जीव जो कर्म करता है उसके मूल में भी ईश्वर सत्ता है । और जो फल भोग वह करता है , उसके भी मूल में वहीँ ईश्वर सत्ता है । मूल में इस विशुद्ध चैतन्यभाव के न रहने से एक और जहाँ पूर्ण कर्म सम्भव नहीँ होता , दूसरी और उसी प्रकार फल भी नहीँ हो सकता ।
जैसा कर्ता वैसा कर्म और वैसा ही फल । कर्ता ईश्वर तो कर्म वैसा वैसा ही दिव्य फल , और यह फल भोग भी उनका ही अधिकार , यहाँ जीव कर्म फल अर्पण कर भोग ईश्वर को देवें , निष्काम रह सकें तब प्रसाद रूप वह दिव्य रस सहज प्राप्त कर सकता है ।
कुछ समय पूर्व सामान्य और ग्रामीण जनमानस में आज भी यह बुद्धि है कि कर्म ईश्वर ने किया , कर्ता वहीँ , फल भी उनका अतः किसान समस्त प्राप्त फल पहले भगवत् अर्पण करते आये है । आज भी हम खेती तो नहीँ करते पर समय विशेष पर्व पर ऋतू की प्रथम वस्तु भगवत् अर्पण करते है , चूँकि कर्म ही नहीँ किया होता तब वह अर्पण झूठा ही रह जाता है , जैसे यहाँ होली में बाजार से चने और जौ की बालियां ले कर अग्नि में निवेदन करने में भाव नहीँ हो पाता ।
दूध के लिये गौ पालन हो तब भीतर से ही भगवत् अर्पण भाव भी रहे , क्योंकि गहनता से इसमें भी क्रिया बिन चैतन्य के संग अपूर्ण रह जाए । जब बछड़े के हिस्से के दूध को स्वयं या जगत हेतु लिया जावें तब भाव भगवत् अर्पण हो और प्रसाद वत् ही वह ग्रहण होवे तब प्रायश्चित भी हो और प्राप्त वस्तु दोष रहित रहें ।
अब गौ पालन नहीँ होता , अतः शहरी व्यक्ति को दूध भगवत् अर्पण करना समझ नहीँ आता , वरन् वह समझ सकता शिव के ही त्याग से यह प्राप्त है और शिवार्पण होने से इसके दोष की निवृत्ति हो सकेगी ।
मनुष्य को यह दूध की अपव्ययता लगती है , बर्बादी । अगर दूध देने वाली गौ विचार करें तब तो दूध तब ही बर्बाद हुआ जब बछड़ा हटा कर उसे संग्रह कर लिया गया । मनुष्य किन्हीं के अधिकार का हनन तो बार बार करता है परन्तु अपने कर्तव्य के समय सदा तर्क और क्यों? आदि लगा लेता है ।
अतः उचित फल वह जब तक नहीँ पा सकता जब तक निष्कपट , निष्काम कर्म ना कर लें , उस स्थिति में भगवत् संग से कर्म और फल दिव्य ही होते है । -- सत्यजीत तृषित ।
Tuesday, 29 March 2016
कर्म के मूल में ईश्वर की सत्ता अतः फल में भी है तृषित
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