Sunday, 13 March 2016

भक्ति क्या है ? कैसे हो । स्वामी श्री शरणानन्द जी

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।।श्री हरि: शरणम्।।
~: भक्ति :~
श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध
के दसवें अध्याय में स्वयं भगवान
श्री कृष्ण ने अपने मित्र उध्दव
जी को भक्ति और भक्तजनों के
लक्षण के विस्तार से बताया है।
उसके कुछ अंश उध्दरित हैं:-
''आत्मजिज्ञासा और विचार के
द्वारा आत्मा में जो अनेकता
का भ्रम है, उसे दूर कर दे और मुझ
सर्वव्यापी परमात्मा में अपना
निर्मल मन लगा दे तथा संसार
के व्यवहारों से उपराम हो जाय।
यदि तुम अपना मन परब्रह्म में
स्थिर न कर सको,तो सारे
कर्म,निरपेक्ष होकर मेरे ही लिए
करो।........ मेरे आश्रित रहकर मेरे
ही लिए धर्म अर्थ और काम का
सेवन करना चाहिए। प्रिय
उध्दव! जो ऐसा करता है,उसे मुझ
अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य
प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो
जाती है। भक्ति की प्राप्ति
सत्संग से होती है,जिसे भक्ति
प्राप्त हो जाती है,वह मेरी
उपासना करता है,मेरे सान्निध्य
का अनुभव करता है।''
भगवान श्री कृष्ण ने आगे कहा है-
''मेरा भक्त कृपा की मूर्ति
होता है। वह किसी भी
प्राणी से वैर भाव नहीं रखता
और घोर-से-घोर दु:ख भी
प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके
जीवन का सार है सत्य और उसके
मन में किसी प्रकार की पाप
वासना कभी नहीं आती। वह
समदर्शी और सबका भला करने
वाला होता है। उसकी बुध्दि
कामनाओं से कलुषित नहीं
होती। वह संयमी, मधुर स्वभाव
और पवित्र होता है। संग्रह-
परिग्रह से सर्वथा दूर रहता
है। ..........उसकी बुध्दि स्थिर
होती है। उसे केवल मेरा ही
भरोसा होता है। ...........उसके
हृदय में करुणा भरी होती है। मेरे
तत्व का उसे यर्थाथ ज्ञान
होता है। मेरा जो भक्त.........
केवल मेरे ही भजन में लगा रहता है
वह परम संत है। मैं कौन हूँ,कितना
बड़ा हूँ -इन बातों को जाने
चाहे न जाने, किन्तु जो अनन्य
भाव से मेरा भजन करते हैं, वे मेरे
विचार से मेरे परम भक्त हैं।''
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मानव सेवा संघ दर्शन के प्रतिपादक
(ब्रह्मलीन संत) स्वामी शरणानन्द जी
ने भक्ति का इस प्रकार वर्णन किया
है-
''अपने को सब ओर से हटाकर अपने में ही
अपने प्रेम पात्र का अनुभव करना अनन्य
भक्ति है।''
एक प्रश्न्कर्ता ने स्वामी जी से पूछा-
प्रश्न्: भक्ति कैसे हो?
उत्तर: भक्ति दास्य भाव से प्रारम्भ
होती है। सेवा करते-करते मित्र बनने से
सख्य भाव, प्रेम उमड़ता है तो वात्सल्य
भाव और अन्त में मधुर भाव। दास्य भाव
में स्वामी के सिवाय किसी और की
स्मृति होती है क्या? चिन्तन होगा
क्या? भय होगा क्या? नहीं। भक्त
संसार के कार्य को भगवान का कार्य
समझता है।
संसार को अपने लिए अस्वीकार करता
है। एक अन्य साधक ने उनसे प्रश्न् किया
कि भक्ति का यथार्थ स्वरूप क्या है?
तो स्वामी जी ने उत्तर दिया-
मेरा कुछ नहीं है, यही भक्ति है
मुझे कुछ नहीं चाहिए, यही भक्ति है
मैं कुछ नहीं हूँ, यही भक्ति है
इस भक्ति की प्राप्ति में सभी
स्वाधीन हैं।
उन्होंने एक अवसर पर सच्ची सेवा का
स्वरूप बताते समय अन्य बातों के
अतिरिक्त कहा कि भक्त वही है जो
प्रेमपात्र से विभक्त न हो अर्थात्
जिसका सद्भाव पूर्वक प्रेमपात्र से
सम्बन्ध हो जाता है।
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रामचरितमानस के 'अरण्य
काण्ड' में प्रभु श्रीराम और
परमभक्त शबरी जी के बीच
संवाद में श्रीराम द्वारा
शबरी जी को सुनाई गई नवधा
भक्ति
-पहली भक्ति है संतों का
सत्संग।
-दूसरी भक्ति है मेरे (श्रीराम)
कथा प्रसंग में प्रेम।
-तीसरी भक्ति है अभिमान
रहित होकर गुरु के चरण कमलों
की सेवा करना।
-चौथी भक्ति यह है कि कपट
छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान
करें।
-पाँचवी भक्ति है मेरे (राम)
मन्त्र का जाप और मुझमें दृढ़
विश्वास।
-छठी भक्ति है इन्द्रियों का
निग्रह,शील,बहुत कार्यों से
वैराग्य और निरन्तर संत पुरुषों के
धर्म/आचरण में लगे रहना।
-सातवीं भक्ति है जगत भर को
समभाव से मुझमें ओतप्रोत
(राममय) देखना और संतों को
मुझसे भी अधिक करके मानना।
-आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल
जाय उसी में सन्तोष करना और
स्वप्न में भी पराये दोषों को न
देखना।
-नवीं भक्ति है सरलता अैर सब के
साथ कपट रहित बर्ताव
करना,हृदय में मेरा भरोसा
रखना और किसी भी अवस्था
में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न
होना।
आगे प्रभु श्री राम ने शबरी जी
से कहा कि इन नवों में से जिनके
एक भी होती है,वह स्त्री-
पुरुष,जड़-चेतन कोई भी हो,हे
भामिनि! मुझे वही अत्यन्त
प्रिय है। फिर तुझमें तो सभी
प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव
जो गति योगियों को भी
दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ
हो गई है।
sprai
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