Wednesday, 30 March 2016

तो हम जटिल हो जाएंगे

!! तो हम जटिल हो जाएंगे !!

एक रात, एक सराय में, एक फकीर आया।
सराय भरी हुई थी, रात बहुत बीत चुकी थी
और उस गांव के दूसरे मकान बंद हो चुके थे
और लोग सो चुके थे।
सराय का मालिक भी सराय को बंद करता था,
तभी वह फकीर वहां पहुंचा और उसने कहा,
कुछ भी हो, कहीं भी हो,
मुझे रात भर टिकने के लिए जगह चाहिए ही।
इस अंधेरी रात में अब मैं कहां खोजूं और कहां जाऊं!
सराय के मालिक ने कहा, ठहरना तो हो सकता है,
लेकिन अकेला कमरा मिलना कठिन है।
एक कमरा है, उसमें एक मेहमान अभी—अभी आकर ठहरा है,
वह जागता होगा,
क्या तुम उसके साथ ही उसके कमरे में सो सकोगे?
वह फकीर राजी हो गया।
एक कमरे में दो मेहमान ठहरा दिए गए।
वह फकीर अपने बिस्तर पर लेट गया,
न तो उसने अपने जूते खोले,
न अपनी टोपी निकाली,
वह सब कपड़े पहने हुए लेट गया।
दूसरा आदमी जो वहां ठहरा हुआ था,
उसे हैरानी भी हुई,
लेकिन अपरिचित आदमी से कुछ कहना ठीक न था,
वह चुप रहा।
लेकिन वह फकीर जो टोपी पहने ही सो गया था,
वह करवटें बदलने लगा और नींद आनी उसे कठिन हो गई।
दूसरे मेहमान के बर्दाश्त के बाहर हो गया
और उसने कहा, महानुभाव,
ऐसे तो रात भर नींद नहीं आएगी, आप करवट बदलते रहेंगे।
कृपा करके जूते उतार दें, कपड़े उतार दें, फिर ठीक से सो जाएं।
थोड़े सरल हो जाएं तो शायद नींद आ भी जाए।
इतने जटिल होकर सोना बहुत मुश्किल है।
उस फकीर ने कहा, मैं भी यही सोचता हूं।
लेकिन अगर मैं कमरे में अकेला होता तो
कपड़े निकाल देता,
तुम्हारे होने की वजह से मैं बहुत मुश्किल में हूं!
उस आदमी ने कहा,
इसमें क्या मुश्किल की बात है?
वह फकीर कहने लगा,
मुश्किल यह है कि अगर मैं कपड़े निकाल कर सो गया,
तो सुबह मेरी नींद खुलेगी,
मैं यह कैसे पहचानूंगा कि मैं कौन हूं?
मैं अपने कपड़ों से ही खुद को पहचानता हूं।
यह कोट मेरे ऊपर है, तो मुझे लगता है कि मैं मैं ही हूं।
यह पगड़ी मेरे सिर पर है,
तो मैं जानता हूं कि मैं मैं ही हूं।
इस पगड़ी, इस कोट को पहने हुए
आईने के सामने खड़ा होता हूं तो
पहचान लेता हूं कि मैं मैं ही हूं।
अगर कमरे में अकेला होता तो
कपड़े निकाल कर सो जाता,
बदलने का कोई डर न था।
लेकिन सुबह मैं उठूं तो मैं कैसे पहचानूंगा कि
मैं कौन हूं और तुम कौन हो?
वह आदमी कहने लगा,
बड़े पागल मालूम होते हो!
तुम जैसा पागल मैंने कभी नहीं देखा!
वह फकीर कहने लगा,
तुम मुझे पागल कहते हो!
मैंने दुनिया में जो भी आदमी देखा,
वह अपने कपड़ों से ही
अपने को पहचानता हुआ देखा है।
अगर मैं पागल हूं तो सभी पागल हैं।
आप भी अपने को कपड़ों के अलावा
और किसी चीज से पहचानते हैं?
कपड़े बहुत तरह के हैं—नाम भी एक कपड़ा है,
जाति भी एक कपड़ा है, धर्म भी एक कपड़ा है।
मैं हिंदू हूं मैं मुसलमान हूं?
मैं जैन हूं— ये भी कपड़े हैं,
ये भी बचपन के बाद पहनाए गए हैं।
मेरा यह नाम है,
मेरा वह नाम है— ये भी कपड़े हैं,
ये भी बचपन के बाद पहनाए गए हैं।
इन्हीं को हम सोचते हैं अपना होना?
तो हम जटिल हो जाएंगे,
तो हम जटिल हो ही जाएंगे।

