🌷ओ३म्🌷
🌻दस चक्रों का विवरण🌻
इन चक्रों में प्राणायाम से उत्तेजना पहुंचती है।ये चक्र इस प्रकार हैं:-
(1) मूलाधार चक्र-गुदा के पास है।इसमें उत्तेजना प्राप्त कर वीर्य स्थिर और अभ्यासी ऊर्ध्वरेता बनता है।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र-मूलाधार से चार अंगुल ऊपर है।उसमें उत्तेजना पहुंचने से प्रेम और अहिंसा के भाव जाग्रत होते हैं।शरीर के रोग और थकावट दूर होकर स्वस्थता का लाभ होता है।
(3) मणिपूरक चक्र-ठीक नाभि स्थान में है।इसके उत्तेजित होने से शारीरिक और मानसिक दुःख कम हो जाते हैं।मन स्थिर होने लगता है और आत्मा अपने को शरीर से पृथक् अनुभव करने लगता है।
(4) सूर्य चक्र-यह चक्र पेट के ऊपर ह्रदय की धुकधुकी के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के दोनों और रहता है इसका अधिकार भीतरी सभी अवयवों पर है।प्राण का कोष इसी चक्र में रहता है।इस पर चोट लगने से मनुष्य तत्काल मर जाता है (पहलवान कुश्ती के समय इसी पर पेट लगाकर प्रतिद्वन्द्वी को बलहीन करते हैं)।
मस्तिष्क प्राणों के लिए इसी चक्र का आश्रय लेता है।यह चक्र पेट का मस्तिष्क समझा जाता है।
(5) मनश्चक्र:-आमाशय से कुछ ऊपर है।प्राणायाम में कुम्भक से इसको उत्तेजना मिलती है।तार्किक मनन-शक्ति और इस शक्ति वाले मस्तिष्क वाले मस्तिष्क का विकास इससे हुआ करता है।
(6) अनाहत चक्र:-ह्रदय स्थान में है।ह्रदय के समस्त व्यापार इससे नियमित होते हैं।
(7) विशुद्धि चक्र:-कण्ठ में है।कण्ठ के मूल में जहां दोनों और की हड्डियाँ आती हैं,बीच में अंगूठे के बराबर नर्म जगह होती है,वह इस चक्र का स्थान है।इस पर संयम करने से बाह्य की विस्मृति और आन्तरिक कार्य का प्रारम्भ होता है।तारुण्य और उत्साह प्राप्त होता है।
(8) आज्ञा चक्र:-दोनों भौंहों के मध्य में है।इससे शरीर पर प्रभुत्व,नाड़ी और नसों में स्वाधीनता आती है।
(9) सहस्र चक्र:-तालु स्थान के ऊपर है और समस्त शक्तियों का केन्द्र है।
(10) गुहा भ्रमर(ललाट) चक्र:-ललाट के ऊर्ध्व भाग में है (इन चक्रों में उत्तेजना पहुंचाने के लिए कुण्डलिनी के जाग्रत करने के अभ्यास किये जाते हैं।राजयोग से उनका कोई सम्बन्ध नहीं,इसलिए उनका यहाँ उल्लेख नहीं किया गया)।
योगाभ्यासी का भोजन:-मांस,मछली,प्रत्येक प्रकार के नशे,तेल,प्याज,मिर्च,खटाई आदि योगी के लिए अभक्ष्य पदार्थ हैं।दूध,चावल,जौ,गेहूं मुख्य रुप से उसके भोज्य हैं।आसन अधिक करने वालों के लिए केवल दूध उपयोगी भोजन है।नमक यदि न खाया जाए तो अधिक अच्छा है,अन्यथा थोड़ी मात्रा में खाया जा सकता है।
🌻ध्यान देने योग्य बातें:-
कई सुगमता-प्रिय कहा करते हैं कि राजयोग में यम-नियम के पालन करने का बड़ा झंझट है।इस पचड़े को दूर करना चाहिए।माँग और पूर्ति साथ-साथ चलती हैं।इस (यम-नियम की) पचड़े को दूर करने की मांग ने उसकी पूर्ति करने वाले भी पैदा कर दिये।इस समय कई सम्प्रदाय बन गये जिन्होंने उस (यम-नियम वाले) पचड़े को दूर कर दिया और सुगम तरीके चित्त की एकाग्रता के बतला दिये।उनमें से एक का यहां उल्लेख किया जाता है:-
