।।श्री हरि: शरणम्।।
साधन-पथ के लिये गुरु>>>
यह एक आम धारणा है कि साधन-पथ पर
चलने के लिए,अपने नित्य अविनाशी
रसरूप जीवन का बोध के लिये या
नित्य अविनाशी सत्य-ईश्वर या जिस
ढंग़ से कहें की प्राप्ति के लिये गुरु की
आवश्यकता अनिवार्य है और उसका
तात्पर्य शरीरी गुरु से होता है
ब्रहमनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द
जी,जिन्होंने मानव सेवा संघ दर्शन
प्रदान किया, का कथन था कि यदि
शरीरी गुरु अनिवार्य है तो गुरु परम्परा
में प्रथम शरीरी गुरु का गुरु कौन रहा
होगा। तो मानना पड़ेगा कि वही
अविनाशी तत्व, वही सत्य- वही ईश्वर
जो सभी में विद्यमान है, गुरु-तत्तव के
रूप में उन प्रथम गुरु का गुरु था।
इसलिये उनका कहना था ''शरीर में गुरु
बुध्दि और गुरु में शरीर बुध्दि भारी भूल
है क्योंकि गुरु-तत्तव अनन्त ज्ञान का
भण्डार है। गुरु,हरिहर और सत्य में भेद
नहीं है। गुरु-तत्तव अनादि, अनुत्पन्न
तत्तव है।''
साधन पथ में हमारा जो साध्य है ''उस
साध्य तत्तव का ही प्रकाश गुरु-तत्तव
है जो मानव मात्र को सर्वदा प्राप्त
है। प्राप्त गुरु-तत्तव में अविचल
आस्था,श्रध्दा,विश्वास अनिवार्य है
और यही वास्तविक गुरुपूजा है।''
प्रश्न उठता है कि गुरु-तत्व का अर्थ
क्या है। स्वामी जी ने बताया कि
''गुरु-तत्तव क्या है,इस सम्बन्ध में विचार
करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि
जिस तत्तव के द्वारा मानव स्वयं
भूलरहित जो जाता है, वही वास्तविक
गुरु-तत्तव है।''
''अपनी ही भूल से उत्पन्न हुए अभाव
आदि से पीड़ित होकर जब
वास्तविका की जिज्ञासा जागृत
होती है,तब उसे स्वत: चेतना जो
अनादि अनन्त तत्तव है, प्रेरणा देती है,
और अभाव तथा अशान्ति का अन्त
करने की राह
दिखाती है। उस प्रेरणा को आदरपूर्वक
स्वीकार करने से ही मानव दीक्षित
होता है और फिर वह स्वत:
स्वाधीनतापूर्वक अपनी वास्तविक
माँग को पूरा कर सदा-सदा के लिए
निश्चिन्त निर्भय होकर नित नव रस से
परिपूर्ण हो जाता है।
यही जीवन का सत्य है। सत्य को
स्वीकार करना ही गुरु-तत्तव से
अभिन्न होना है और यही सफलता की
कुंजी है।
आगे उन्होंने कहा है कि ''मानव-मात्र
प्राण एवं विवेक का अद्भुत संयोग है।
भगवान की अहैतु कृपा से प्राप्त यह
अलौकिक विवेक ही पहला गुरु है। जो
प्राप्त विवेक का आदर करता है उसे
बाह्य गुरु की आवश्यकता नहीं होती।
जो इसका आदर नहीं करता वह दूसरे गुरु
को पाकर भी साधन निर्माण नही
कर पाता।''बाह्य सद्गुरु किसी भी
व्यक्ति के नित्य प्राप्त विवेक के
प्रकाश में उदित ज्ञान का मात्र
समर्थन करता है और उसे उस ज्ञान का
आदर करके साधन पथ पर अग्रसित होने
के लिये प्रेरणा देता है परन्तु अपने
ज्ञान का आदर और बाह्य गुरु की
प्रेरणा को स्वीकार तो उस व्यक्ति
को ही करना पड़ेगा।
इसीलिए मानव सेवा संघ कहता है कि
प्रत्येक मानव अपना गुरु स्वयं है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि
वर्तमान में साधु-सन्यासी का रूप
बनाये छद्मबेशी बहुतायत में हैं। ऐसे लोग
दावा करते हैं कि मैं तुम्हें ज्ञान दे दूँगा,
भवगत् साक्षात्कार करा दूँगा। ऐसे में
यह समझना चाहिए कि कोई भुलावा
अवश्य है। गुरु बनकर दूसरे के सुधार की
बात वे ही लोग कहते हैं जो सुधार के