💞💞

➡जीवन रहस्य–(प्रवचन–12)

अहंकार मरता है , शरीर जलता है । ओशो

अहंकार मरता है...शरीर जलता है

ऐसा कहते हैं कि नानक देव जी जब आठ वर्ष के थे तब पहली बार अपने घर से अकेले निकल पड़े, सब घर वाले और पूरा गाँव चिंतित हो गया तब शाम को किसी ने नानक के पिता श्री कालू मेहता को खबर दी कि नानक तो श्मशान घाट में शांत बैठा है। सब दौड़े और वाकई एक चिता के कुछ दूर नानक बैठे हैं और एक अद्भुत शांत मुस्कान के साथ चिता को देख रहे थे, माॅ ने तुरंत रोते हुए गले लगा लिया और पिता ने नाराजगी जताई और पूछा यहां क्यों आऐ। नानक ने कहा पिता जी कल खेत से आते हुए जब मार्ग बदल कर हम यहां से जा रहे थे और मैंने देखा कि एक आदमी चार आदमीयो के कंधे पर लेटा है और वो चारो रो रहे हैं तो मेरे आपसे पूछने पर कि ये कौन सी जगह हैं, तो पिताजी आपने कहा था कि ये वो जगह है बेटा जहां एक न एक दिन सबको आना ही पड़ेगा और बाकी के लोग रोएगें ही।
बस तभी से मैनें सोचा कि जब एक दिन आना ही हैं तो आज ही चले और वैसे भी अच्छा नही हैं लगता अपने काम के लिए अपने चार लोगो को रूलाना भी और कष्ट भी दो उनके कंधो को , तो बस यही सोच कर आ गया।
तब कालू मेहता रोते हुए बोले नानक पर यहां तो मरने के बाद आते हैं इस पर जो आठ वर्षीय नानक बोले वो कदापि कोई आठ जन्मो के बाद भी बोल दे तो भी समझो जल्दी बोला
" नानक ने कहा पिता जी ये ही बात तो मैं सुबह से अब तक मे जान पाया हूं कि लोग मरने के बाद यहां लाए जा रहे हैं , अगर कोई पूरे चैतन्य से यहां अपने आप आ जाऐ तो वो फिर कभी मरेगा ही नही सिर्फ शरीर बदलेगा क्योंकि मरता तो अंहकार है और जो यहां आकर अपने अंहकार कि चिता जलाता है वो फिर कभी मरता ही नही मात्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
इसीलिए उन्होंने अमर वचन कहे जप जी साहिब  |

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➡"एक ओंकार सतनाम "

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वास्तविक सुख पुस्तक से स्वामी जी

