दिव्य प्रेम ........
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(यहाँ जो मैं व्यक्त कर रहा हूँ ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं जो मेरी निजानुभूतियों पर आधारित हैं| यह मेरी अपेक्षा नहीं हैं कि कोई अन्य भी इन से सहमत हों| आप सब के अपने स्वतंत्र विचार है| आप सब मेरी ही अंतरात्मा हो| आप सब को मेरा पूर्ण प्रेम समर्पित है)
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भक्ति सूत्रों में 'परम प्रेम' को भक्ति के नाम से परिभाषित किया गया है| सभी संत महात्माओं ने जिन से भी मैं मिला हूँ सब ने अहैतुकी परम प्रेम पर ही जोर दिया है| सब ने कहा है कि प्रेम सदा अहैतुकी यानि unconditional बिना किसी शर्त के ही होना चाहिए| 'प्रेम' ही परमात्मा का द्वार है|
जहाँ कोई अपेक्षा, शर्त या माँग होती है तो वह 'प्रेम' नहीं अपितु एक व्यापार यानि business हो जाता है|
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पर मेरा प्रश्न यह है की क्या आप सचमुच किसी को प्रेम कर सकते हो?
यहाँ तो अहंकार आ गया कि "मैं" प्रेम का कर्ता हूँ या अन्य कोई है जो "मुझे" प्रेम करता है| शब्द "मैं" में अहंकार छिपा है और शब्द "मुझे" में भी एक अपेक्षा यानि माँग है|
मेरा अनुभव तो यह है कि अपने अंतर की गहराइयों में न तो आप सीमित होकर किसी को प्रेम कर सकते हो और न ही अपनी सीमितता में कोई अन्य आपको प्रेम कर सकता है|
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आप अपनी साधना में स्वयं प्रेममय यानि 'प्रेम' बन सकते हो| जब आप प्रेममय यानि प्रेम बन जाते हो तो आप उन क्षणों में परमात्मा के सचेतन अंश बन जाते हो क्योंकि भगवान स्वयं अनिर्वचनीय परम प्रेम हैं| फिर आपके प्रेम में सर्वस्व समाहित हो जाता है|
जैसे भगवान मार्तंड भुवन-भास्कर आदित्य अपना प्रकाश बिना किसी शर्त के सब को देते हैं वैसे ही आपका प्रेम पूरी समष्टि को प्राप्त होता है| फिर पूरी सृष्टि ही आपको प्रेम करने लगती है क्योंकि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रया होती है| फिर आप पाते हैं हैं कि वह समस्त प्रेम आप स्वयं हैं| आप स्वयं ही परमात्मा के प्रेम हैं जो अपनी सर्वव्यापकता में सर्वत्र समस्त सृष्टि में सब रूपों में व्यक्त हो रहे हैं|
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आप तो स्वयं ज्योतिषांज्योति हो, सारे सूर्यों के सूर्य हो, प्रकाशों के प्रकाश हो|
जैसे भगवान भुवन-भास्कर के समक्ष अन्धकार टिक नहीं सकता वैसे ही आपके परम प्रेम रूपी प्रकाश के समक्ष अज्ञान, असत्य और अन्धकार की शक्तियां नहीं टिक सकतीं|
आप अपनी पूर्णता को प्रकट करो| आपका प्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है|
आपकी पूर्णता ही सच्चिदानंद है, आपकी पूर्णता ही परमेश्वर है और अपनी पूर्णता में आप स्वयं ही परमात्मा हो| आप जीव नहीं अपितु साक्षात शिव हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ तत् त्वं असि | ॐ सोsहं ||
शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म || ॐ ॐ ॐ ||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव ||
कृपाशंकर
पौष शु. ४, वि.सं.२०७२| 13जनवरी2016
-----जयतु भारतम्, जयतु वैदिकी संस्कृतिः----.
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