नाम पर सुख भोग में प्रवृत्त होते हैं।
सरल और सीधे-साधे सहज विश्वासी
(credulous) लोग इनके बहकावे में आ
जाते हैं और अर्थ का अनर्थ हो जाता
है। आये दिन ऐसे कथित साधु-
सन्यासियों (Self proclaimed gurus)
के कुकर्मों का भण्डाफोड़, के
समाचार मिलते हैं। उनके ठिकानों पर
पुलिस छापे में अनेको आपत्तिजनक
सामान बरामद होते हैं,गिरफ्तारी के
भय से भागते फिरते हैं और पकड़े जाने पर
मुकदमा झेलते हैं। ऐसे में वे सहज
विश्वासी जो ज्ञान लेने और परमार्थ
के लिए उनसे जुडे, वे ठगे महसूस करते हैं।
कई तो ऐसे छद्मवेशी गुरुओं की
दुर्वासनों के शिकार भी बन जाते हैं।
कुछ ऐसे भी होते हैं जो कुकृत्यों में तो
लिप्त नहीं होते परन्तु गुरु कहलाने के
प्रलोभन से,और इससे औरों की दृष्टि में
अपने को विशेष प्रदर्शित करके अपना
मूल्य बढ़ाकर अपनी ख्याति के
लोभवश अथवा गुरु बनने और कहलाने के
राग वश, शिष्य बनाते और कथित रूप से
ज्ञान बाँटने का दंभ भरते हैं। परन्तु ऐसे
लोग जब अपने में ही विद्यमान गुरुतत्तव
के प्रकाश में अपने को अपना गुरु नहीं
बनाया वह दूसरों का गुरु क्या बन
सकता है? और क्या ज्ञान बाँटेगा?
जो लोग ऐसे लोगों से, साधन पथ के
लिए मार्ग-दर्शन हेतु जुड़ते हैं या
शिष्यत्व स्वीकार करते हैं उन्हें भुलावा
ही मिलता है। ज्ञान के नाम पर
अज्ञान ही बाँटते हैं। जिनके स्वयं के
अन्दर अन्धकार है वह दूसरों को ज्ञान
का क्या प्रकाश दे सकता है।
जो महापुरूष हमें यह स्पष्ट संकेत करता
है कि सत्य का वह प्रकाश,वह गुरू-तत्तव
हममें ही विद्यमान है,जिसके आदर से
हमें प्रकाश का बोध हो सकता है,वही
वास्तव में सद्गुरू है। जो सद्गुरू होता है
वह मानव-मात्र में विद्यमान विवेकरूपी
सद्गुरू को लखा देता है। सद्गुरू स्वयँ गुरू
बनने की कामना से सर्वथा मुक्त
होता है।
हमारे पवित्र ग्रंथ गीता, रामचरित
मानस आदि भी तो हमें इस सत्य से
परिचित कराकर सद्गुरु का ही कार्य
करते हैं। सिख समुदाय ने तो गुरु परम्परा
समाप्त करके गुरु ग्रंथ साहिब को ही
अपना नित्य अविनाशी गुरु बना
लिया।
अत: यह निर्विवाद है कि साधन-पथ के
लिए शरीरी गुरु अनिवार्य नहीं है। हम
जीवन के सत्य को स्वीकार करके और
विवेक का आदर करके स्वयं ही अपने गुरु
हो सकते हैं। संतों से सुना है कि हममें
यदि साधन-पथ पर चलने की,सत्य से
अभिन्न होने की तीव्र लालसा है और
शरीरी सद्गुरु की आवश्यकता है तो हमें
उन्हें नहीं ढूंढ़ना पड़ेगा, सद्गुरु हमें स्वयं
ही ढूंढ़ लेंगे और आवश्यक मार्ग-दर्शन
करा देंगे।
- ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द
द्वारा प्रदत्त मानव सेवा संघ दर्शन से।
।।श्री हरि: शरणम्।।
साधन-पथ के लिए टार्च>>>
साधन-पथ पर चलने के इच्छुक एक
जिज्ञासु ने (ब्रह्मलीन संत) स्वामी
शरणानन्द जी से कुछ प्रश्न् किये
स्वामी जी ने उसका समाधान
निम्नलिखित ढंग से किया:-
प्रश्न्: स्वामी जी! कोई कहते हैं
गीता पढ़ो, कोई कहते हैं रामायण
पढ़ो, कोई कहते हैं मंदिर जाओ, जप
करो, यज्ञ करो, दान दो तप करो।
समझ में नहीं आता क्या करें। कृपया
आप बतलाइये क्या करूॅं।
स्वामी जी ने जो उत्तर दिया-
उत्तर: जानी हुई बुराई छोड़ दो।
प्रश्न्: बुराई को छोड़ने के बाद क्या
करूॅं?