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

एक आसक्ति होती है और एक प्रेम होता है । किसीसे हम अपने लिये स्नेह करते हैं, वह ‘आसक्ति’ होती है, राग होता है । रागसे ही कामना, इच्छा, वासना होती है, जो पतन करनेवाली, नरकोंमें ले जानेवाली है । जिसमें दूसरोंको सुख देनेका भाव होता है, वह ‘प्रेम’ होता है । आसक्तिमें लेना होता है और प्रेममें दूसरोंको देना होता है । दूसरोंको सुख देनेकी ताकत मनुष्यमें है । भगवान्‌ने मनुष्यको इतनी ताकत दी है कि वह दुनियामात्रका हित कर सकता है और अपना कल्याण कर सकता है । इतना ही नहीं, मनुष्य भगवान्‌की आवश्यकताकी पूर्ति भी कर सकता है, भगवान्‌के माँ-बाप भी बन सकता है, भगवान्‌का गुरु भी बन सकता है, भगवान्‌का मित्र भी बन सकता है और भगवान्‌का इष्ट भी बन सकता है ! अर्जुनको भगवान्‌ कहते हैं‒ ‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’ (गीता १८/६४) ।

जैसे लड़का अलग हो जाय तो माँ-बाप चाहते हैं कि वह हमारे पास आ जाय, ऐसे ही यह जीव भगवान्‌से अलग हो गया है, इसलिये भगवान्‌को भूख है कि यह मेरी तरफ आ जाय ! इस भूखकी पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है, दूसरा कोई नहीं । मनुष्य ही भगवान्‌से प्रेम कर सकता है । देवता तो भोगोंमें लगे हैं, नारकीय जीव बेचारे दुःख पा रहे हैं, चौरासी लाख योनियोंवाले जीवोंको पता ही नहीं कि क्या करें और क्या नहीं करें ? इतना ऊँचा अधिकार प्राप्त करके भी मनुष्य दुःख पाता है तो बड़े भारी आश्चर्यकी बात है ! होश ही नहीं है कि मेरेमें कितनी योग्यता है और भगवान्‌ने मेरेको कितना अधिकार दिया है ! मैं कितना ऊँचा बन सकता हूँ, यहाँतक कि भगवान्‌का भी मुकुटमणि बन सकता हूँ ! आप कृपा करके ध्यान दो कि कितनी विलक्षण बात है ! जितने भक्त हुए हैं मनुष्योंमें ही हुए हैं और इतने ऊँचे दर्जेके हुए हैं कि भगवान्‌ भी उनका आदर करते हैं ! लोग संसारके आदरको ही बड़ा समझते हैं, पर भक्तोंका आदर भगवान्‌ करते हैं, कितनी विलक्षण बात है ! सारथी बन जायँ भगवान्‌ ! नौकर बन जायँ भगवान्‌ ! झूठन उठायें भगवान्‌ ! घरका काम-धंधा करें भगवान्‌ ! जिस तरहसे माता अपने बच्चेका पालन करके प्रसन्न होती है, इसी तरहसे भगवान्‌ भी अपने भक्तका काम करके प्रसन्न होते हैं । 

‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

निर्दोषता की मांग

सन्तवाणी
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानंदजी महाराज

यह सभी का अनुभव है कि अपराध करने पर जब उसे भय होता है, तब उसमें स्वभाव से ही यह संकल्प उत्पन्न होता है कि  'अब मैं भूल नहीं करूँगा'। इस स्वाभाविक प्रेरणा से यह सिद्ध हो जाता है कि अपराध करने से पूर्व व्यक्ति निरपराध था और अब भी निरपराध रहना चाहता है । आदि और अन्त में निर्दोषता ही निर्दोषता है । मध्य में उत्पन्न किये दोषों के आधार पर आदि और अन्त में सदैव रहने वाली निर्दोषता मिट नहीं सकती । यदि किसी प्रकार निर्दोषता मिट जाती, तो जीवन में उसकी माँग ही न होती । किन्तु निर्दोषता की माँग मानव-मात्र के जीवन में रहती है ।

ध्यान क्या है ?