शब्द सुनना--कानों को मोम लगी हुई रुई से बन्द कर लो और सुनने की इच्छा से शान्त होकर बैठ जाओ।कुछ नाद सुनाई देने लगेगा।प्रारम्भ में वह गूं,गां की भांति ही होता है परन्तु कुछ सप्ताह अभ्यास करने पर वह अच्छे सुरीले बाजे की आवाज की तरह सुनाई देने लगता है।और उस और चित्त लगने से,शान्ति सी प्रतीत होने लगती है।इसी प्रकार भीतरी प्रकाश का देखना है।आंखें बन्द करके प्रकाश देखने की मुद्रा में बैठ जाओ और चित्त उसी ओर लगाए ,रखो।पहले कुछ चमक दिखाई देगी,उसके बाद प्रकाश दिखाई देने लगेगा।
चेतावनी:-इस प्रकार से शब्द सुनने और प्रकाश देखने आदि की क्रियाएं सुगम तो जरुर हैं परन्तु उनका मनुष्य के आचार से कुछ सम्बन्ध नहीं है।एक चोर और व्यभिचारी भी इन शब्दादि को उसी प्रकार सुन सकता है जिस प्रकार एक सदाचारी।परन्तु राजयोग की विशेषता यही है कि उसे चरित्रहीन नहीं प्राप्त कर सकता है।वह योग दो कौड़ी का भी नहीं है जिसमें समय लगाने और पुरुषार्थ व्यय करने से,अभ्यासी,सदाचारी भी न बन सके।इसलिए योग के अभ्यास की इच्छा करने वालों को चाहिए कि इस सुगम-प्रियता को छोड़कर अपने को श्रेष्ठ बनाने की ही सद्भावना से प्रेरित हों और ऐसे ही मार्ग का आश्रय लें जिससे उनका कल्याण हो।
🌻अन्तिम शब्द:-
योग-दर्शन पूर्वी मनोविज्ञान है।इसकी विषेशता यह है कि इसमें ऐसे अभ्यास बतलाये गए हैं जिनसे मनुष्य अधिक से अधिक शारीरिक,मानसिक और आत्मिक उन्नति कर सकता है।यदि कोई योग के अन्तिम अंग तक नहीं पहुंचना चाहता तो कुछ हर्ज नहीं है।वह थोड़े से थोड़ा समय ,दिन में न सही रात्रि में ही सही,निकालकर यम-नियमों में से किसी भी एक का,जो उसको अधिक से अधिक रुचिकर हो,अभ्यास कर सकता है।उसी एक बात को सिद्ध कर लेना उसके कल्याण का कारण बन जायेगा।उस एक बात को सिद्ध कर लेने का मतलब यह होगा कि उस व्यक्ति का ह्रदय आत्मा की आवाज सुनता है।याद रखो,वहां शान्ति नहीं रहती और न रह सकती है जहां आत्मा की आवाज नहीं सुनी जाती।मनुष्य जब गाढ़ निद्रा में सो जाता है तो वह यदि दुःखी है तो अपने को दुःखी नहीं समझता।यदि रोगी है तो अपने को रोगी नहीं समझता।यदि वह राजा या रंक है तो अपने को राजा या रंक नहीं समझता।निष्कर्ष यह है कि वह निद्रा के आनन्द में इतना मग्न है कि दुनिया की कोई चीज भी उसे दुःखी व सुखी नहीं बना सकती।यही अवस्था उस अभ्यासी की हो जाती है जो प्रभु-प्रेम में मग्न है और जिसका चित्त उसकी भक्ति में लीन हो रहा है।इस अभ्यासी को भी अब कोई वेदना नहीं है,कोई सुख-दुःख नहीं है,वह इन सबसे ऊंचा हो चुका है।योगदर्शन चाहता है कि दुनिया की अशान्तियों से घबराये हुए व्यक्ति थोड़ा अभ्यास करके,इस शान्ति का भी स्वाद चख लिया करें।इसी का संकेत उसने "ईश्वरप्रणिधानाद्वा" में किया है।गाढ़ निद्रा की शान्ति तम का परिणाम होती है परन्तु यह ईश्वरप्रेम की शान्ति सत्त्व का फल होती है।इससे मन प्रफुल्लित होताहै।आत्मा में बल आकर उसे उत्कृष्ट बनाता है।
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