!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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" श्रद्धा – अन्धविश्वाश और विश्वास ! "
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नारायण ! हमारे अतिधन्य शास्त्रकार कहते हैं : " श्रद्धा देवान् अधिवसते " श्रद्दा कहाँ रहती है ? देवताओं के अन्दर रहती हैं अर्थात् श्रद्धा दैवी सम्पत्ति वाले पुरुषों के अन्दर ही श्रद्धा का निवास बनता है । प्रायः श्रद्धा और विश्वास मेँ भेद नहीं किया जाता वरन् बहुत से लोग तो अंधविश्वास और श्रद्धा में भेद नहीं करते । श्रद्धा और अंधविश्वास एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं । बड़ी हल्की ध्वनि मनुष्य नहीं सुन सकता । ध्वनि भी एक शक्ति है जिसे आजकल " डैसिबल " से नापते हैं । अमुक शक्ति की ध्वनि मनुष्य सुन सकता है , उससे कम या ज्यादा डैसिबल हो जायें तो नहीं सुन सकता । उससे कम यदि कहीं ध्वनि रहेगी तो भी वहाँ आपको शान्ति ही लगेगी क्योंकि आपके कान उसे नहीं सुन सकेंगे । आपको लगेगा कि वहाँ कोई आवाज नहीं , लेकिन आवाज वहाँ भी है । एकबार की बात है कि देवराज इन्द्र कहीं जा रहे थे । उन्होंने देखा कि एक गिरगिट { छिपकली } बड़े जोर से भागता हुआ जा रहा था और वह अपनी जीभ को बार - बार पीछे की तरफ निकाल रहा था । इन्द्रदेव को कुछ विचित्र - सा लगा । उसके पास जाकर पूछा , " कि तू कहाँ भाग रहा है ? " उसने कहा , " पहले मुझे भाग लेने दो । " तब तक एक पेड़ आ गया और गिरगिट उसके ऊपर चढ़ गया । इन्द्र से बोला , " अब बोलो क्या पूछ रहे थे ? " देवराज इन्द्र ने कहा , " तू इतना क्यों दौड़ रहा था , हाँफ रहा था और जीभ को बार - बार पीछे निकाल रहा था । " गिरगिट ने कहा , " बेकार लोग आपको सहस्राक्ष अर्थात् हजार आँखों वाला कहते हैं । आपको कुछ दिखता - दिखाता नहीं है , फालतू ही आपका नाम हजार आँखों वाला देवता है । " इन्द्र ने कहा , " ऐसा क्यों ? " गिरगिट बोला , " आपको दीख नहीं रहा था कि पीछे से एक जंगली हाथी आ रहा है ? " इन्द्र ने कहा , " मुझे तो नहीं दीखा , तुझे कैसे दीख गया ? " गिरगिट ने कहा , " मुझे देखना नहीं पड़ा , आपकी तरह मेरी हजार आँखें चारों तरफ थोड़े ही है ! मेरी तो आँखें एक ही तरफ हैं । लेकिन वह जो मदमस्त हाथी है , उसके जोर - जोर से पैरों को रखकर चलने की आवाज आ रही थी , वह मैं सुन रहा था । मुझे तो धीरे चलना पड़ता है । यदि मैं रुकता तो हाथी आकर मुझे मार डालता । अब मैं बचकर सुरक्षित जगह पहुँच गया हूँ । अब जितना पूछना हो पूछो । " इन्द्र ने पूछा , " जीभ क्यों बार - बार पीछे कर रहा था ? " गिरगिट बोला , " मेरे कान तो आगे की तरफ हैं लेकिन हाथी के आने से हवा में जो तेजी आती है उससे मेरी जीभ की लार जल्दी सूख जाती है , उससे मुझे पता लग जाता है कि हाथी कितनी तेजी से आ रहा है और मैं कितनी दूरी पर हूँ । अब मैं पेड़ पर चढ़ गया हूँ इसलिये सुरक्षित हूँ । पहले तो हाथी इस पेड़ पर आयेगा नहीं , क्योंकि यह कँटीला है । काँटों वाले पेड़ को ऊँट तो खा जाता है लेकिन हाथी नहीं खाता । इसलिये पहले तो उसकी इधर प्रवृत्ति ही नहीं होगी । यदि किसी कारण से उसने इसको तोड़ने का प्रयत्न किया भी तो ऊपर की डालों को तोड़ेगा , मैं तो इस तने पर बैठा हुआ हूँ बच जाऊँगा । " इन्द्रदेव को बड़ा आश्चर्य हुआ और मन में यह सोचते हुए वहाँ से चल दिया कि भगवान् शिव की ही यह लीला है कि इतना छोटा यह प्राणी और इतनी सूक्ष्म ध्वनि सुन लेता है जो मैं सहस्राक्ष होते हुए भी नहीं जान सकता ।