ध्यान क्या है❓

इस छोटी सी घटना को समझें। चांग चिंग के संबंध में कहा जाता है, वह बड़ा कवि था, बड़ा सौंदर्य-पारखी था। कहते हैं, चीन में उस जैसा सौंदर्य का दार्शनिक नहीं हुआ। उसने जैसे सौंदर्य-शास्त्र पर, एस्थेटिक्स पर बहुमूल्य ग्रंथ लिखे हैं, किसी और ने नहीं लिखे। वह जैसे उन पुराने दिनों का क्रोशे था। बीस साल तक वह ग्रंथों में डूबा रहा। सौंदर्य क्या है, इसकी तलाश करता रहा।
एक रात, आधी रात, किताबों में डूबा-डूबा उठा, पर्दा सरकाया, द्वार के बाहर झाँका-पूरा चांद आकाश में था। चिनार के ऊंचे दरख्त जैसे ध्यानस्थ खड़े थे। मंद समीर बहती थी। और समीर पर चढ़कर फूलों की गंध उसके नासापुटों तक आयी। कोई एक पक्षी, जलपक्षी जोर से चीखा, और उस जलपक्षी की चीख में कुछ घटित हुआ-कुछ घट गया। चांग चिंग अपने आपसे ही जैसे बोला-हाउ मिस्टेकन आइ वाज! हाउ मिस्टेकन आइ वाज! रेज द स्क्रीन एंड सी द वर्ल्ड। कैसी मैं भूल में भरा था! कितनी भूल में था मैं! पर्दा उठाओ और जगत को देखो! बीस साल किताबों में से उसे सौंदर्य का पता न चला। पर्दा हटाया और सौंदर्य सामने खड़ा था, साक्षात।

तुम पूछते हो, ‘ध्यान क्या है?’
ध्यान है पर्दा हटाने की कला। और यह पर्दा बाहर नहीं है, यह पर्दा तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम्हारे अंतस्तल पर पड़ा है। ध्यान है पर्दा हटाना। पर्दा बुना है विचारों से। विचार के ताने-बानों से पर्दा बुना है। अच्छे विचार, बुरे विचार, इनके ताने-बाने से पर्दा बुना है। जैसे तुम विचारों के पार झांकने लगो, या विचारों को ठहराने में सफल हो जाओ, या विचारों को हटाने में सफल हो जाओ, वैसे ही ध्यान घट जाएगा। निर्विचार दशा का नाम ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है, ऐसी कोई संधि भीतर जब तुम तो हो, जगत तो है और दोनों के बीच में विचार का पर्दा नहीं है। कभी सूरज को ऊगते देखकर, कभी पूरे चांद को देखकर, कभी इन शांत वृक्षों को देखकर, कभी गुलमोहर के फूलों पर ध्यान करते हुए-तुम हो, गुलमोहर है, सजा दुल्हन ही तरह, और बीच में कोई विचार नहीं है। इतना भी विचार नहीं कि यह गुलमोहर का वृक्ष है, इतना भी विचार नहीं; कि फूल सुंदर हैं, इतना भी विचार नहीं-शब्द उठ ही नहीं रहे हैं-अवाक, मौन, स्तब्ध तुम रह गए हो, उस घड़ी का नाम ध्यान है।
पहले तो क्षण-क्षण को होगा, कभी-कभी होगा, और जब तुम चाहोगे तब न होगा, जब होगा तब होगा। क्योंकि यह चाह की बात नहीं, चाह में तो विचार आ गया। यह तो कभी-कभी होगा।
इसलिए ध्यान के संबंध में एक बात खयाल से पकड़ लेना, खूब गहरे पकड़ लेना-यह तुम्हारी चाहत से नहीं होता है। यह इतनी बड़ी बात है कि तुम्हारी चाहने से नहीं होती है। यह तो कभी-कभी, अनायास, किसी शांत क्षण में हो जाती है।

