बुद्धिके हम नहीं हैं, हमारी बुद्धि है । हमारी बुद्धि है;अत: इसको हम काममें लें या न लें । परन्तु हम बुद्धिके होते तो मुश्किल हो जाती । वृत्तिकी उपेक्षा करो तो आपकी स्वरूपमें स्थिति स्वतःसिद्ध है । परन्तु वृत्तिका निरोध करनेमें बहुत अभ्यास करना पड़ेगा । वृत्तिकी उपेक्षामें कोई अभ्यास नहीं है । गीताका योग क्या है ? ‘समत्वं योग उच्यते’ (२ । ४१) । ‘सम’ नाम परमात्माका है । परमात्मामें स्थित होना गीताका योग है और चित्तवृत्तियोंका निरोध करना योगदर्शनका योग है । आप कहते हैं कि मन नहीं रुकता ! पर मन रोकनेकी आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता है परमात्मामें स्थित होनेकी । जहाँ आप चुप होते हैं, वहाँ आप परमात्मामें ही हैं और परमात्मामें ही रहोगे; क्योंकि कोई भी क्रिया, वृत्ति, पदार्थ, घटना,परिस्थिति परमात्माको छोड़कर हो सकती है क्या ? वस्तु,व्यक्ति, पदार्थ, घटना आदिकी उपेक्षा कर दो तो परमात्मामें ही स्थिति होगी । हाँ, इसमें नींद-आलस्य नहीं होना चाहिये । नींदमें तो अज्ञान (अविद्या) में डूब जाओगे । नींद खुलनेपर कहते हैं कि ‘मेरेको कुछ पता नहीं था’, पर आप तो उस समय थे ही । अत: नींद-आलस्य तो हो नहीं और चलते-फिरते भी आप चुप हो जायँ, कुछ भी चिन्तन न करें । यह गीताका योग है । इससे बहुत जल्दी सिद्धि होगी । योगदर्शनके योगमें बहुत समय लगेगा । आप परमात्मामें वृत्ति लगाओगे तो वृत्ति आपका पिण्ड नहीं छोड़ेगी, वृत्ति साथ रहेगी । इसलिये मन-बुद्धिकी उपेक्षा करो, उनसे उदासीन हो जाओ । अभी लाभ मत देखो कि हुआ तो कुछ नहीं ! आप इसकी उपेक्षा कर दो । दवाईका सेवन करो तो वह गुण करेगी ही ।
आप खयाल करें । बुद्धि करण है और मैं कर्ता हूँ; बुद्धि मेरी है, मैं बुद्धिका नहीं हूँ‒यह सम्बन्ध-विच्छेद बहुत कामकी चीज है । आप बुद्धि हो ही नहीं । कुत्ता चिन्तन करता है तो आपपर क्या असर पड़ता है ? कुत्तेकी बुद्धिके साथ अपना जैसा सम्बन्ध है, वैसा ही अपनी बुद्धिके साथ सम्बन्ध है । आपकी आत्मा सर्वव्यापी है तो कुत्तेमें भी आपकी आत्मा है । फिर आप कुत्तेके मन-बुद्धिकी चिन्ता क्यों नहीं करते ? कि कुत्तेके मन-बुद्धिको आपने अपना नहीं माना । तात्पर्य यह हुआ कि मन-बुद्धिको अपना मानना ही गलती है ।
जो अलग होता है, वह पहलेसे ही अलग होता है ।सूर्यसे प्रकाशको कोई अलग कर सकता है क्या ? आप शरीरसे अलग होते हैं तो पहलेसे ही आप शरीरसे अलग हैं । आप मुफ्तमें ही अपनेको शरीरके साथ मानते हैं । शरीरमें आप नहीं हो और आपमें शरीर नहीं है । खुद जड़तामें बैठ गये तो अहंता हो गयी और जड़ताको अपनेमें बैठा लिया तो ममता हो गयी । अहंता-ममतासे रहित हुए तो शान्ति स्वतःसिद्ध है‒‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’(गीता २ । ७१) ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय ,
दोउ पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।
महाकवि कबीर कहतें हैं मनुष्य को वीतराग होना चाहिए सुख दुःख ,राग विराग ,जन्म ,मृत्यु ,प्रेम और घृणा करने वाले के प्रति सम भाव होना चाहिए। सभी विपरीत गुणों का अतिक्रमण करने से ही व्यक्ति गुणातीत होगा। जीवन के तमाम परस्पर विरोधी भाव (pairs of opposites )चक्की के दो पाटों की तरह हैं.पाप और पुण्य दोनों ही कर्म बंधन की वजह बनते हैं।
राग -द्वेष तो संसार (समाज ,परिवार ,बिरादरी ,राष्ट्र )में रहेगा तुम अपने आपको इससे अलग करके मुक्त हो जाओ। दोनों में सामान हो जाओ यही प्रश्नोपनषद का सन्देश है।
समत्व बुद्धि ,समर्पण बुद्धि ,असंग बुद्धि ,स्वधर्म बुद्धि और प्रसाद बुद्धि यानी सुख और दुःख जीवन के तमाम विरोधी दिखने वाले भावों में जो एक समान रहता है वही कर्म योगी जन्म मृत्यु के बंधन के पार जा सकता है फिर काल भी उसको खा नहीं सकता।
जीवन में द्वैत भाव जीवन को ही खा जाता है चक्की के दो पाटों की तरह।
चलती चाकी देख के हँसा कमाल ठठाय
जो कीले से लग रहे ,ताहि काल न खाय।
जो अनाज चक्की के कीले (Axix )के आसपास ,कीले के गिर्द रहता है वह साबुत बच जाता है। वैसे ही जो उस सुप्रीम पर्सनालिटी आफ गॉड हेड के नज़दीक रहता है जिसके हृदय में प्रभु का स्मरण बना रहता है (24x7 )वह भक्त प्रह्लाद की तरह बच जाता है।
जो हद चले सो औलिया ,अनहद चले सो पीर ,
हद अनहद दोनों चले ,उसका नाम फ़कीर।
कुटिल वचन सबसे बुरा ,जारि करै तनु छार ,
साधू वचन जल रूप है ,बरसै अमृत धार।
शब्द सम्हारे बोलिए ,शब्द के हाथ न पाँव ,
एक शब्द औषध करे ,एक शब्द करे घाव।
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