा करते समय भी भगवान की सहजता और सरलता आदि के आडम्बर में स्वाँग करते है , कठिन इसलिये नहीँ करते कि भगवान को पीड़ा होगी हमारी कठिन सेवा से । फिर जगत् में उलटे हो जब मालिक होते है तब हम सेवक का हित नहीँ अपना हित सोचते है । अर्थात् कुल मिला कर अपना हित ही जानते और मानते है पर सेवा और परम् सेवा में भी स्व हित की भावना होने लगती है और होनी चाहिये स्वामी का सुख सम्पादन ही ।
शेष प्रश्न भूल गया , याद आने पर आगे .... सत्यजीत तृषित ।

Thursday, 28 April 2016

प्रविष्ठ: कर्णरंध्रेण स्वानां भावसरोरुहम

श्रीमद्भागवत द्वितीय स्कन्द अध्याय ८ राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रशन  श्लोक क्रमांक ।५।

प्रविष्ठ: कर्णरंध्रेण स्वानां भावसरोरुहम
धुनोति शमलं कृष्ण : सलिलस्य यथा शरत्




अनुवाद श्रीलशुकदेव गोस्वामी कहते हैं हे राजा परीक्षित परमात्मा रुप भगवान श्रीकृष्ण का शब्दावतार अर्थात  श्रीमद्भागवत स्वरूप सिद्ध भक्त के हृदय में प्रवेश करता है । उसके भावत्मक सम्बन्ध रूपि कमल पुष्प पर आसीन हो जाता  है और इस प्रकार काम क्रोध तथा लोभ जैसी भौतिक संगति क़ी धुल को धो डालता  है इस प्रकार यह गंदले जल के तालाबों में शरद ऋतु की वर्षा के सामान कार्य करता है ।

