आध्यात्मिकता की आवश्यकता है , पूर्ण रसमय स्वीकृति के लिये चेतना आंदोलित रहे ।
कुछ भूलें सर्व साधारण रूप से हमारे चित् में बैठ गई है । जिनकी निवृति आवश्यक है , देखिये गहराई से देखने में आया है व्यक्ति अपने इस जन्म और पिछले सभी जन्मों के दूषित संस्कार को नहीँ भूल पाता , और सत् को समझ नहीँ पाता । व्यक्ति आध्यात्मिक हो कर भी पूर्ण रूप से वहाँ नहीँ हो पाता जहाँ देह है , भटकता है , स्मृतियों में । अथवा देह को यहीँ भूल पूर्ण रूप से भगवत् चरणों में नहीँ हो पाता इसका कारण कि ईश्वर को अध्यात्म को कोरा कागज चाहिए और अभी कुछ लिखावट शेष है ।
मनुष्य रह रह कर बदलाव चाहता है , बदलता रहता है संसार को , अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को । इसे आधुनिकता कहते है , और वही आधुनिकता कल सड़ जाती है , खण्डहर-कबाड़ रह जाते है । आश्चर्य यें है कि जिस धारा को बदला गया वहीँ खण्डहर और 100 या 500 वर्ष तक के कबाड़ सुंदर लगने लगते है । इसे एंटिक आइटम कह मोडीफाई शब्द दिया जाता है , जबकि साफ़ तौर पर कबाड़ ही है यें ।
अध्यात्म में प्रतिक्रिया , प्रतिस्पर्धा और परिवर्तन नहीँ होना चाहिए । क्योंकि यें सभी जो हो रहा है 'जो परम् की इच्छा है उसके बाधक है' और तीनोँ ही कूटकूट कर भरी है , सर्वत्र । इन विषयोँ की बात भी नहीँ होती आश्चर्य है ।
परिवर्तन पर बात करते है हम , बदलाव संसार का नियम भी माने तो संसार का सूत्र अध्यात्म और भक्ति धर्म में क्यों ?
देखिये बदलने की जरूरत नहीँ , हाँ लौटने की होनी चाहिए , पहले शरीर के धर्म से मन तक , फिर आत्मा और फिर परमात्मा की ओर । या यूँ कहे आज से बचपन तक , फिर शिशुत्व की ओर और गहरा उतर विलिन हो जाने की ओर । जीवन में हमने जितने परिवर्तन किये उतने ही असली जो आप हो वो छुट गया । आज का जीवन कैसा भी सम्पन्न हो , परन्तु कल का बचपन सब के लिए सबसे सुंदर समय रहा । आज मनचाही हर सुविधा संग हो तो भी कल बचपन में कुछ कमियां भी थी तो भी सुंदरता और रस था । अनुभूत् करें , अतः लौटना है , बहुत फैलाया अब समेटना है । जानते है जब जन्म हुआ तब जैसा रस भीतर था वैसा आज जीवन में उतर जाएं तो संसार आपको ब्रह्मज्ञानी और महायोगी कहेगा । जबकि वो अवस्था है पूर्ण अबोधता की । किसी नन्हें शिशु में तलाशें कि क्या इतना सुकूँ आपको आज है , जितना तब था । अब विचारें कि कामनाओं ने कहा ला खड़ा किया । और एक मिनट आज अपने अबोध बचपन को जी कर देखिये , लौट कर देखिये ।
परिवर्तन उठता है , जो है उसे नकार और नई चाह से । झोपडी से , पक्का मकान , और फिर किसी दिन शीशमहल और शीशमहल में याद करतें झोपडी । और अचानक बाज़ार में दिखी झोपडी का चित्र , जिसकी कीमत वास्तविक झोपडी से कई गुणा ज्यादा है , और वहीँ अब टांग लिया शीशमहल में । यादें भी रह गई और ग़ुरूर भी रह गया । परन्तु अब शीशमहल भाता है उस झोपडी के चित्र की वजह से । जैसे कांच की गुड़िया में जीवन लौट आया हो ।