उत्तर : सबके प्रति सद्भाव रखो और
यथाशक्ति क्रियात्मक सहयोग दो।
प्रश्न्: महाराज जी! इसके बाद क्या
करूॅं?
उत्तर: सद्भाव और सहयोग के बदले में
किसी से कुछ मत चाहो, न अभी, न
कभी।
प्रश्न्: फिर इसके बाद क्या करूॅं?
उत्तर: पहले ये तीन कर लो, चौथी बात
स्वयं मालूम हो जायेगी।
प्रश्न्: स्वत: ही?
उत्तर: हाँ स्वत: ही। अरे तुम यह क्यों
चाहते हो कि हम यहाँ से तुम्हारे घर
तक बिजली के खम्भे लगा दें। इतनी
मेहनत मत करवाओ यार। अरे भइया,
हमने तुम्हें टॉर्च दे दी है, आगे स्वत:
मार्ग मिल जायेगा। अगर तुम केवल
पहली बात कर लो अर्थात् 'जानी हुई
बुराई को छोड़ दो' तो तुम्हे सब कुछ
मिलेगा। शांति, मुक्ति, भक्ति। इससे
जीवन बुराई रहित होगा तो स्वत: ही
सारे काम होंगे।
नोट: स्वामी जी का परम्परागत
पूजा पाठ आदि के प्रति न विरोध
था, न आग्र्रह। उनका कथन था कि
2 घंटे साधन और शेष घंटे असाधन तो
इससे जीवन के लक्ष्य अथवा मांग
कहे, उसकी तो प्राप्ति नहीं होगी।
वास्तविक जीवन की प्राप्ति तो
तभी होगी जब हमारा पूरा जीवन
साधनमय हो जाय। एक अन्य
प्रश्नकर्ता का प्रश्न् और स्वामी
जी का उत्तर यहाँ प्रासंगिक है-
प्रश्न्: मैं प्रतिदिन दो घंटे परम्परागत
ढंग से पूजा करता हूँ और घरवाले उसका
विरोध करते हैं तथा उसमें बाधा डालते
हैं। क्या किया जाय?
उत्तर: पूजा का वास्तविक अर्थ है-
भगवान के नाते और उन्हीं की
प्रसन्नता के लिए संसार की सेवा
करना। जिस समय घरवाले आपसे किसी
काम की अपेक्षा करते हों और आप
उसी समय पूजा में बैठ जाते हों तो
उनका विरोध करना उचित ही है। अत:
पूजा के वास्तविक अर्थ को अपनाकर
घरवालों की निष्काम भाव से सेवा
करें। यदि विधिवत् पूजा करने का राग
ही है तो उसका समय जरूरी कार्य करने
के पहले या बाद में रख सकते हैं।
नोट: विधिवत् पूजा भी तब ही
सार्थक होगी जब वह मात्र क्रिया
न रह जाये और अहं पुष्ट हो कि मैंने
इतनी देर पूजा किया, इतना जप
किया, इतनी बार घन्टा और शंख
बजाया आदि और इससे किसी फल
की कामना हो जैसे, व्यापार खूब
बढ़े, मुकदमे में जीत हो जाये आदि।
इस प्रकार तो जिसकी पूजा कर रहे
हैं वह साध्य न होकर साधन हो गये।
विधियात्मक पूजा करे तो जिसकी
पूजा कर रहे हैं उसकी प्रसन्नता के लिए
और लोकहित के भाव से। तब सभी
क्रियायें साध्य की प्रसन्नता के लिए
हो जायेंगी-फूल चढ़ाना, भोग
लगाना, घंटा-शंख बजाना सबके पीछे
भाव होगा कि इससे उन्हें अच्छा
लगेगा। इस भाव से उनके प्रति प्रीति
उदय होगी और अपने को भी प्रसन्नता
और प्रीति का रस मिलेगा।
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