॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
एक आसक्ति होती है और एक प्रेम होता है । किसीसे हम अपने लिये स्नेह करते हैं, वह ‘आसक्ति’ होती है, राग होता है । रागसे ही कामना, इच्छा, वासना होती है, जो पतन करनेवाली, नरकोंमें ले जानेवाली है । जिसमें दूसरोंको सुख देनेका भाव होता है, वह ‘प्रेम’ होता है । आसक्तिमें लेना होता है और प्रेममें दूसरोंको देना होता है । दूसरोंको सुख देनेकी ताकत मनुष्यमें है । भगवान्ने मनुष्यको इतनी ताकत दी है कि वह दुनियामात्रका हित कर सकता है और अपना कल्याण कर सकता है । इतना ही नहीं, मनुष्य भगवान्की आवश्यकताकी पूर्ति भी कर सकता है, भगवान्के माँ-बाप भी बन सकता है, भगवान्का गुरु भी बन सकता है, भगवान्का मित्र भी बन सकता है और भगवान्का इष्ट भी बन सकता है ! अर्जुनको भगवान् कहते हैं‒ ‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’ (गीता १८/६४) ।
जैसे लड़का अलग हो जाय तो माँ-बाप चाहते हैं कि वह हमारे पास आ जाय, ऐसे ही यह जीव भगवान्से अलग हो गया है, इसलिये भगवान्को भूख है कि यह मेरी तरफ आ जाय ! इस भूखकी पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है, दूसरा कोई नहीं । मनुष्य ही भगवान्से प्रेम कर सकता है । देवता तो भोगोंमें लगे हैं, नारकीय जीव बेचारे दुःख पा रहे हैं, चौरासी लाख योनियोंवाले जीवोंको पता ही नहीं कि क्या करें और क्या नहीं करें ? इतना ऊँचा अधिकार प्राप्त करके भी मनुष्य दुःख पाता है तो बड़े भारी आश्चर्यकी बात है ! होश ही नहीं है कि मेरेमें कितनी योग्यता है और भगवान्ने मेरेको कितना अधिकार दिया है ! मैं कितना ऊँचा बन सकता हूँ, यहाँतक कि भगवान्का भी मुकुटमणि बन सकता हूँ ! आप कृपा करके ध्यान दो कि कितनी विलक्षण बात है ! जितने भक्त हुए हैं मनुष्योंमें ही हुए हैं और इतने ऊँचे दर्जेके हुए हैं कि भगवान् भी उनका आदर करते हैं ! लोग संसारके आदरको ही बड़ा समझते हैं, पर भक्तोंका आदर भगवान् करते हैं, कितनी विलक्षण बात है ! सारथी बन जायँ भगवान् ! नौकर बन जायँ भगवान् ! झूठन उठायें भगवान् ! घरका काम-धंधा करें भगवान् ! जिस तरहसे माता अपने बच्चेका पालन करके प्रसन्न होती है, इसी तरहसे भगवान् भी अपने भक्तका काम करके प्रसन्न होते हैं ।
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
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