तो हम करें क्या? ध्यान के लिए हम करें क्या? यही शायद तुमने पूछना चाहा है कि ध्यान क्या है? कैसे करें?
ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौड़धाप से थोड़ी देर के लिए रुक जाएं, घड़ी भर को चौबीस घंटे में सब आपाधापी छोड़ दें। लेकर तकिया निकल गए, लेट गए लान पर, टिक गए वृक्ष के साथ, आंखें बंद कर लीं; पहुंच गए नदी तट पर, लेट गए रेत में, सुनने लगे नदी की कलकल। मंदिर-मस्जिद जाने को मैं कह ही नहीं रहा हूं, क्योंकि पत्थरों में कहां ध्यान! तुम जीवंत प्रकृति को खोजो। इसलिए बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा, जंगल चले जाओ। वहां प्रकृति नाचती चारों तरफ। चौबीस घंटे वहां रहोगे, कितनी देर तक बचोगे, कभी न कभी-तुम्हारे बावजूद-किसी क्षण में अनायास प्रकृति तुम्हें पकड़ लेगी। एक क्षण को संस्पर्श हो जाएं, एक क्षण को द्वार खुल जाएं, एक क्षण को पर्दा हट जाए, तो ध्यान का पहला अनुभव हुआ।

ध्यान को सीधा-सीधा नहीं किया जाता, बाधा न दो। इसीलिए तो मैं कहता हूं, नाचो, गाओ। नाचने और गाने में तुम लीन हो जाओ, अचानक तुम पाओगे, हवा के झोंके की तरह ध्यान आया, तुम्हें नहला गया, तुम्हारा रोआं-रोआं पुलकित कर गया, ताजा कर गया। धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे इस कला को-ध्यान का कोई विज्ञान नहीं है, कला है। धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे कि किन घड़ियों में ध्यान घटता है, उन घड़ियों में मैं कैसे अपने को खुला छोड़ दूं। जैसे ही तुम इतनी सी बात सीख गए, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गयी।

इसलिए मेरे सूत्र अनूठे हैं। मैं तुमसे कहता हूं, जब तुम्हारा मन बहुत सुखी मालूम पड़े। कोई मित्र आया है, बहुत दिनों बाद मिले हैं, गले लगे हैं, गपशप हुई है, मन ताजा है, हलका है, खूब प्रसन्न हो तुम, इस मौके को छोड़ना मत। बैठ जाना एकांत में। इस घड़ी में सुख का सुर बज रहा है, परमात्मा बहुत करीब है।

सुख का अर्थ ही होता है, जब तुम्हारे जाने-अनजाने परमात्मा करीब होता है; चाहे जानो, चाहे न जानो! सुख जब तुम्हारे भीतर बजता है, तो उसका अर्थ हुआ कि परमात्मा तुमसे बहुत करीब आ गया। तुम किसी अनजाने मार्ग से घूमते-घूमते परमात्मा के पास पहुंच गए हो, मंदिर करीब है, इसीलिए सुख बज रहा है। इस घड़ी को चूकना मत। इसी घड़ी में तो जल्दी से खोजना, कहीं किनारे पर ही, हाथ के बढ़ाने से ही मंदिर का द्वार मिल जाएगा।

