★भगवान भक्त का संसार(धन-सम्पत्ति) आदि क्यों नष्ट करते हैं?★
उत्तर--> धनवान व्यक्ति में तीन दोष होते हैं "धन", "धन का अहंकार", "धन का लोभ" ।
इन तीनो के रहते एक साधारण व्यक्ति का भगवत्क्षेत्र में चल पाना बहुत दुष्कर होता हैं, ऐसे तो बिरले ही संस्कारी साधक होते हैं जो संसारिक वैभव होते हुये भी भगवत्क्षेत्र में चलते रहते हैं अन्यथा तो धन का अभिमान मनुष्य से संतो/भगवद्भक्तो का अपमान/अनादर/अवज्ञा ही करवाता हैं जो कि महानतम अक्षम्य नामापराध हैं ।
लाखो-करोड़ो रूपया हम लोग संसार में खुशी-खुशी फूॅक देते है
--अपनी या संतान की शादी-विवाह के प्रसंगो में
--ऐशो-आराम के प्रसाधनो को खरीदने पर
--संतान, परिवार आदि के ऊपर बेफिजूल खर्चो में
--डाॅक्टरो, वकीलो आदि के यहाॅ इत्यादि ।
लेकिन जब बात आती हैं साधुसेवा/संतसेवा/गुरुसेवा में धन-सम्पत्ति अर्पण करने की तो हम लोगो को माने साॅप सा सूंघ जाता हैं और सोचते हैं कि "ये(गुरु जी या संत जी) हम से ही क्यो मांग रहे हैं(यह जानते हुये भी कि गुरु/संत सदा सब तरह हमारा कल्याण ही चाहते है)?
और ढूंढने लग जाते हैं एक से एक बहाना; कि किस प्रकार इनसे पीछा छुड़ाये और हमारा धन-सम्पत्ति हमको इन्हे ना सौंपना पड़े !
झूठ बोलते है ज्यादातर लोग तो और कुछ महानुभाव तो साफ मना कर देते हैं !!
और कहते हैं-मानते हैं स्वयम् को गुरु के शरणागत और भगवान के शरणागत !!!!
किस काम की हैं ऐसी शरणागति जिसमें गुरु-आज्ञापालन नाम की कोई वस्तु या नियम ही नही हैं???
करना तो चाहिये ये चिन्तन कि अपने प्राणवल्लभ हरि-गुरु पर सर्वस्व न्यौछावर कर दूॅ,और करते हैं ये चिन्तन कि कैसे सम्पत्ति बढ़ाई जाये और बेटा-बेटी-नाती-पोते आदि के लिये छोड़कर जाये, पता नही हमारे बाद इनका क्या होगा???
धन्य हैं ऐसी भगवद्भक्ति/गुरुभक्ति जहाॅ बाते तो ऐसी होती हैं कि हमारे तो बस गुरु जी और ठाकुर जी ही है, सब कुछ उन्ही का हैं उन्ही के लिये हैं आदि आदि और क्रिया होती है बिलकुल इसके विपरीत संसारी माॅ-बाप हमारे हैं, बीवी हमारी है, पति हमारा है, बेटा हमारा है, धन हमारा हैं और ये हमारे लिये ही हैं किसी अन्य के लिये नही !!!!!!
इन सब आफतो और भक्तिमार्ग की रूकावटो से बचाने के लिये ही भगवान अपनी ओर चलने वाले सच्चे प्रेमपिपासु जीव का सब कुछ बरबस छीन लेते हैं (शारीरिक आवश्यकतो के समान के अतिरिक्त) ।
तो ये तो भगवान की अकारण कृपा ही हैं शरणागत जीवो के ऊपर ।
★★★जय जय श्रीराधे★★★
No comments:
Post a Comment