महानगरों और अमेरिका तक बसे लोगोँ का सुकूँ अटका है अपने गाँव में । किसी का तो वहीँ गाँव ऊर्जा केंद्र है जो कल अधूरा सा लगा और आप के क़दम प्लास्टिक के शहरों तक बढ़ गए । फिर भी यें अजीब यात्रा क्यों आपने की , यें यात्रा हुई कामना से , चाह से । और परिवर्तन हुए , पैदल से साइकल , फिर टू व्हीलर , फिर कार , फिर न्यू ब्रांडेड कार। और फिर वहीँ पैदल चलना जिसे कहते है वॉकिंग। यें कामनाओं की यात्रा और आपका लौटना या लौटने की चाह भर भी आपकी "असफलता" को कहता है । यानि जहाँ से चले वहीँ मन या आप लौट आये अर्थात् गलत सफ़र किया । क्योंकि मन को जो चाहिये वो ना मिला । वो सुख तो अध्यात्म और भगवत्प्रेम में है , मन जब अबोधता में खिला तब जहाँ वो खिला वहीँ उसकी मूल स्थिति थी । भागने में मूल भी गया और कुछ ना मिला । उसे वही तृप्ति मिलेगी जहाँ वो भीतर खिलने लगा था , ऐसे ही आत्मा , उसे भी वहीँ तृप्ति मिलेगी जहाँ से वो आई । आज अग़र आत्मा के धरातल पर आपका पग ना गिरा और मन के संग भाग रहे हो तो जब आत्मा के धरातल से खुद को देखोगें तो लाखो जन्म की और कितने ही युगों की दुरी आत्मा में मचल उठेगी ।
मन शरीर के संग संसार की वस्तु में सुख चाहता है और मूल सुख है आत्मा की चाह में , आत्मा जिसे चाहती है उसकी भनक जैसे ही मन को लगे तो यें पंख हीन पक्षी की तरह अपने अदृश्य प्रियतम् की स्मृतियों में जाने को उतावला हो जाएं ।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है , जितनी आवश्यक है उतना हो जाता है । परन्तु मानव अपनी बुद्धि से परिवर्तन कर देना चाहता है । और जब तक जगत में परिवर्तन की चाह है तब तक आत्म सुख न मिलेगा । क्योंकि इस परिवर्तन की चाह में ईश्वर की चाह को नकारना भी है । जीव को ईश्वर से प्रेम की ऊर्जा मिली है तो वहीँ सृजन की भी , और सृजन में खण्डन कर कर के सृजन करना अपनी ही ऊर्जा शक्ति से अपरिचितता है ।
प्रतिस्पर्धा भी बाधक है अध्यात्म और भगवत्प्रेम में , क्योंकि उसे किसी की सफलता , किसी के पथ , और तरीके से कष्ट है । अतः कोई प्रतिस्पर्धा न हो इस आत्मा के धरातल पर । जगत् में भी प्रतिस्पर्धा की चाह न हो , स्वभाविकता रहें । अग़र आप किसी की असफलता चाहते है तो कभी सफल और सुखी न होंगे क्योंकि कहीँ कोई और भी ऐसी चाह रखता ही है । आप अपना हाथ उनके (प्रभु) हाथ में दे चलते रहे , सफलता और असफलता की चाह ना हो । एक स्थिति ही रहें । यहीँ कर्मयोग है । परिस्थिति के परिवर्तन की चाह न उठे । स्पर्धा में मन ना रहे । और एक दिव्य स्थिति और किसी के भी प्रति मन में प्रतिक्रिया भी ना रहे । उसकी भावनाओं में ही स्वीकार्यता हो । यें कठिन है , फिर कभी इसकी चर्चा करेंगे । सत्यजीत "तृषित" । जय जय श्यामाश्याम ।।
Friday, 8 January 2016
परिवर्तन और प्रतिस्पर्धा न हो
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