यहूदियों में एक कथा है कि जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो देवता आते हैं और उस बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हैं; ताकि वह भूल जाए उस सुख को जो सुख परमात्मा के घर उसने जाना था, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी-दयावश ऐसा करते हैं वे, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी। अगर वह सुख याद रहे, तो बड़ी कठिन हो जाएगी, तुलना में। तुम फिर कुछ भी करो, व्यर्थ मालूम पड़ेगा। धन कमाओ, पद कमाओ, सुंदर से सुंदर पत्नी और पति ले आओ, अच्छे से अच्छे बच्चे हों, बड़ा मकान हो, कार हो, कुछ भी सार न मालूम पड़ेगा, अगर वह सुख याद रहे। तो यहूदी कथा कहती है कि एक देवता उतरता है करुणावश और हर बच्चे के माथे पर सिर्फ हाथ फेर देता है। उस हाथ के फेरते ही पर्दा बंद हो जाता है, उसे भूल जाता है परमात्मा। सुख भूल गया, फिर यह जीवन के दुखों में ही सोचने लगता है, सुख होगा।
उस पर्दे को फिर से खोलना है, जो देवताओं ने बंद कर दिया है। मुझे तो नहीं लगता कि कोई देवता बंद करते हैं। देवता ऐसी मूढ़ता नहीं कर सकते। लेकिन समाज बंद कर देता है। शायद कहानी उसी की सूचना दे रही है। मां-बाप, परिवार, समाज, स्कूल बंद कर देते हैं, पर्दे को डाल देते हैं। ऐसा डाल देते हैं कि तुम भूल ही जाते हो कि यहां द्वार है, तुम समझने लगते हो दीवार है। ध्यान का अर्थ है, इस पर्दे को हटाना।
और इसे अनायास होने दो, इसे कभी-कभी तुम्हें पकड़ लेने दो-और जब तुम्हें यह तरंग पकड़े तो लाख काम छोड़कर बैठ जाना। क्योंकि इससे बहुमूल्य कोई और काम ही नहीं है। रात हो कि दिन, सुबह हो कि सांझ, फिर मत देखना। कुछ चूकोगे नहीं तुम, कुछ खोएगा नहीं। और अपूर्व होगी तुम्हारी संपदा फिर। और यह संपदा तुम्हारे भीतर पड़ी है, बस पर्दा हटाने की बात है

➡ध्यान–सूत्र

💞ओशो💞

मन के दृष्टा हो जाइये तब शांति मिलेगी

भक्त : प्रिय स्वामीजी ! यह कहना आसान है कि -"मन को गिरा दें ,और शांति प्राप्त होजायेगी "
           अभ्यास में यह बहुत कठिन है .हम लोग गृहस्थ आश्रम में हैं और हमारे पत्नी और
            बच्चें हैं ; ऑफिस और घर के कार्य हैं ,जिम्मेदारिया हैं . हमें अपने जीमेदारी निभाने के लिए   
            मन  का उपयोग करना पड़ता है .जब हम परिस्थिति का सामना करते हैं ,हमकई बार
           अशांत हो जाते हैं ,क्योंकि चीजें वैसे नहीं होती जैसी हमने योजना बनाई थी .इसीलिए
           मैं महसूस करता हूँ कि जो लोग गृहस्थाश्रम में हैं ,उनके लिए मन को गिराना कठिन है .
स्वामीजी :कल मैं एक सन्यासी के यहाँ मिलने गया था ,जितनी देर उनके पास बैठा ,उतनी
               देर तक उनका पैर हिलता रहा ,अर्थात वे अंदर से बहुत अशांत थे .
               मैं उनकी मन कि स्थति पढ़ पा रहा था .
               इतने अशांत तो गृहस्थ भी नहीं होते हैं .
               सन्यासी हो या गृहस्थ दोनों के पास मन है .
               जब तक इस मन को "देखा " नहीं गया ,तब तक यह एक समस्या है .
               मन एक यन्त्र है ,इससे ज्यादा कुछ नहीं .किन्तु हम इससे जुड़कर इसे "मैं "
               मान लेते हैं .
               एक यन्त्र तब तक समस्या है ,जब तक हमें इसकी कार्य शैली नहीं पता है .
               जब हम यन्त्र की कार्य शैली का जागरूकता पूर्वक निरिक्षण करते हैं ,
                तब आप को इसके कार्य करने का तरीका समझ में आजाता है .
                फिर यह यन्त्र समस्या नहीं रहता है .
                आपको मन को गिराना नहीं है ,आपको मन का निरिक्षण करना है ,
                इसे  निष्क्रिय भाव से बिना चुनाव के सिर्फ देखना मात्र है .
                मन को कौन गिराएगा ?
                मन मन को नहीं गिरा सकता .
                आप सिर्फ इसे देखें ,विचारों और भावों को सिर्फ देखें ,उन्हें अपनी कहानी कहने दे.
                मन स्वतः गिरता है ,जब आप इसे देखने लगते हैं .
                "देखना " महत्वपूर्ण है ,मन का शांत होना महत्वपूर्ण नहीं ,शांति परिणाम है .
                हम परिणाम को पहले चाहते हैं .
                इस "देखने " को ही दृष्टभाव ,साक्षीभाव ,जागरूकता ,सजगता ,ज्ञान ,बोध
                अथवा ध्यान कहते हैं .
                मन जैसा है वैसा ही देखिये .
                यदि एक सन्यासी मन को नहीं देखता है ,तो वह गृहस्थ है ,
                जो गृहस्थ मन को देखता है ,वह सन्यासी है .
                " देखना " मन और आत्मा के मध्य सेतु है , .
                 "साक्षीभाव" ही अज्ञान और ज्ञान के बीच का सेतु है .
                  अनदेखा मन ही समस्या है ,देखा हुआ मन ही शांत मन है .
                 "साक्षी भाव" अ-मन अवस्था है .

