Tuesday, 15 March 2016

क्या चाह और कामना के अभाव में निष्क्रियता आ जायेगी

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।।श्री हरि: शरणम्।।
*क्या चाह और कामना के अभाव में निष्क्रियता आ
जायेगी
नहीं ऐसा नहीं होता विचार करने
की बात है कि यदि कोई ऐसा सोचता है कि कर्म के
लिए चाह या कामना आवश्यक है तो उस दशा में भगवान
श्री कृष्ण द्वारा मानव जाति के लिए प्रदत्त कर्मयोग
और निष्काम-कर्म का सारा ज्ञान वृथा हो जायेगा।
यदि किसी कर्म के पीछे प्रेरक, कामना या
चाह है तो सबसे पहले यह मानना होगा कि हम
अपनी कामना चाह की पूर्ति हेतु गलत/
अवांछनीय तरीके भी अपना
सकते हैं। दूसरे किसी की
सभी कामनाएँ कभी पूरी
नहीं होतीं अत: कामना/चाह
की अपूर्ति में दु:ख और निराशा प्राप्त
होगी।
'सेवा का अर्थ एवं स्वरूप में
स्वामी शरणानन्द जी के शब्दों का
उल्लेख किया गया है कि सेवा करने के लिए राग अपेक्षित
नहीं है, अपितु उदारता की अपेक्षा है।
एक साधक ने स्वामी जी से प्रश्न् किया
कि बिना इच्छा के कर्म कैसे हो सकता है। इसका समाधान
स्वामी जी ने इस प्रकार किया:-
''देखो। कर्म और चीज है, सेवा और
चीज है। कर्म तो होता है अपने सुख के प्रलोभन
को लेकर और सेवा होती है दूसरों के हित को लेकर।
आपकी इच्छायें अपने सुख को लेकर न
उठें,हमारी पीड़ा को लेकर उठें। हे
भगवान तुमने मुझे ऑंखें दी हैं, मैं अन्धे के काम आ
जाऊॅं। हे भगवान तुमने मुझे धन दिया है, मैं निर्धन के काम
आऊॅं। हे भगवान तुमने मुझे बल दिया है, मैं निर्बल के काम
आऊॅं।''
''आप इच्छाओं का रुख बदल दीजिये, इच्छायें मिट
जायेंगी। परन्तु दु:ख की बात यह है कि
आपको जो कुछ मिलता है आप उसे से सुख लेना चाहते हैं। आप
समाज व परिवार को कुछ देना नहीं चाहते, उनसे सुख
की अपेक्षा करते हैं। इच्छा यह उठे कि मैं दूसरों के
काम आ जाऊॅं। जब आपकी यह मांग सबल हो
जायेगी, इच्छायें मिट जायेंगी। भगवान ने
आपको इतना सुन्दर बनाया है कि आप चाहो तो सारे संसार के काम
आ जाओ।''
''आप कहें कि कैसे आ जायें, हमारे पास तो थोड़ा सा बल है, और
संसार बहुत बड़ा है। मानव सेवा संघ कहता है कि मन,
वाणी कर्म से बुराई रहित हो जाओ, संसार के काम आ
जाओगे। बुराई मत करो, भलाई करो या न करो।''
कोई प्रश्न् कर सकता है कि यदि किसी व्यक्ति-
उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी में कोई महत्वाकांक्षा
(ambition) और चाह (desire) नहीं
होगी तो वह पढ़ाई ठीक से करने के लिए
कैसे उत्प्रेरित होगा। यहीं पर हम लोगों से भूल
होती है कि हम बच्चों के ऊपर अपनी
इच्छाओं/कामनाओं का बोझ लाद देते हैं कि तुम्हें कक्षा में
अव्वल आना है,तुम्हें आई0ए0एस0/डाक्टर/
इन्जीनियर आदि बनना ही है।
कभी-कभी बच्चे स्वयँ भी
गलत धारणाओं के कारण अपने लिए targets fix कर लेते हैं कि
मुझे यह position लाना ही है अमुक पद पाना
ही है। इसका नतीजा होता है कि बच्चा
तनाव (Stress/tension) में रहता है। और यदि संकल्प
(expectation) के अनुरूप सफलता नहीं
मिलती है तो हताशा से ग्रसित हो जाता है और
अखबारों में अक्सर समाचार आते हैं कि अमुक छात्र ने आत्म-
हत्या कर लिया।
अत: बच्चों में चाह/कामना के बजाय कर्तव्यपरायणता का
बीज बोना चाहिये। छात्र जीवन में
ठीक से पढ़ाई करना छात्र का कर्तव्य है। कर्तव्य-
निष्ठा का भाव ठीक से पढ़ाई करने के लिए उत्प्रेरक
होना चाहिए। लेखक के एक मित्र पढ़ाई में इसी भाव
से सत्र (session) प्रारम्भ होने के पहले ही दिन
से regular पढ़ाई करते थे। परिणाम भी अच्छे आते
थे। उन्हें जो उपलब्धि हुई उसे उन्होंने कभी
लक्ष्य (target) नहीं बनाया। बिल्कुल शान्त मन
से कर्तव्य की दृष्टि से पढ़ाई करते थे।
