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।।श्री हरि: शरणम्।।
'साधन-पथ में गुरु' में यह
चर्चा की गई थी कि साधन-पथ के लिए
शरीरी गुरु अनिवार्य नहीं है।
साथ ही यह भी कहा गया था कि संतों से
सुना है कि हममें यदि साधन-पथ पर चलने की,सत्य
से अभिन्न होने की तीव्र लालसा है और
शरीरी गुरु की आवश्यकता
है तो हमें उन्हें नहीं ढूढ़ना पड़ेगा,सद्गुरु हमें स्वयँ
ही ढूँढ़ लेंगे और आवश्यक मार्ग-दर्शन करा देंगे।
संतशिरोमणि स्वामी शरणानन्द जी के
जीवन का उनका स्वयं का अनुभव, इस प्रकरण में
प्रासंगिक है। वही यहाँ प्रस्तुत है:-
''स्वामी शरणानन्दजी के साधना-काल में
उनके सद्गुरु का शरीर शान्त होने का समय आया।
स्वामी जी महाराज ने सद्गुरु से
कहा-'आपका शरीर कुछ काल और रह जाता तो
मेरी साधना के लिए अच्छा रहता।' यह सुनकर
श्री गुरुदेव ने उत्तर दिया कि ''ऐसा क्यों सोचते हो? मेरे
अनेकों शरीर है, तुम्हें जब आवश्यकता
होगी मैं मिल जाऊॅंगा।''
''सद्गुरु के सद्शिष्य ने गुरुवाणी को गाँठ बाँध लिया।
उसके बाद अनेकों बार का अनुभव उन्होंने सुनाया है कि साधन की दृष्टि से जब-जब स्वामी जी के दिल में कोई
प्रश्न् उठता, तत्काल कोई न कोई संत मिल जाते और समाधान कर
जाते। श्री महाराज जी को यह पक्का
अनुभव हो गया कि उनके सद्गुरु के अनेकों शरीर हैं
और किसी न किसी रूप में वे मार्गदर्शन
कर देते हैं। इतना निश्चय होते ही
स्वामी जी महाराज निश्चिन्त हो गये।''
''एक समय एक समस्या को लेकर गंगा जी के तट
पर अकेले बैठै थे। गुरुदेव की याद आई।
श्री स्वामी जी ने तुरन्त सोच
लिया कि जब अनेकों शरीर गुरुदेव के हैं तो यह
शरीर भी तो उन्हीं का है।
किसी भी शरीर के माध्यम से
जब वे मार्ग दिखा सकते हैं,तो यह शरीर
भी तो उनका ही अपना है। इसके माध्यम
से भी वह मेरी मदद कर सकते हैं।
इतनी बात ध्यान में आने भर की देर
थी कि समस्या हल होने में देर नहीं
लगी।''?
''फिर तो गुरु-तत्व को अपने ही में विद्यमान जानकर,
ब्राह्य गुरु की आवश्यकता को ही
उन्होंने समाप्त कर दिया। शरीर के लिए संसार का
आश्रय तो वे पहले ही छोड़ चुके थे,अब गुरु-तत्व
को स्वयँ में ही विद्यमान जानकर इस दिशा में
भी वह सर्वथा स्वाधीन हो गये।
भीतर बाहर परमानन्द छा गया।''
गुरु के सम्बन्ध में एक प्रश्नोत्तर भी महत्वपूर्ण
है। एक साधक ने पूछा:-
प्रश्न्: गुरु की पूजा करनी चाहिए क्या?
उत्तर: पूजा-प्रार्थना सब परमात्मा के साथ करने
वाली बात है। गुरु परमात्मा का बाप हो सकता
है,परमात्मा नहीं। हाँ,गुरु-वाक्य,ब्रह्म-वाक्य हो
सकता है। गुरु श्रध्दास्पद हो सकता है,प्रेमास्पद
नहीं। व्यक्ति को यदि परमात्मा मानना है तो सबको
मानो। सब में परमात्मा है। गुरु साधन रूप हो सकता है, साध्य
नहीं।
📝sprai
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Tuesday, 15 March 2016
साधन पथ में गुरु 2 शरणानन्द जी
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