मैं शांति कैसे प्राप्त कर सकता हूँ ? महर्षि रमण

शिष्य : मैं शांति कैसे प्राप्त कर सकता हूँ ? आत्म-विचार द्वारा इसकी प्राप्ति मेरी पहुँच के बाहर
          लगता है .
महर्षि रमण: शांति आपकी सहज अवस्था है .यह मन ही जो सहज अवस्था का अवरोधक है .
                  आपका आत्मविचार केवल मन में चलता है .खोज करें [देखें] कि  मन क्या क्या
                  है ,तब यह विलुप्त हो जायेगा .विचार के अतिरिक्त मन जैसी कोई चीज ही नहीं
                  है .फिर भी विचार के उदित होने पर आप निष्कर्ष निकलते हैं कि जिससे यह
                  उत्पन्न हुआ ,वह मन है .
                  जब आप देखने का प्रयत्न करते हैं कि यह मन क्या है तो आपको मालूम पड़ता
                  है कि वास्तव में मन जैसी कोई चीज है ही नहीं .मन जब इस प्रकार विलुप्त हो
                  जाता है तो आप शाश्वत शांति अनुभव करते हैं .[शांति और आनंद -महर्षि वचनामृत ]

मन किसे कहते है ? क्या हम मन से मुक्त होकर ,उसके मालिक होकर जीवन जी सकते हैं ?

प्रश्न : स्वामीजी ! मन किसे कहते हैं ?
स्वामीजी : विचारों के प्रवाह और भावनाओं के समुच्चय को मन कहते हैं
प्रश्न : क्या हम मन से मुक्त होकर ,उसके मालिक होकर जीवन जी सकते हैं ?
स्वामीजी : मन को साक्षी भाव से देखने से हम मन से मुक्त होकर ,मन के मालिक
                बनते हैं .इस प्रक्रिया को ही ध्यान -समाधी कहते हैं .

आवश्यक साधन के सदुपयोग से ही भगवत् प्राप्ति सम्भव है

आज, अभी ,इसी समय हम योग्य हैं । भगवत् मिलन या भगवत् प्राप्ति को ।
स्वभाविक प्राप्त अवस्था से ही ऐसा सम्भव है ।
अगर कोई कहे बिना परिक्रमा वह नहीँ मिलते तब तो जिन्हें पैर ना मिलें उनके संग अन्याय हुआ न।
जबकि प्राप्त वस्तु , स्थिति, समय, स्थान , व्यवस्था में ही प्राप्ति होगी ।
अधिकत्तर कॉपी पेस्ट फॉर्मूला अपनाया जाता है । जो कि अनुचित है , क्योंकि आवश्यक सभी वस्तु प्राप्त है । हाँ , कर्तव्य का अभाव है और अप्राप्त की लालसा , प्राप्त साधन से कर्त्तव्य निभाएं जावे तब साधन स्वतः प्राप्त होंगे आवश्यक कर्त्तव्य हेतु ।
असमर्थता हो या भय हो , उस स्थिति में व्यर्थ चिन्ता छोड़ करने योग्य कार्य करने से समर्थता और निर्भयता स्वतः होती है ।
अब तक प्राप्त काल-वस्तु आदि का सदुपयोग ना होने से ही स्वधर्म पथ छुटता है ।
सभी साधनों का मेरा ना जान किया सदुपयोग सहज जीवन यात्रा है , साधनों से आसक्ति और संग्रह और उनके लिये मिथ्या अभिमान से दोष का स्वरूप गहरा होता है ।
अपने बल को निर्बल का बल जान लेने से , बल को निर्बल को समर्पित करने से बल में अपना अभिमान नहीँ रहता और चित्त शुद्धि होती है ।
अर्थात् प्राप्त बल और यश - श्री को जिन्हें प्राप्त नहीँ उनकी ही वस्तु जानना ।
जैसा हाथी - बैल आदि बल का सदुपयोग कर असमर्थ को समर्थता देते है ।

