प्राप्त बोध से जीवन को साधना बनाया जावें ।
ना कि पुस्तकों को मस्तिष्क में ठूस लेने से उद्धार होता है ।
अनेक सन्तों ने अनेक मार्ग दिए , सब भेद खुले है , बच्चा भी जानता है , उसके मूल भगवान है ।
फिर भी हो नहीँ पाता , या कोई छूटना ही नहीँ चाहता । ईश्वर ने कभी किसी को नहीँ बाँधा , माया भी जगत और ईश्वर का चुनाव बार बार देती है , ईश्वर और माया का नहीँ यह जीव की जडता का दोष है , माया तो अग्रिम पथ पर भगवत् दर्शन ही कराती है । कल जो माया थी वह ही योगमाया हो जाती है ।
जड़ता भी हट जावें , अगर प्राप्त वस्तु में ममता न हो , भेद की सृष्टि ईश्वर ने नहीँ की , व्यक्ति का लक्ष्य क्षीण है , आज किसी वेस्टर्न सिंगर की नकल कर उस जैसा होने की चेष्टा सम्भव दिखती है , लोग किसी की भी नकल कर लेते है तब विवेकानन्द या अन्य पथिकों की क्यों नहीँ ?
आदर्श का अर्थ सरल रूप से दर्पण है , फलाफला मेरे आदर्श है , इसका अर्थ वह मेरे दर्पण है , उनसा होना मेरी अभिव्यक्ति हुई , आदर्श सच में आदर्श हो तब सहजता रहें , आज गुरू को केवल साधन माना जाता है , जहाँ गाडी अटके वहाँ गुरु याद आते है , रिजर्व बेलेंस की तरह , उससे पहले भावना नहीँ होती , सेवा के लिए तो कोई गुरु नहीँ चाहता , कि सन्त सेवा करनी है , सब पाने के लिये चाहते है , वस्तुतः पाता वहीँ है जो सेवा कर सकें , वरन् मन्त्र तो शब्द है , उसके प्राण ना देकर गुरु ऐसे कामना पूर्ति वाले शिष्य को दूर कर लेते है और सच्चे सेवक बिन माँगे , बिन दिए अपार पारलौकिक सम्पदा पा लेते है । यह दुर्भाग्य है कि हम गुरु के प्रति छल बुद्धि रखते है , यहाँ कुछ शिष्य गुरू को देना चाहते है , क्योंकि उन्हें लगता है मुफ़्त का लिया नहीँ जा सकता , सेवा होती नहीँ , तब जो अपने पास है वहीँ दे दो , अतः संसार अपने पास है सो वहीँ देने लगते है , भगवत् प्राप्त सन्त को । सन्त तो सन्त है , उनमें प्रति वस्तु भगवत् स्वरूप बुद्धि उदय ही है , अन्य कुछ दीखता नहीँ , देना वाला और प्राप्त वस्तु भी भगवत् रूप तब वह भगवत् विधान हेतु ही लें भी लेवें तो जगत को वहाँ पुनः दोष दर्शन होता है । जिन्हें भगवान ही प्राप्त हो ऐसे सन्त को जान कर अनावश्यक संसार दिखाना , और भेंट करना अपराध है । होता क्या है , हम सन्त और भगवान को सुधारने में इतने व्यस्त है कि अपनी बारी इस बार भी टल ही जाती है - सत्यजीत तृषित
Tuesday, 29 March 2016
प्राप्त बोध का सदुपयोग हो तृषित
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