Thursday, 14 January 2016

अंधविश्वास और विश्वास 2

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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" श्रद्धा – अन्धविश्वाश और विश्वास ! "
: { २ } :
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नारायण ! कठोपनिषद् में नचिकेता के अन्दर श्रद्धा ने प्रवेश किया । उसको बताते हुए श्रुतिभगवती कहती हैं - " तं ह कुमारं संतं श्रद्दा आविवेश " वह अर्थात् नचिकेता कुमार ही था उसमें श्रद्धा ने प्रवेश किया । श्रुतिभगवती ने " कुमार " क्यों कहा ? कुमार शब्द का अर्थ होता है कामनाओं को जिसने दबा रखा है । लोक में भी छोटे बच्चे को कुमार इसलिये कहते हैं कि उसमें तब तक कामदेव अभिव्यक्त या प्रकट नहीं होता । इतना सदा याद रखेंगे कि लौकिक संस्कृत के अन्दर भी कुमार शब्द का मतलब पाँच वर्ष का बच्चा होता है । आजकल तो पैंतालीस - पचास - साठ - सत्तर साल की लड़की को सामने करके कहते हैं कि " कुमारी कमला जी पधारी हैं " । हम ऊपर - नीचे देखते हैं कि कुमारी जी के होठों में लाली , गालों में लाली लगी हुई है , यह कैसी कुमारी है ! या तो परम वैराग्यवान् , सत्संग करने वाली हो कि उसमें कोई कामदेव का प्रवेश नहीं है अथवा सचमुच पाँच - सात साल की हो तब प्रवेश न हो। यहाँ तो सब कुछ होते हुए भी " कुमारी जी " हैं , समझ में नहीं आता । पाँच साल की उम्र तक बच्चे में प्रायः किसी प्रकार के काम का प्रवेश न होने से ही उसे कुमार कहते हैं । वस्तुतः कुमार का मतलब है जिसने काम को दबा लिया , विजय कर लिया उसे कुमार कहते हैं । जहाँ कामना का प्रवेश नहीं हुआ , निष्कामता हैं वहीं श्रद्धा का प्रवेश होता है । कामना के रहते कभी भी श्रद्धा नहीं हो सकती । श्रुतिभगवती कहती हैं - " अथ बाल्येन तिष्ठासेत् " अतिधन्य शतपथ ब्राह्मण की बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि ज्ञान को प्राप्त करने वाला बालक बनकर रहे अर्थात् बालक की तरह रहे । बालक , कुमार शब्दों का एक ही अर्थ है। कठोपनिषद् का भाष्य करते हुए श्रीशङ्कराचार्य भगवान् प्रश्न उठाते हैं कि " बालक की तरह रहे " बालक की तरह का मतलब क्या है ? इसे थोड़ा समझ लें - साधारण आदमी इसे आज भी समझते हैं और पहले भी समझते थे कि बालक की तरह रहे अर्थात् जहाँ मर्जी पेशाब कर दे , जहाँ मर्जी मल का त्याग करने चला जाये , मर्जी आये जिसके हाथ का खा पी ले । उनकी दृष्टि में यह बालक का लक्षण हुआ । भगवान् भाष्यकार शङ्कर स्वामीजी कहते हैं यह कोई गुणों में नहीं गिना जा सकता ! यह तो बालक का मूर्खता वाला हिस्सा हुआ , इसकी नकल थोड़े ही करनी है । जहाँ मर्जी खाले , मल - मूत्र त्याग कर दे यह बालक का अनुकरणीय लक्षण नहीं हुआ । बालक में उपादेय गुण कौन - सा है ? बालक में राग - द्वेष नहीं होते । आप एक बालक को कोई बात कह दें , थोड़ी देर के बाद उससे कहें " लो मेरी तुम्हारी फिर दोस्ती हो गई । " लड़ाई और दोस्ती बच्चे के साथ बड़ी सरलता से होती है । तुरन्त कट्टा और तुरन्त सट्टा । दो आदमी दोस्ती करें तो चार वकीलों से पूछकर " पार्टनरशिप डीड " लिखा जाता है । कर दोस्ती रहे हैं और उसमें भी नियम - कानून बाँध रहे हैं । लेकिन बच्चे के साथ मैत्री करने के लिये लिखा - पढ़ी नहीं करनी पड़ती । ठोढ़ी पर अंगूठा रखकर उंगली आगे को कर दें कि मिल ले , " मैंने तो अपनी ठोढ़ी को हाथ लगा दिया अब तू आगे बढ़ " , बस इसी में मेल हो गया । बड़ों के यहाँ तो लड़ाई करने के लिये भी विचार होता है और बच्चों में कुछ नहीं , ठोढ़ी से अंगूठा हटा तो हो गई कुट्टी । ज्ञानी की बच्चे की यह राग - द्वेष - हीन अवस्था है । बच्चा नाराज हो गया , थोड़ी देर में कहा , " यह देख मेरे पास बढ़िया चाकलेट आया है लोगे ? " एक बार तो वह आँख की तरफ देखता है कि " सचमुच देना चाहता है या चिढ़ायेगा " जहाँ देखा कि समझौते वाली बात है तो आगे बढ़ जायेगा । जहाँ रागद्वेषहीनता नहीं होगी वहाँ सालों तक वह अपने अन्दर बाँधे ही रखेगा । इसलिये श्रुतिमाता ने बालक और कुमार कहा - " अथ बाल्येन तिष्ठासेत् " , " कुमारं संतम् " । तात्पर्य है कि स्वाकामना न होकर रागद्वेषरहितता है । श्रुति ने कहा कि वहीं श्रद्धा का प्रवेश होता है ।