कर्मफलों से मुक्त कैसे हों ? हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं पर उसके फल क्यों नहीं मिलते ? हम कौन हैं ? हमारा परम धर्म क्या है ?

(1) कर्मफलों से मुक्त कैसे हों ?
(2) हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं पर उसके फल क्यों नहीं मिलते ?
(3) हम कौन हैं ? हमारा परम धर्म क्या है ?
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(1) कर्मफलों से मुक्त कैसे हों ? यह एक ऐसा विषय है जिसे बौद्धिक धरातल पर समझना तो सबसे आसान है, पर करना सबसे अधिक कठिन कार्य है|
शरणागति द्वारा परमात्मा को पूर्ण समर्पित होकर ही हम अपने अच्छे-बुरे सब कर्मों से मुक्त हो सकते हैं| यह समर्पण अपने अहंकार, मोह, कामनाओं, लोभ, और राग-द्वेष सभी का हो| यही मुक्ति है, और यही मोक्ष है|
जब कोई भी कार्य हमारे माध्यम से परमात्मा के लिए ही, परमात्मा को समर्पित होकर ही होता है, वह किसी भी प्रकार के बंधन का कारण नहीं बनता|
जो कार्य अपने इन्द्रीय सुख के लिए, अपने अहंकार कि तृप्ति के लिए होता है, वह ही बंधन का कारण होता है| हमारी सोच, हमारे विचार और हमारे भाव भी हमारे कर्म ही हैं, जो हमारे खाते में जुड़ जाते हैं|
यही है कर्मफलों का रहस्य और मुक्ति का उपाय जो समझने में सर्वाधिक सरल है, पर करने में सर्वाधिक कठिन है|
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(2) हमारी प्रार्थनाओं के फल क्यों नहीं मिलते? यह भी समझना बहुत सरल है पर कार्य रूप में करना थोड़ा कठिन है|
हम अपने नित्य नियमित शास्त्रोक्त कर्म नहीं करते, इसीलिए न तो हमारी प्रार्थनाओं का कोई उत्तर मिलता है, और न ही किसी भी अनुष्ठान का फल मिलता है| समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है|
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(3) हम कौन हैं ? हमारा परम धर्म क्या है ?
हम सब परमात्मा की एक अभिव्यक्ति हैं जो कुछ समयके लिए यह देह बन गए हैं| इस देह से हमारा सम्बन्ध नश्वर है| यह देह एक साधन मात्र है|
सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी सृष्ट है व उससे परे जो भी है वह सब हम स्वयं ही हैं|
जिसे हम ढूँढ रहे हैं वह भी हम स्वयं ही हैं|
हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण चैतन्य हैं, सम्पूर्ण ब्रह्मांड हैं|
अपने आत्म-तत्व में स्थित होना ही हमारा परम धर्म है|
ॐ ॐ ॐ ||
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सब का कल्याण हो| सब सुखी हों|
ॐ नमः शिवाय | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
#कृपाशंकर चै.कृ.६ वि.सं.२०७२, #30March2016