Wednesday, 2 March 2016

नित्य श्रवण

श्रवण
यह मेरे व्यक्तिगत सूत्र से है स्वबोध हेतु -

शब्द से निःशब्द तब गहराई में छिपे प्रियतम्
को सुनना सम्भव है ।

सुन पाना एक अद्भुत सौगात है।
सुनना , कहे शब्द तक ही नहीँ , अनकहे ,
अनदेखे जगत तक का श्रवण चाहिए ।
कहना छूटे तब सुनना शुरू होवें ।
वर्तमान सामूहिक सत्संग या सामूहिक ध्यान ,
का मूल उद्देश्य श्रवण को विकसित करना है ।
कहना अर्थात् मैं हूँ , सुनना अर्थात् तुम हो ।
हम बड़ी मजबूरी से सत्संगों में चुप
होने की चेष्टा तो करते है।  पर "सुनने" को
विकसित नहीँ कर पाते ।  अपितु कोई ना सुने तो निरन्तर भीतर ही कहते रहते है , पर सुनते नहीँ ।
श्रवण भक्ति , योग , बोध , प्रेम सब है ।
सुनते रहने के लिए काल- परिस्थिति आदि
नहीँ चाहिए ।
ना ही यह ही भाव की सुनना क्या है ?
सुनूं क्या ? यहाँ तो शर्त आ गई ।
वह ही सुनना है , जो उन्हें कहना हो निरन्तर ।
मौन होना भी श्रवण के विकास का अंग है ,
ध्यान भी , और समाधिस्थ तो पूर्ण श्रोता है ।

प्रेमी की न और कोई सुनता है , ना प्रेमी किसी
की सुनता है , नित्य प्रेमास्पद का शब्द ही उसमेँ
ध्वनित होता है , जागतिक अवस्था , जगत के संग
में भी प्रेमी सुन रहा ही है ।

शब्द ही नहीँ निःशब्द सुन पाना सम्भव हो ।
अभी तो कहीँ बात ही नहीँ सुनी जाती तो
अनकहे सूक्ष्म को , वेणुनाद को सुन पाना
कठिन है । कहने में भी सुनकर ही कहने का
भाव हो , कहीँ से प्राप्त शब्द ही कभी कभी
होंठो पर हो , और सुनना चलता रहे ।
यही सम्बन्ध सूत्र है , कोई साधन
नहीँ करना बस जो कर रहे है वह रोकना है ,
अपनी हरकतें , क्रिया सब को होले होले करना । इसका अर्थ यह नहीँ की 24 घण्टे कान के
इयरफोन लगा लें । सदा सुने , बिन चेष्टा भी ।
यहाँ तक की जप , सुमिरन , नाम का भी
रस जब बने जब भीतर सुन कर दोहराया
भर जा सके , अथवा केवल सूना ही जा सके ।
भगवत् वार्ता सम्भव है , कहना रुके , सुनना
अनिवार्य होता जाएं , किसी स्थान विशेष नहीँ ,
जब जहाँ हो वहीँ , वह सुन पाना जिसे सुनना ही हो ।
अपनी कहने में एक अद्भुत दिव्य संगी साथी सदा
भीतर बाहर संग रहते भगवन् सुनाई नहीँ आते ।
जिसे सुनना आ गया , उसने उन्हें निश्चित पा ही लिया।
ज़रा, सुनिये वह कुछ कह रहे है .....
सत्यजीत तृषित ।

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