सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा।
“वह ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है। “
भक्ति की पहली व्याख्या का सूत्र: वह ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।
मैंने तुम्हें कहा, ऊर्जा का एक रूप है: काम, ऊर्जा का दूसरा रूप है: प्रेम; ऊर्जा का तीसरा रूप है: भक्ति। भक्ति और काम के बीच में प्रेम है। प्रेम का एक हाथ काम से जुड़ा है; प्रेम का दूसरा हाथ भक्ति से जुड़ा है। अगर कामवासना की व्याख्या करनी हो तो भी प्रेम से ही करनी होगी। अगर दोनों का मध्य बिंदु है। प्रेम दोनों का संतुलन है।
जिसने भक्ति को जाना वह उनसे बोले जिन्होंने भक्ति को नहीं जाना, तो वह किस भाषा में बोले? प्रेम के अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं बचती। काम में तो बोला नहीं जा सकता, क्योंकि काम एक छोर है, भक्ति दूसरा छोर है। भक्ति तो काम के करीब-करीब विपरीत है। तो, अगर काम से कहना हो तो इतना ही कहा जा सकता है कि जो कामना नहीं है, वही भक्ति। लेकिन इससे कुछ हल न होगा, निषेध हरे जाएगा।
हम पूछते हैं, “भक्ति क्या है? “अगर काम से कहना हो तो हम इतना ही बता सकते हैं कि भक्ति क्या नहीं है। लेकिन पूछनेवाला पूछ रहा है, “हम यह नहीं पूछ रहे हैं कि भक्ति क्या नहीं है। पत्थर नहीं है, वृक्ष नहीं है, पक्षी नहीं है–माना; भक्ति है क्या? तो कहां से शुरू करें? “
… “परम प्रेमरूपा है।”
प्रेम से शुरुआत करनी पड़ेगी। लेकिन प्रेम में एक शर्त लगायी है: परम प्रेमरूपा। परम प्रेमरूपा का अर्थ है: ऋण काम। अगर सिर्फ प्रेमरूपा कहते तो फिर भक्ति में और प्रेम में कोई फर्क न रह जाता; फिर तो प्रेम ही भक्ति हो जाती। फिर तीसरे की कोई जरूरत न होती; काम और प्रेम, दो काफी थे विभाजन के लिए।
नहीं, प्रेम में थोड़ा-सा काम शेष रहता है। भक्ति में उतना भी काम शेष नहीं रह जाता है। एक प्रतिशत होगा प्रेम, निन्यानबे प्रतिशत केवल कामना है, केवल वासना है; लेकिन वह एक प्रतिशत प्रेम काम को भी एक सुंदर प्रतिमा बना देता है; काम को भी एक भावभंगिमा दे देता है; काम की व्यर्थता को ढांक लेता है और सार्थकता की थोड़ी-सी झलक दे देता है। कामवासना में भी प्रेम का थोड़ा सा अंश है। और प्रेम में भी कामवासना का थोड़ा-सा अंश है। दोनों जुड़े हैं। इसलिए प्रेम भी पूरा प्रेम नहीं है; कुछ उसमें अभी भी विजातीय है। प्रेम में भी थोड़ी कामवासना है।
इसे हम ऐसा समझें कि कामी कामवासना में पड़ता है; कामवासना में पड़ने के कारण थोड़े- से प्रेम का आविर्भाव हो जाता है। प्रेमी प्रेम में डूबता है; प्रेम में डूबने के कारण कामवासना आ जाती है। दोनों में बड़ा फर्क है, लेकिन तालमेल भी है। कामी काम के कारण प्रेम करने लगता है। प्रेमी प्रेम के कारण काम में उतरता है। दोनों में मौलिक अंतर है। क्योंकि प्रेमी का काम बड़ा मधुर और प्रीतिकर हो जाएगा। कामी का प्रेम भी गंदा होगा। उसके प्रेम में भी बदबू होगी। लेकिन दोनों एक-दूसरे में घुलें-मिलें हैं।
परम प्रेमरूपा है भक्ति। परम प्रेमरूपा का अर्थ हुआ: प्रेम खालिस सोना बचा, चौदह कैरेट नहीं, अट्ठारह कैरेट नहीं, खालिस! उसमें एक भी कैरेट कामवासना का न रहा। शुद्ध प्रेम हो गया, तो भक्ति!
