इच्छा और शक्ति
ह्लादिनी शक्ति का ही रूप इच्छा है ,
इच्छा शक्ति की मात्रा बाह्य और अन्तः जगत में समान नहीँ है , इसलिये इच्छा शक्ति की तीव्रता सभी क्षेत्रों में समान नहीँ होती ।
शिवसूत्रकार कहते हैं - "इच्छाशक्तिरुमा कुमारी"
संसार का मूल कारण अभी तक वैज्ञानिकों के दृष्टिपथ में सही से नहीँ आया है ।
आया होता तो कारणरूपा शक्ति को वें इच्छा के रूप में पहचान सकते , एवम् अपनी इच्छा के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध आविष्कार कर चिन्मयधाम या बोधराज्य जाने का यथार्थ मार्ग प्राप्त करते ।
शक्ति को इच्छा स्वरूपा न जानने के कारण वें जगत कार्य के मूल में चैतन्य की सत्ता का आविष्कार नहीँ कर पाते हैं ।
शक्ति इच्छा मयी है या नहीँ , इसके जानने का एकमात्र उपाय यही है कि जिसे हम इच्छा कहते है, उसे विशुद्ध और संयत करके उसके द्वारा सांसारिक शक्ति के ऊपर प्रभाव विस्तार किया जा सकता है या नहीँ , इसकी परीक्षा करना ।
इच्छा के स्फुरण से यदि बाह्यशक्ति स्तम्भित होती है या निरुद्ध शक्ति उद्रिक्त होती है तो इससे सिद्ध होता है कि एक ओर जैसे बाह्यशक्ति इच्छामयी है वैसे ही दूसरी ओर इच्छा भी शक्तिरूपा है ।
इच्छा के द्वारा अंततः आंशिक रूप में जो बाह्यशक्ति के ऊपर क्रिया की जाती है यह वर्तमान काल के वैज्ञानिकों को ज्ञात है ।
जो योगी और उच्च कोटि के साधक हैं वें तो इच्छामात्र से ही किसी भी शक्ति का चाहे जिस प्रकार उपयोग करने में समर्थ हैं , जगत में ऐसे अनेकों दृष्टान्त और प्रमाण मिलते हैं ।
अतः इच्छा और शक्ति मूल में अभिन्न पदार्थ है , और इनके मूल में चैतन्यमय प्रकाश नित्यसिद्ध सत्ता या पराशक्ति के रूप में जागृत है ।
जिस चैतन्यरूपा अखण्ड सत्ता से वात-विक्षुब्ध समुद्र के वक्ष: स्थल पर तरंगों के उद्गम की भाँति स्वभाव की प्रेरणा से इच्छामयी शक्ति का आविर्भाव होता है और इच्छा के द्वारा क्रम सृष्टि के नियमानुसार क्रिया का विकास होता है वहीँ ईश्वर पदवाच्य वस्तु है ।
इच्छारूपा शक्ति कभी उनमें अंतर्लीन होकर वर्तमान रहती है और कभी उन्मेष को प्राप्त होकर बाह्य गति सम्पादन करते हुये प्रपंचसृष्टि करती है ।
जड़ जगत से चिन्मय ईश्वर सत्ता को प्राप्त होने के लिये मध्यवर्ती शक्ति या इच्छाभूमि से होकर ही जाना होगा ।
विज्ञान जगत में जब इस शक्ति का स्वरूप कुछ यथार्थ रूप में प्रकाशित होगा उससे मौलिक चित् सत्ता के सम्बन्ध में उन्हें अनुमान करने का अवसर मिलेगा ।
अप्रतिहत इच्छा या शक्ति का चैतन्यमय आधार ही तो ईश्वर है ।
इच्छा अगर शक्ति विषयक है तो मूल में वह अंत शक्ति है जो रस उन्मेष से बाह्य हुई है। अतः इच्छा शक्ति है या कहे शक्ति इच्छा है, इस सूत्र से अन्तः की प्रथम इच्छा की निवृत्ति ही जिव की न हो तब तक शेष इच्छा केवल छाया है । जिव सन्तुष्ट नहीँ , क्योंकि उसमें कही न कही चिन्मय रस आनन्द की इच्छा हुई थी जो पूर्ण नहीँ हुई । अतः मुलतः इच्छा परिवर्तनशील दिखे तब भी है प्रबल थिर । वह चिन्मय वस्तु जो है ।
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