नारायण ! अंधविश्वास इससे विपरीत है । अंधविश्वास में जीव राग - द्वेष से भरा हुआ है। राग - द्वेष में दृढतापूर्वक लगा हुआ है और अपना स्व प्रधान है , श्रद्धा प्रधान नहीं है। श्रद्धा से स्थिरता और एकाग्रता आती है । अंधविश्वास में अस्थिरता और अनेकाग्रता होती है । कामनाओं के कारण अनेकाग्रता और कालान्तर के अन्दर श्रद्धेय पर अर्थात् श्रद्धा के विषय पर स्थिरता नहीं होती , दूसरी जगह श्रद्धा का विषय बन जाता है । श्रद्धा मनुष्य के चित्त को निर्मल करती जाती है । श्रद्धा में निर्मलता का गुण है । अंधविश्वास के अन्दर मल का गुण है। यदि आपने अंधविश्वास किया और आपकी कामना सफल हुई तो आप चार कामनायें और करेंगे ! अंधविश्वास के अन्दर मल बढ़ता है , श्रद्धा में निर्मलता आती है । आपके एक कामना की और वह पूरी भी हो गई तो बाद में आपके अपने मन पर क्षोभ होता है कि " अरे मन ! उस परम दयालु को तुमने इतनी - सी बात के लिये कह दिया , मुझे धिक्कार है , क्यों मैंने उनसे कहा ? " यह निर्मलता श्रद्धा के अन्दर आती है । श्रद्धा से जीवन सरस हो जाता है । श्रद्धालु के जीवन में रस बहता है । चूँकि परमात्मा से उसका प्रेम है इसलिये प्राणिमात्र की तरफ उसका प्रेम बह जाता है । उसे हमेशा सरसता का अनुभव होता है । हवा चल रही होती है तो उसे " परमात्मा मुझे स्पर्श कर रहा है " यह अनुभव होता है । भोजन कर रहा होता है तो " परमात्मा ही मेरा विश्वम्भर होकर भरण कर रहा है " - यह उसे दीखता है । हर अनुभव में उसको सरसता का अनुभव होता है , रसानुभूति होती है । जिसमें श्रद्धा न होकर अंधविश्वास होता है उसके जीवन में रस नहीं होता , आनन्द नहीं हो सकता । प्रायः आप देखेंगे कि जो लोग भूत - प्रेत - तन्त्र इत्यादि विद्याओं का प्रयोग करते हैं उनके अन्दर भाव है कि " यह रहस्य है किसी को मत बताओ ! यह मन्त्र तुम्हें नहीं बतायेंगे , मैंने क्या किया यह नहीं बतायेंगे । " उनके अन्दर हमेशा नीरसता ही रहेगी । जगह भी उन्हें वैसी ही पसन्द आती है , गन्दी जगह , श्मशान इत्यादि । खाना - पीना प्रसाद इत्यादि के अन्दर भी जितनी तमोगुणी चीज़ें हों उधर ही प्रवृत्ति जाती है ।