क्योंकि तुम प्रेम को शायद थोड़ा- सा जानते हो, इसलिए प्रेम के आधार पर भक्ति को समझाया जा रहा है। तुम प्रेम की थोड़ी- सी भाषा जानते हो, वह भी पूरी नहीं जानते, कहीं सपने में झलक मिली है, कहीं टटोलते-टटोलते हाथ पड़ गया है, कहीं से कोई थोड़ी पहचान आ गयी है, सांयोगिक रही होगी, लेकिन तुम्हें थोड़ा-सा स्वाद है।
जैसे कि पीतल पीला है, और सोना तुमने नहीं देखा, तो हम पीतल से सोने को समझाते है।
कहते हैं—ऐसा ही पीला, पर और शुद्ध, ज्योतिर्मय, सूर्य की किरण जैसा चमकता हुआ! कुछ प्रतीक खोजते हैं। प्रतीक खोजना वर्णन है, व्याख्या है।
“वह भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।”
सूत्र के जो भी अनुवाद किये गये हैं हिंदी में, उन सब में यही अनुवाद किया गया है : वह भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है। पर संस्कृत में बात कुछ और है।
“सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा! “ ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं किया है। ईश्वर शब्द नहीं है—”उसके प्रति “! त्वस्मिन! बड़ा फर्क है। जिन्होंने भी हिंदी में अनुवाद किये हैं, उन्होंने बात को संकीर्ण कर दिया।
“उसके प्रति “—”उसका “ नाम नहीं हो सकता, इशारा है। बड़ी दूर है वह। उसे ईश्वर कहने से बात हल न होगी। क्योंकि उसे ईश्वर कहने से ही हम उसकी परिभाषा कर देंगे।
ईश्वर शब्द का अर्थ होता है, ऐश्वर्यवान, सारा ऐश्वर्य जिसका है, वह ईश्वर। यह हमारी परिभाषा है, क्योंकि हम ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गये हैं। हमारे लिए ईश्वर ऐसा है जैसे सम्राट, सारे जगत का है, पर है सम्राट ही। धन की भाषा में हम सोचने के आदी हो गये हैं, ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं, तो ईश्वर कहते हैं।
लेकिन धन से, और ईश्वर का क्या लेना-देना, ऐश्वर्य से और ईश्वर का क्या संबंध, सम्राटों से उसकी कल्पना करनी ठीक नहीं। इसलिए संस्कृत शब्द ठीक है : त्वस्मिन—”उसके प्रति “। नाम मत दो उसे। नाम तुम दोगे, तुम्हारा नाम होगा, तुम्हारा मन प्रविष्ट हो जाएगा। सिर्फ इतना ही कहो : “उसके “। इशारा करो। अंगुली बता दो। शब्द मत दो।
“ईश्वर “ देते ही आकार मिल जाता है। ईश्वर शब्द आते ही, तुम्हारे मन में आकार उठने शुरू हो जाते हैं।
सोचो थोड़ा : “उसके प्रति “–कोई आकार उठता है, उसके प्रति! तुम पूछोगे, “किसके प्रति, यह कौन है “उस “, किसकी बात कर रहे हैं?
“ईश्वर कहते ही हल हो गया, तुम निश्चित हुए, तुमने कहा, समझ गये। जहां तुमने कहा, समझ गये, वहीं नासमझी है। तुम न समझो, कृपा होगी। तुम बहुत जल्दी समझ जाते हो, वहीं भूल हो जाती है।
परमात्मा इतना आसान नहीं कि समझ में आ जाए। वस्तुत : उसे समझने के लिए सब समझ छोड़नी पड़ती है। उसे केवल वे ही समझ पाते हैं जो समझ का आग्रह भी छोड़ देते हैं। इसलिए अच्छा होगा, हम भी कहें “उसके प्रति “! “उसके “ कहते ही बड़ा विराट का द्वार खुलता है। फिर ये पशु-पक्षी, पौधे, आकाश सब सम्मिलित हो जाते हैं। परमात्मा कहते ही, ईश्वर कहते ही, बात बिगड़ जाती है, भेद खड़ा हो जाता है, स्रष्टा और सृष्टि का भेद हो जाता है। फिर तुम सृष्टि की निंदा में लग जाते हो और स्रष्टा की पूजा में। और कहीं स्रष्टा और सृष्टि अलग नहीं हैं।
स्रष्टा शब्द ठीक नहीं है, सृजन की ऊर्जा है। वही सृष्टि है, वही स्रष्टा है।
“उसके प्रति “ कहना बिलकुल ठीक है।
“सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा: उसके प्रति परमप्रेमरूप है। न नाम का पता है, न धाम का पता है। इसका क्या अर्थ हुआ, इसका अर्थ यह हुआ कि प्रेम तो नाम-धाम के बिना नहीं हो सकता, भक्ति हो सकती है। प्रेम के लिए तो नाम-धाम चाहिए।
तुम अगर कहो कि मैं प्रेम में पड़ गया हूं, और कोई पूछे, “किसके प्रति “, तुम कहो, “इसका कुछ पता नहीं “, तो तुम पागल हो।
प्रेम तो साकार के प्रति है, इसलिए नाम पता है। प्रेम का तो कोई एड्रेस है, पत्र लिखा जा सकता है। परमात्मा का कोई एड्रेस नहीं, पत्र लिखा नहीं जा सकता। परमात्मा के लिए तो बड़ा बावला पन चाहिए। निराकार के प्रति प्रेम! इसका अर्थ यह हुआ कि आब्जैक्ट, विषय तो खो गया, सब्जैक्ट, केवल तुम्हीं बचे।
जिन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम जाना, उन्होंने वस्तुत: यही जाना कि वहां कोई भी नहीं है। , बस प्रेम ही प्रेम है। असल में परमात्मा के प्रति प्रेम कहना ठीक नहीं है, वहां “प्रति “ है ही नहीं। वहां सिर्फ प्रेम का निवेदन है, किसी के प्रति नहीं है, सिर्फ प्रेम का आविर्भाव है, शुद्ध प्रेम की ऊर्जा का उठान है, उत्थान है, ऊर्ध्वगमन है, किसी के प्रति नहीं है। पर कहना होगा तुम्हारी भाषा में।
इसलिए सूत्र कहता है :”वह उसके प्रति परम प्रेमरूपा है। “परम प्रेम तभी है जब प्रेमी की भी जरूरत न रह जाए। जब तक प्रेमी की जरूरत है, तब तक तुम्हारा प्रेम परम प्रेम नहीं है, निर्भर है। निर्भर है तो शुद्ध नहीं हो सकता। जिससे तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को रंग देगा, जिसको तुम प्रेम करोगे वह तुम्हारे प्रेम को ढंग देगा–परम नहीं हो सकता।
ऐसा समझो कि जब भी सोने का आ भूषण बनाओगे, तो शुद्ध न रह ज, कुछ- न-कुछ मिलाना पड़ेगा। क्योंकि शुद्ध सोना इतना नाजुक है, उसके आ भूषण नहीं बनते। उसमें कुछ मिलाना ही पड़ेगा विजातीय—कुछ तांबा मिलाओ, कुछ और मिलाओ। वह अट्ठारह कैरेट रह जाएगा, बीस कैरेट होगा, बाईस कैरेट होगा, लेकिन शद्ध नहीं सकता, चौबीस कैरेट नहीं हो सकता।
ऐसा समझो कि भक्ति के जब तुम आभूषण बनाते हो तो प्रेम हो जाता है और जब तुम प्रेम के आभूषणों को पिघला लेते हो और शुद्ध कर लेते हो, तब भक्ति हो जाती है। लेकिन जब तुम प्रेम के आ भूषण पिघलाते हो तो प्रेमी भी पिघल जाता है। तुम जिसे प्रेम करते थे, वह बचता नहीं। तुम भी नहीं बचते, प्रेम ही बचता। वे दोनों गए। वह द्वैत गया। और जब प्रेम ही बचता है, तब प्रेम शुद्ध है। न मैं न तू र दोनों खो गये!
परम प्रेम तब है जब न प्रेमी रहा न प्रेयसी रही, जब द्वंद्व खो गया।
“उसके प्रति परम प्रेमरूपा है…!” और तब–
“अभी मैखानए दीदार हर जर्रे में खुलता है।
अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए। “
और तब कण-कण में उसकी मधुशाला का दरवाजा खुल जाता है! कण-कण में! “अभी मैखनाए दीदार हर जर्रे में खुलता है।”
कण-कण में उसका मधु बिखर जाता है और कण- कण में उसकी म धु S गला का द्वार खुल जाता है—”अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए। “ अगर आदमी अपने को भूल जाए, तो परमात्मा को पाने में अड़चन कहां! अपने से बेगाना हो जाए! मैं को भूल जाए, मैं को छोड़ दे, मैं को न पकड़े रखे तो उसकी म धु S गला कण- कण में बिखर जाती है! फिर सभी जगह उसकी ही मस्ती है।
न तुम हो, न वह है, मस्ती ही मस्ती है—वही परम प्रेमरूप है!
No comments:
Post a Comment