विक्रम संवत् २०७२
पौष , द्वितीया , शुक्लपक्ष , सोमवार
!! श्रीकृपाशंकरेन्द्र गुरुभ्यो नमः !!
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: श्रीमद्भगवद्गीताजी के - “ अक्षरब्रह्मयोग ” :
: { ४ } :
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नारायण ! समस्त विभूतियों का अधिष्ठान प्रत्यगात्मा से अभिन्न है , यह जिसने साक्षात् अनुभव कर लिया वह कैवल्य को प्राप्त कर लेता है और जो विभूतियों वाले रूप का ही उपासक है वह शरीर छूटने पर ब्रह्मलोक प्राप्त करता है , यह भी भगवान् बताया । यह जो कहा गया कि जन्म - भर भावना करने के साथ ही देह छूटने काल में भी , अर्थात् ऐसी भयङ्कर परिस्थिति के अन्दर भी , जिसका परमात्म चिन्तन नहीं छूटता वही परम भाव को प्राप्त होता है , इसका अतिदेव करते हैं कि यह केवल परमात्मा के चिन्तन की ही बात नहीं है , जिस चीज़ का जन्मभर कोई चिन्तन करता है और फलस्वरूप अन्तकाल में भी उसकी वृत्ति बनती है , व्यक्ति उसी को प्राप्त करेगा ।
भगवान् कहते हैं –
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
अर्थात् हे कुन्तीनन्दन ! सदा जिसकी वासना का अभ्यास मन में डाला हुआ व्यक्ति प्राण छूटते समय जिस - जिस भी { चिराभ्यस्त } भाव को याद करते हुए शरीर छोड़ता है , उसी - उसी भाव को प्राप्त करते है ।
भगवान् के श्रीमुख हैं - " यं यं भावं " जिस - जिस भाव को अर्थात् देवता विशेष को , जिसकी भी साधक आराधना करता है " सदा तद्भावभावितः " उस देवता का भाव हमेशा रखने के कारण अन्तःकरण में उसी भाव की भावन दृढ होती है । इसलिये उसी भाव का स्मरण करते हुए , चिन्तन करते हुए " अन्ते कलेवरम् त्यजति " प्रारब्ध की परिसमाप्ति पर शरीर छोड़ता है । तब , जिसका उसने स्मरण किया है उसी - उसी भाव को , अपने इष्ट देवता को " एति " प्राप्त कर लेता है । जिसने विभूति सहित परमेश्वर को भी समझ लिया है उसके लिये तो भगवान् ने पूर्व श्लोक के द्वारा कहा था कि वह ब्रह्मलोक को जाएगा । जो अन्य देवता का भक्त है अर्थात् " मेरे अन्दर { परमात्मा के अन्दर } स्थित प्रत्यगात्मा से देवता भिन्न हैं " ऐसी अन्य दृष्टि वाला है , उसने विभूतियों के अधिष्ठान - रूप में परमात्मा का चिन्तन नहीं किया है, उसे अपने से अन्य ही समझता है । अधिकतर लोग ऐसे ही ही हैं । ऐसा उपासक देवलोक को ही प्राप्त होता है ।
नारायण ! भगवान् ने यहाँ नियम भी बता दिया कि व्यक्ति सदा जिस भावना से भावित हो गया , उस भाव को प्राप्त होगा क्योंकि अन्त में उसी का स्मरण होगा । जो किसी एक भाव की सदा भावना कर ही नहीं पाते , या करते ही नहीं हैं , कभी कुछ कर लिए , कमी कुछ और कर लिए , वे अत्यन्त विक्षिप्त अवस्था वाले होने से अन्तकाल में उनको स्मरण भी विक्षिप्त अवस्था के ही होते हैं और जो तृतीय मार्ग बतलाया गया है शास्त्रों में , उसे प्राप्त करते हैं अर्थात् जन्मते और मरते हैं । देवलोक को जाने के लिए , स्वर्ग लोक को जाने के लिए किसी एक भावना वाला होना अनिवार्य है । विक्षेप वाले को तो ज्योतिष्टोम आदि कर्म के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है । अतिकतर लोग इसी प्रकार के होते हैं कि जिस समय जो चीज़ सामने आती है , उस समय उसी में स्थिर हो जाते हैं । किसी एक भाव को लेकर सदा भावित नहीं रहते हैं । चूँकि अधिकतर लोग ऐसे हैं इसलिए यही जन्मते और मरते रहते हैं । ऊर्ध्व लोकों की प्राप्ति उनके लिए सम्भव ही नहीं है । इतना समझ लें कि कर्म से सुख - दुःख की प्राप्ति होती है परन्तु सुख - दुःख कहाँ , किस योनि में भोगा जाए , इसमें अन्तिम भावना बहुत काम कर जाती है ।
नारायण ! अन्तिम भावना कैसे होवे इसको भगवान् विधिमुख से बतलाते हुए कहते हैं –
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
अर्थात् इसलिये हर समय मेरा अनुस्मरण और युद्ध दोनों करो । मुझे अर्पित मन - बुद्धि वाले हुए निःसंशय मुझे ही प्राप्त करोगे ।
