भक्त : प्रिय स्वामीजी ! यह कहना आसान है कि -"मन को गिरा दें ,और शांति प्राप्त होजायेगी "
अभ्यास में यह बहुत कठिन है .हम लोग गृहस्थ आश्रम में हैं और हमारे पत्नी और
बच्चें हैं ; ऑफिस और घर के कार्य हैं ,जिम्मेदारिया हैं . हमें अपने जीमेदारी निभाने के लिए
मन का उपयोग करना पड़ता है .जब हम परिस्थिति का सामना करते हैं ,हमकई बार
अशांत हो जाते हैं ,क्योंकि चीजें वैसे नहीं होती जैसी हमने योजना बनाई थी .इसीलिए
मैं महसूस करता हूँ कि जो लोग गृहस्थाश्रम में हैं ,उनके लिए मन को गिराना कठिन है .
स्वामीजी :कल मैं एक सन्यासी के यहाँ मिलने गया था ,जितनी देर उनके पास बैठा ,उतनी
देर तक उनका पैर हिलता रहा ,अर्थात वे अंदर से बहुत अशांत थे .
मैं उनकी मन कि स्थति पढ़ पा रहा था .
इतने अशांत तो गृहस्थ भी नहीं होते हैं .
सन्यासी हो या गृहस्थ दोनों के पास मन है .
जब तक इस मन को "देखा " नहीं गया ,तब तक यह एक समस्या है .
मन एक यन्त्र है ,इससे ज्यादा कुछ नहीं .किन्तु हम इससे जुड़कर इसे "मैं "
मान लेते हैं .
एक यन्त्र तब तक समस्या है ,जब तक हमें इसकी कार्य शैली नहीं पता है .
जब हम यन्त्र की कार्य शैली का जागरूकता पूर्वक निरिक्षण करते हैं ,
तब आप को इसके कार्य करने का तरीका समझ में आजाता है .
फिर यह यन्त्र समस्या नहीं रहता है .
आपको मन को गिराना नहीं है ,आपको मन का निरिक्षण करना है ,
इसे निष्क्रिय भाव से बिना चुनाव के सिर्फ देखना मात्र है .
मन को कौन गिराएगा ?
मन मन को नहीं गिरा सकता .
आप सिर्फ इसे देखें ,विचारों और भावों को सिर्फ देखें ,उन्हें अपनी कहानी कहने दे.
मन स्वतः गिरता है ,जब आप इसे देखने लगते हैं .
"देखना " महत्वपूर्ण है ,मन का शांत होना महत्वपूर्ण नहीं ,शांति परिणाम है .
हम परिणाम को पहले चाहते हैं .
इस "देखने " को ही दृष्टभाव ,साक्षीभाव ,जागरूकता ,सजगता ,ज्ञान ,बोध
अथवा ध्यान कहते हैं .
मन जैसा है वैसा ही देखिये .
यदि एक सन्यासी मन को नहीं देखता है ,तो वह गृहस्थ है ,
जो गृहस्थ मन को देखता है ,वह सन्यासी है .
" देखना " मन और आत्मा के मध्य सेतु है , .
"साक्षीभाव" ही अज्ञान और ज्ञान के बीच का सेतु है .
अनदेखा मन ही समस्या है ,देखा हुआ मन ही शांत मन है .
"साक्षी भाव" अ-मन अवस्था है .
Wednesday, 30 March 2016
मन के दृष्टा हो जाइये तब शांति मिलेगी
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