नारायण ! दूसरी तरफ , जो श्रद्धा वाला होता है उसका जीवन सरस होता है । सत्त्वगुण के अन्दर उसकी प्रवृत्ति होती है और वह रात - दिन चाहता है कि मेरा प्राणप्रिय जिसे मैंने पहचाना उसे सब पहचानें । एक बात जड़ा आपको इशारे में कहेंगे , कोई मित्र बुरा नहीं मानेंगे । कोई योग्य पत्नी अपने को मिल जाती है , व्यवहार में योग्य , बोलने में भी योग्य , सबसे मर्यादित व्यवहार करती है । यदि ऐसी पत्नी मिली हुई है तो मनुष्य यह चाहता है कि " मेरी पत्नी को बाकी सब लोग जानें " , यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है । और यदि पत्नी ऐसी मिली है कि घर गये , आपने कहा " दूध पियेंगे " वह धम्म से पैर रखती हुई आयेगी और लाकर मेज पर पटक देगी , कहती जायेगी " क्या बेकार का काम मेरे सिर डाल दिया है।" अगर किसी काल में पत्नी को कह दिये " ये दो जने आये हैं इनके खाने के लिये कुछ पकौड़ा इत्यादि बना दो " तो वहाँ से जाते हुए बड़बड़ायेगी " यह कोई घर है , होटल बना रखा है । जो आये सो खाये । " ऐसी पत्नी हो तो पति बेचारा क्या चाहेगा कि किसी को अपने घर ले जाये ? यदि किसी अपने मित्र को भी बुलाना होता तो कहेगा कि " होटल में चलें , घर का तो रोज खाते ही हैं । " लेकिन वह तो उसका दिल ही जानता है ! आप सभी मित्रों से निवेदन हैं कि दस पन्द्रह साल पहले का दिल टटोले कि दस - पन्द्रह - बीस साल पहले हर - एक व्यक्ति कहता था " मेरे घर चलो " क्योंकि उसे निश्चय था कि घर में उसका स्वागत होगा , घर की गृहिणी है । आज जिसे भी देखें वह होटलों की ओर भाग रहा है क्योंकि जानते हैं कि घर में क्या मिलेगा ! इसी प्रकार जिसने अपने श्रद्धेय पदार्थों को देखा है कि " वह सत्त्वगुणी है , कितना अच्छा है " , वह तो चाहता है कि दूसरे सब मेरे इस श्रद्धेय पदार्थ को देखकर स्वयं भी देखें कि मेरा यह श्रद्धेय पदार्थ कैसा है । जहाँ अंधविश्वास होगा वहाँ पदार्थ मेँ तमोगुण होगा इसलिये उसे भय लगता रहेगा कि " इसे कोई न देखे " अतः छिपाकर रखेगा । श्रद्धा से जीवन में सरसता आती है । अंधविश्वास जीवन को सरस नहीं नीरस बनाता है । सावशेष .....

शिव शिव कहिए ..... आनन्द रहिए

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