Tuesday, 29 March 2016

जीवन तपश्चर्य हेतु है

मानव जीवन तपश्चर्या के लिए है । जो तप नहीँ करता , उसका पतन होता है । मानव जीवन का लक्ष्य भोग नहीँ , भजन है , ईश्वर भजन है , समभाव और सद्भाव सिद्ध करने के लिए सत्संग की जरुरत है । समभाव तभी सिद्ध होता है  जब प्रत्येक जड़ चेतन की ओर ईश्वर की भावना जागे ।
   मानव अवतार परमात्मा की आराधना और तप करने के लिए है । पशु भी भोँगो का उपयोग करते हैँ । यदि मनुष्य केवल भोग के पीछे ही दीवाना हो जाए तो फिर उसमेँ और पशु मेँ क्या अन्तर रह जायेगा?  प्रभु ने मनुष्य को बुद्धि दी है , ज्ञान दिया है । पशु को कुछ नहीँ दिया है । आने वाले कल की चिन्ता मानव कर सकता है पशु नहीँ।
  न तो देव तप कर सकते हैँ न पशु । देव पुण्य का उपभोग कर सकते हैँ । तपश्चर्या केवल मनुष्य ही कर सकते है। मनुष्य विवेकपूर्ण भोग का भी उपभोग कर सकता है । मनुष्य जीवन विविध प्रकार के तप करने के लिए है । तप कई प्रकार के हैँ । कष्ट सहते हुए सत्कर्म करना तप है । उपासना भी तप है । पूर्णिमा अमावस्या एकादशी आदि पवित्र दिन माने गये हैँ । ईन दिनो उपवास करना चाहिए । उपवास का अर्थ है उप(समीप) वास(रहना)  अर्थात् ईश्वर के समीप रहना ।  परोपकार मे शरीर को लीन करना भी तप है । तप की महत्ता गीता जी मे कहा गया है -- " भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते " ।
भावसंशुद्धि बड़ तप है । सभी मेँ ईश्वर का भाव रखना भी तप है । सभी मेँ ईश्वर विराजते हैँ ऐसा अनुभव करना महान तप है । अर्थात् अन्तःकरण की पवित्रता से हृदय मेँ सदा सर्वदा शान्ति और प्रसन्नता रहेगी । प्रिय और सत्य बोलना वाणी का तप है । पवित्रता , सरलता , ब्रह्मचर्य , और अहिँसा आदि शरीर सम्बन्धी तप है ।
   
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