नारायण ! चूँकि अन्तिम भावना देहान्तर - प्राप्ति का कारण है , इसलिए सब कालों में जगने से लेकर जब तक सो न जाओ तब तक , जीवन - भर " मामनुस्मर " मेरे विभूति रूप का , सगुण रूप का स्मरण करो । सगुण रूप का स्मरण करते हुए सर्वकर्मत्याग की प्राप्ति नहीं है । इसलिए कहा " युध्य च " । " तेरे लिए जिस कर्म का विधान है वह कर । तू क्षत्रिय है और सामने धर्मयुद्ध प्राप्त हुआ है अतः इस समय युद्ध कर । सब समय मेरा स्मरण करते हुए युद्ध कर । " अर्जुन के लिए भगवान् ने कहा कि " युद्ध कर " , पर सबके लिए तात्पर्य है कि स्वधर्म करे । जो आपका स्वधर्म है , उसको करते हुए सब समय परमात्मा का स्मरण रखें । अधियज्ञ अधिभूत इत्यादि जो भाव पूर्व में बतलाए थे वे , कार्य करते हुए अपने शरीर में एवं सब चीजों के अन्दर भगवान् की विभूति का स्मरण कराते रहेंगे । आपके शरीर , तत्तत् कार्यों के उपयोग की सारी सामग्री , विनियोग बताने वाला शास्त्र आदि सभी परमेश्वर की विभूति होने से उनका स्मरण कराते हैं । इसलिये अधिभूत . अधियज्ञ आदि विभिन्न रूपों का वर्णन किया जाता है । जिस सामग्री से जो हम - आप अर्चना कर रहे हैं , वह परमेश्वर का अधियज्ञ रूप है । इन विभूतियों पर ध्यान करें तो स्वधर्म आचरण करते हुए कहीं भी परमात्मा का विस्मरण नहीं रहेगा क्योंकि किसी - न - किसी रूप में है और हम - आप जानते हैं कि वह है ।
नारायण ! पदार्थों को तो बुद्धिमान् और निर्बुद्धि दोनों देखते हैं परन्तु बुद्धिमान् पदार्थों को देखते हैं परमात्मा के अधिभूत रूप से । जो निर्बुद्धि है , वह विषय - भाव से देखता है । इसी प्रकार पूजा करते हुए बुद्धिमान् अधियज्ञ रूप से परमात्म दर्शन कर पाता है , बुद्धिहीन उससे वंचित रहता है । यदि अध्यात्म , अधियज्ञा , अधिदैव , अधिभूत , आदि सारे विभूति के रूप आपके पहचाने हुए हैं तो उन्हें देखते हुए परमात्मा को ही उस रूप में देख सकते हैं । तभी अनुस्मरण और धर्माचरण दोनों इकट्ठे होना बनेगा । जो " अन्य देवता " के भक्त हैं वे इस प्रकार से नहीं कर सकते । अर्थात् स्वधर्मानुष्ठान और अन्य देवताभक्ति साथ - साथ चलते नहीं रह सकते । जो परमात्मा के स्वभाव को प्रत्यगात्मा रूप से भी समझते हैं और सारे विषयों के रूप में भी समझते हैं , वे यह समुच्चय कर पाते हैं । जानने और समझने में फर्क है : शालिग्रामजी की बटिया सामने है ; जानेंगे तो उसे पत्थर ही पर समझेंगे कि वह भगवान् श्रीविष्णु हैं । जब आपको साक्षात्कार होता है तब आप समझते नहीं , तब आप जानते हैं कि नाम - रूप नहीं है , एकमात्र अधिष्ठान ब्रह्म ही है । तब जानते हैं , समझते नहीं हैं । इसलिए तब शास्त्र की ज़रूरत नहीं रहती । अतः आचार्य शङ्कर स्वामी एक जगह कहते हैं कि आत्मबोध हो जाने पर न चाहो तो भी मुक्त हो ही जाओगे ! जैसे समझ लें एक ढक्कन बंद डब्बा पड़ा हुआ है कहीं ; आपने सोचा कि " देखें इसमें क्या है ? " जैसे ही आपने बन्द डब्बे के ढक्कन को खोला , जबरदस्त बदबू आई । आपकी बदबू सूँघने की तो इच्छा थी नहीं ; आप , वहाँ क्या है ही देखने गए थे ; परन्तु बदबू की चीज़ है तो बदबू आयेगी ही । यह इच्छा की अपेक्षा नहीं रखता । आप चाहें या न चाहें , बदबू आयेगी ही । इसी प्रकार यदि परमात्मा के ज्ञान के लिए आपकी प्रवृत्ति हुई कि ब्रह्म क्या है , और ब्रह्माकार वृत्ति बनी , अज्ञान का पर्दा खुल गया , तब आप चाहें या न चाहें , मुक्त हो ही जायेंगे । जानने में आपकी इच्छा काम नहीं करती , पर समझने में इच्छा काम कर जाती है । श्रीशालिग्रामजी में आप विष्णु देख रहे हैं , समझ रहे हैं कि यह विष्णु है । किसी ने आपको उलटा उपदेश कर दिया कि पत्थरों को देवता समझना गलत है , मूर्खता है , यदि आपको उनकी बात जँच गयी तो आप श्रीशालिग्रामजी को विष्णु समझना छोड़ देंगे । समझी हुई बात छूट सकती है क्योंकि आपकी इच्छा पर निर्भर है परन्तु जानी हुई चीज़ छूट नहीं सकती । जैसे आपने डब्बा खोला और दुर्गन्ध आई । कोई आपको कह देवे कि वह तो अत्तर की डिब्बी है , उसमें अत्तर भरे हुए हैं ; तो आप उसे कहेंगे " बेवकूफ मत बनाओ । " ठीक इसी प्रकार से जिनको परमात्म - विषयक ज्ञान होता है उनके लिए फिर इच्छा की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि परमात्म - ज्ञान और मोक्ष एक ही चीज़ है । किन्तु समझने के लिए इच्छा चाहिये , इच्छा के बल पर ही हर समय , हर परिस्थिति में भगवान् का अनुस्मरण कर सकेंगे । सावशेष ......
नारायण स्मृतिः
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