Wednesday, 27 April 2016

लीलामय भगवान 2 - भाई जी

लीलामय भगवान पार्ट 2

11- व्रज की गोपियाँ वात्सल्य और मधुर प्रेम की कल्पलताएँ हैं, जो श्रीकृष्णरूपी दिव्य कल्पवृक्ष से नित्य लिपटी रहती हैं।
12- भक्तों का आनन्द बढ़ाने के लिए भगवान का सच्चिदानन्दस्वरूप आनन्द समुद्र उमड़ता है, इसी कारण भगवान भक्त का आनन्द बढ़ाने के लिये अपनी हार भी स्वीकार करते हैं।
13- भक्त और भगवान में जब होड़ लग जाती है, तब भगवान अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं - यह भगवान की प्रेमाधीनता है। भक्त की प्रतिज्ञा की रक्षा भगवान अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भी करते हैं। वे तो नित्य विजयी हैं, उन्हें कौन हराये? पर भगवान और भक्त की होड़ में भगवान हार जाते हैं।
14- भगवान की लीला-माधुरी और भक्त का प्रेम आपस में होड़ लगाये रहते हैं। भगवान की लीला भक्त के प्रेम को बढ़ाती रहती है और भक्त का प्रेम भगवान की लीला को। जिस प्रकार दर्शक और अभिनेता दोनों मिलकर अभिनय-माधुरी का उपभोग करते हैं, वैसे ही भक्त और भगवान मिलकर लीला-माधुरी का आस्वादन करते हैं।
15- परस्पर विरुद्ध धर्मों का युगपत् - एक ही समय साथ-साथ समावेश और समन्वय भगवान का स्वाभाविक गुण है। भगवान के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी इस विरोध का समन्वय नहीं है। भगवान अनन्त ऐश्वर्यवान होकर भी लीला में माँ यशोदा से एक-एक वस्तु माँगते हैं। सर्वदा सद्गुण रूप होने पर भी चोरी करते हैं। नित्य तृप्त होकर भी माता यशोदा के स्तन्यपान के लिये अमृत-आतुर रहते हैं।
अस्थूलश्चानणुश्चैव स्थूलोऽणुश्चैव सर्वतः।
अवर्णः सर्वतः प्रोक्तः श्यामो रक्तान्तलोचनः।।
‘वे स्थूल भी नहीं हैं, सूक्ष्म भी नहीं हैं। स्थूल भी हैं, सूक्ष्म भी हैं। वे अवर्ण-सब प्रकार से वर्णविहीन होते हुए ही श्यामवण्र तथा अरुणलोचन हैं।’ ‘नृसिंहतापिन्युपनिषद्’ में आया है -
तुरीयमतुरीयमात्मानमनात्मानमुग्नमनुग्नं वीरमवीरं महान्तममहान्तं विष्णुमविष्णुं ज्वलन्तमज्वलन्तं सर्वतोमुखमसर्वतोमुखम्।
भगवान ‘तुरीय’ हैं - (विराट, हिरण्यगर्भ, कारण से या जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति से अतीत चतुर्थ - तुरीय हैं,) साथ ही ‘अतुरीय’ हैं - (सबके ईक्षणकर्ता, अन्तर्यामी, सबके आत्मा या सब अवस्थाओं के आधार होने से सर्वरूप ‘अतुरीय’ हैं।) चेतन ‘आत्मा’ भी भगवान हैं, साथ ही जड ‘अनात्मा’ - अनात्मवस्तु भी भगवान हैं। भगवान ‘उग्र’ हैं - हिरण्यकशिपु का वध करने के समय भगवान इतने उग्र आकृति के थे कि देवता और लक्ष्मीजी तक उन्हें देखकर डर गये; उसी समय वहीं वे भक्त चूड़ामणि प्रह्लाद के लिये ‘अनुग्र’ - परम शान्त हैं। अघ-वकादि असुरों का संहार करने के लिये वे महान् ‘वीर’ हैं, साथ ही गोप-बालक आदि प्रेमी भक्तों के सामने ‘अवीर’ - सदा ही पराजित हैं। वे अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों को अपने एक-एक रोमकूप में धारण करने वाले ‘महान्’ हैं, साथ ही यशोदा मैया की छोटी-सी गोद में नन्हें-से शिशु रूप में विराजित ‘अमहान्’ - क्षुद्र हैं। वे ‘विष्णु’ - सर्वव्यापी हैं और लीलाविग्रहरूप में भक्तों के प्रेमानुरूप आकृति वाले ‘अविष्णु’ एकदेशीय हैं। वे नेत्रों की तीव्र ज्वाला से असुर समूह को भस्म करने वाले - ‘ज्वलन्त’ हैं, साथ ही भक्तों के लिये परम स्निग्ध शान्त नयानानन्द-दाता के रूप में प्रकट - ‘अज्वलन्त’ हैं। भगवान ‘सर्वतोमुख’ हैं - उनके हाथ, पैर, नेत्र, सिर और मुख सब ओर हैं (सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्) और वृन्दावनादि मधुर लीला में वे ‘असर्वतोमुख’ - दो हाथ, दो चरण, दो नेत्र तथा एक मुख वाले लीला विग्रह रूप से आनन्द बढ़ाते रहते हैं।