बी0एस0सी0 की फाइनल
परीक्षा के पूर्व उनके पिताजी इलाहाबाद
होस्टल में मिलने आये थे। उन्होंने अपने बेटे से पूछा कि कैसा
डिवीजन आयेगा। उन्होंने संकोच (humility) वश
धीरे से कहा कि प्रथम डिवीजन आना
चाहिये। इस पर पिता जी ने पूछा कि तुमने पढ़ाई
ठीक से किया है कि नहीं। उनके हाँ
कहने पर पिता जी ने कहा कि तुमने
अपनी डयूटी पूरा किया है तो यदि तुम फेल
भी हो जाओ तो मुझे कोई शिकायत नहीं
होगी। मेरे मित्र ने कोई targets fix
नहीं किया था,परन्तु फिर भी इन्टर
साइन्स के तीनों विषयों में डिस्टिन्कशन प्राप्त किया था
और बी0एस0सी0 में top किया।
यही बात कर्म के हर क्षेत्र में लागू
होती है। ऊपर उध्दरण में अंकित है कि
स्वामी जी ने सलाह दिया है कि ''इच्छाओं
का रुख बदल दीजिये, इच्छायें मिट
जायेंगी।'' देखिये, एक व्यक्ति यह इच्छा रखता है कि
मैं डाक्टर बनूँगा, खूब पैसे अर्जित करुँगा, बड़ा मकान बनवाऊॅंगा,
बड़ी-बड़ी मोटर गाड़ियाँ होंगी,
खूब ऐशो-आराम करुँगा। दूसरा व्यक्ति इस भाव से डाक्टर बनना
चाहता है कि डाक्टर बनकर मरीजों की
खूब सेवा करुँगा। बात वही है, पर एक
की प्रेरणा चाह और स्वार्थ है, जबकि दूसरे
की प्रेरणा सेवा-वृत्ति है।
एक अन्य उदाहरण लें। एक वैज्ञानिक कैन्सर की
दवा निकालने के लिए रिसर्च में लगा हुआ है। वह सोचता है कि मैं
सफल हो गया तो उसे पेटेन्ट करा लूँगा, खूब धन कमाऊॅंगा, खूब
ख्याति होगी और नोबेल प्राइज मिलेगा। दूसरा
वैज्ञानिक कैन्सर के भयावह परिणामों को सोचता है कि
मरीज कितना शारीरिक और मानसिक कष्ट
झेलता है, उसके परिवार को कितना मानसिक कष्ट और आर्थिक
कठिनाई झेलनी पड़ती है।
मरीज बचा नहीं तो परिवार उजड़ गया और
यदि मरीज ही कमाऊ (earning
member) था तो आर्थिक विपदा भी भोगना पड़ता है।
वह किसी अपनी चाह से
नहीं बल्कि करुणा से प्रेरित होकर रिसर्च में जुटा
रहता है। ऐसा सुना है कि यदि भाव शुध्द हो तो
ईश्वरीय सहायता (divine help) भी
मिलती है।
किसी ने प्रश्न् किया कि ईश्वर प्रेम की
प्राप्ति अथवा अपने नित्य,अविनाशी रसरूप
जीवन की प्राप्ति को जीवन
का लक्ष्य बताया गया है। इसके लिए चाह और कामना
होगी तब ही तो इसकी प्राप्ति
होगी। अन्यथा कैसे होगी?
विचार करने की बात है कि चाह और कामनाएँ
शरीर और संसार को लेकर उठती हैं।
जिसने अपने को साधक स्वीकार किया उसके
जीवन में शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता/
योग, बोध, प्रेम की मांग होती है और
माँग 'स्व' में होती है। अपना दायित्व पूरा करने पर
मांग की पूर्ति स्वत: होती है।
पर यदि कोई प्रभु प्रेम की प्राप्ति के सम्बन्ध में
चाह और कामना शब्द का प्रयोग करना ही चाहता है
तो उसका अर्थ सांसारिक वस्तुओं,परिस्थितियों की
प्राप्ति,नहीं होगा बल्कि भाव की दृष्टि से
वह प्रभु-प्रेम की लालसा के ही अर्थ
में आयेगा।
यह अर्थ उसी दशा में सत्य होगा जब हमने प्रभु
को अपना साध्य माना है न कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए साधन
बनाया है। स्वामी जी कहते थे कि यदि
प्रभु से कोई चाह हो,तो यही होना चाहिए कि प्रभु
तुम मुझे प्यारे लगो। यह चाह उस 'चाह' से भिन्न है जिसे लेकर
जीवन में 'अचाह' होने के लिए संतो द्वारा,अपने
धार्मिक ग्रंथों द्वारा, सलाह दी गई है।
अत: चाह/कामना रहित होकर हम निष्क्रिय नहीं
होंगे बल्कि हम से जो भी कर्म होंगे वे अति सुन्दर
होंगे,कर्म के अन्त में सन्तोष और प्रसन्नता
होगी,फल जो भी हो। ऐसे व्यक्ति को इस
बात का पूर्ण ध्यान रहता है कि उसका रोल कर्म करना है-फल
उसके हाथ में नहीं है-फल तो विधान से बनता है।
📝sprai
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