वे निर्गुण रहते हुए ही सगुण हैं, निराकार रहते ही साकार हैं; पूर्णकाम होते हुए ही सकाम हैं और अजन्मा रहते हुए ही जन्म धारण करते हैं। वे सब कुछ हैं, साथ ही सबसे अतीत हैं।
वस्तुतः यह विरुद्धधर्माश्रयता ही भगवान की भगवत्ता है। इसको बिना समझे उनकी लीलाओं का सामन्जस्य नहीं हो सकता, परम मधुर लीलारस का आस्वादन नहीं हो सकता और न अचिन्त्य ऐश्वर्य का ज्ञान ही हो सकता है। इस प्रकार भगवान के स्वरूपज्ञान में कमी रह जाती है। भगवान का रोन, क्रोध करना, स्तन का दूध पीने आदि के लिये व्याकुल होना न तो प्राकृतिक है और न काल्पनिक ही। यह उनका ‘प्रेमाधीनता’ रूप नित्य स्वाभाविक गुण है।
16- बालस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का क्रोध एवं अश्रुजल दर्शकों को प्रसन्न करने के लिये किया जाने वाला नाट्य - अभिनय नहीं है, वह तो श्रीकृष्ण के आन्तरिक बाल्यभाव की मधुर अभिव्यक्ति है। भगवान दम्भ भी नहीं करते। ‘भगवान को वास्तव में दुःख थोड़े ही हुआ था, उन्होंने तो छल किया था’ - ऐसे विचारों से रस नष्ट हो जाता है। ऐसे विचारों से तो भगवान की माधुरी एवं भक्त की वात्सल्य दोनों खो दिये जाते हैं।
17- आन्तरिक भाव की बाह्य अभिव्यक्ति किसी दर्शक या अनुमोदक की अपेक्षा नहीं करती। आन्तरिक भाव का स्वाभाविक विकास वहीं होता है, जहाँ जन-समूह नहीं होता। जन-समूह में कारण उपस्थित होने पर भी आन्तरिक भाव प्रकट नहीं होता। अकेले में निस्संकोच भाव से आन्तरिक भाव प्रकट होते हैं। किसी के असली स्वभाव को जानना हो तो वह अकेले में क्या करता है, इसे देखना चाहिये; इससे उसका वास्तविक रूप प्रकट होगा। श्रीकृष्ण ने यशोदा मैया के दूध उतारते चले जाने पर अकेले में क्रोध करके दही के मटके को फोड़ डाला था और भाग गये थे। यह दिखाने का नाट्य नहीं था, असली भाव था।
18- मधुर लीला, प्रेमी पार्षदों का अधिक जुटाव, रूप-माधुर्य और वेणु-माधुर्य - ये चार प्रकार के माधुर्य श्रीव्रजराजनन्दन में विशेष रूप से विद्यमान हैं और ये व्रज में ही रहते हैं, उनके साथ मथुरा और द्वारका नहीं जाते।
19- भगवान के प्रेम रहस्य को प्रेमी भक्त खोलना नहीं चाहते और न खुलवाना ही चाहते हैं।
20- श्रीयशोदाजी के हृदय में अपने पुत्र श्रीकृष्ण के सिवा और कुछ रहता ही नहीं। प्रेम भावमय होता है। उसके हृत्-पटल पर भगवान श्रीकृष्ण का बाल-विग्रह सदा अंकित रहता है; क्योंकि उनका हृत्-पट भावरस-आप्लावित है।
21- भगवान के जितने वस्त्र हैं, अलंकार हैं, अस्त्र-शस्त्रादि हैं, सब-के-सब दिव्य, चेतन एवं सच्चिदानन्दमय हैं और भग्वत्स्वरूप हैं। वे वैसे अदृश्य रहते हैं, पर समय-समय पर किसी घरवाले के या भक्त के माध्यम से प्रकट हो जाते हैं। यशोदा मैया जब श्रीकृष्ण को कोई आभूषण आदि पहनाती हैं, तब भगवान के वे अदृश्य आभूषण आदि किसी-न-किसी रूप में उनके कोषागार में प्रकट हो जाते हैं और उन्हीं आभूषणों से मैया उनका श्रृंगार करती हैं; किंतु भक्त को अथवा घर वालों को यह ज्ञात नहीं होता कि भगवान के दिव्य आभूषण प्रकट हुए हैं और वह उनके द्वारा उनका श्रृंगार कर रहा है।
22- भगवान की लीला के सम्बन्ध में जिस समय कोई संदेह होता है, वह समय वस्तुतः हम भगवान को भगवान नहीं मानते, उन्हें अपनी श्रेणी में ले आते हैं; नहीं तो, कोई संदेह हो ही नहीं सकता। भगवान का प्रत्येक कार्य, प्रत्येक वाणी देखने में विपरीत जान पड़ने पर भी तत्त्वतः सत्य है।
23- भगवान की लीला-कथा अत्यन्त रुचिकर, सबको समान सुख देनेवाली, किसी भी वस्तु की अपेक्षा न रखने वाली तथा अमोघ है।
भाई जी का यह लेख (प्रवचन) जीवन भर मिलते रहे किन्हीं चुभते प्रश्नों का समुचित उत्तर है  , ज़ारी है , लेख विस्तार के लिए क्षमा । सत्यजीत तृषित ।