नारायण ! विचार करके आप देखें तो ऐसी अनेक ध्वनियाँ हैं जो इतनी धीमी होती हैं कि हमारे - आपके कान नहीं सुन पाते । इतना ही नहीं , कई इतने छोटे प्राणी इस परमात्मा की सृष्टि में होते हैं और ध्वनि इतनी जोर के करते हैं कि लगता है कि कोई बड़ा जन्तु आकर बैठ गया । एक " चटक " नाम का प्राणी परमात्मा की इस सृष्टि में है जो मच्छर से थोड़ा - सा बड़ा , मख्खी के आकार का होता है । वह इतना जोर से " चट चट " बोलता है कि आदमी सोचता है कोई बड़ा प्राणी , चिड़िया आदि कमरे में आ गई होगी । सारे कमरे में आदमी ढूँढता रहता है कि चिड़िया कहाँ से आ गई । फिर गाँव में रहने वाला कोई व्यक्ति उसे बताता है कि यह " चिड़िया की आवाज नहीं एक छोटे से कीड़े की आवाज है । " हम भी एक बार इस भ्रम में पड़ गये थे । इसी प्रकार कुछ व्यक्ति ध्वनियों की गति , कुछ ध्वनियों की तेजी इतनी ज्यादा होती है कि हमारे कान नहीं सुन पाते । पुलिस वाले एक सीटी का प्रयोग करते हैं , जब वे उसे बजाते हैं तो पुलिस के कुत्ते उसे सुन लेते हैं और तुरन्त आ जाते हैं । लेकिन अपने को कुछ सुनाई नहीं देता । वहाँ उसकी ध्वनि की तीव्रता इतनी ज्यादा है कि कान उसे ग्रहण नहीं कर सकता । जहाँ हमको लगता है कि बिल्कुल चुपचाप शान्ति है वहाँ भी आवाज हो रही है ।
नारायण ! जैसे ध्वनि के विषय में वैसे ही रूप के विषय में होता है । बैँगनी रंग से जब हल्का रंग होने लगता है तब मनुष्य की आँख उसे नहीं देख सकती । उसे " अल्ट्रा वायलेट रेज़ " कहते है । इसी प्रकार लाल से ऊपर के रंग भी मनुष्य की आँख नहीं देख पाती उसे " इन्फ्रा रेड रेज़ " कहते हैं । इन दोनों के बीच के रंग ही मनुष्य की आँखे देख सकती है । यदि उससे नीचे होगा तो भी अपने को अंधेरा ही दीखेगा और उससे तेज होगा तो भी अपने को अंधेरा ही दीखेगा । हमारे अन्तरंग मित्रों की सूची में - श्री DrChandra Shekhar Vyas जी हैं जो इसके विषय में ज्यादा अनुभव - ज्ञान रखते हैं वे ज्यादा बता सकते हैं । हम लोगों की शक्ति बँधी हुई है , संकुचित है । उससे ऊपर और नीचे की चीजों को हम नहीं देख सकते , ग्रहण नहीं कर सकते । हमारी इन्द्रियों में वह शक्ति नहीं है जो उन चीज़ों को देख रखें । हमारे लिये ध्वनिहीनता और रंगहीनता है , अंधेरा है ; जो हम लोगों को घुप्प अंधेरा दीखता है वहाँ भी उल्लू को प्रकाश दीख जाता है क्योंकि उसकी शक्ति के अन्दर तीव्रता है । उसी उल्लू को कम प्रकाश में दीख सकता है लेकिन धूप उसे अंधेरे जैसी लगने लगती है अर्थात् उसे ग्रहण नहीं कर सकता ।
नारायण ! इसी प्रकार अनेक चीज़ें हैं जिनका ग्रहण श्रद्धा की शक्ति से करना पड़ता है । श्रद्धा को हमारे मनिषीयों ने भगवती का स्वरूप माना है । जहाँ श्रद्धा की न्यूनता होगी वहाँ भी हम ग्रहण नहीं कर पाते । श्रद्धा और अंधविश्वास में फरक इसलिये हम लोग नहीं समझ पाते । " अंधविश्वास " , " विश्वास " और श्रद्धा - ये तीन अवस्थायें हैं । जैसे ध्वनि अत्यन्त हल्की हुई तो हमारे कान ने उसे भी शान्ति कह दिया , ध्वनि अत्यन्त तीव्र हुई तो हमारे कान ने उसे शोर कह दिया । रोशनी अत्यन्त हल्की अर्थात् बैंगनी रंग से कम हुई तो हमारी आँख ने उसे अंधेरा कहा और रोशनी अति तीव्र हुई तो हमारी आँख ने उसे " चकाचौंध " कह दिया । केवल बीच की चीज़ को हमारी इन्द्रियाँ पकड़ पाईं । इसी प्रकार यदि विश्वास अतितीव्र होकर श्रद्धा रूप में पहुँच गया और यदि विश्वास अत्यन्त कम हो करके अंधविश्वास बन गया तो ये अंधविश्वास और श्रद्धा हमें एक - जैसे लगते हैं । जैसे रोशनी के आगे - पीछे हमको एक - जैसा अंधेरा दीखता है ऐसे ही विश्वास की बात तो हमारी समझ में आती है लेकिन वह विश्वास यदि नीचे अन्धविश्वास को चला गया या आगे श्रद्धा को चला गया तो हमको एक जैसा लगता है । इसलिये साधारण प्राणी श्रद्धा और अंधविश्वास में फरक नहीं करता । विश्वास तो वह समझ लेता है । इन दोनों के भेद को हम थोड़ा समझायेंगे . यह समझना जरूरी है क्योंकि श्रुतिभगवती डिण्डिम घोष करके कह रही हैं कि " श्रद्धा देवताओं के अन्दर ही अधिवास करती है । " तात्पर्य यह हुआ कि जिनके अन्दर दैवी गुण नहीं हैं , जो देव नहीं हैं उनके अन्दर श्रद्धा वास नहीं करेगी , अंधविश्वास का रह सकता है ।
नारायण ! श्रद्धा और अन्धविश्वास में एक तो सबसे बड़ा फरक यह है कि श्रद्धा क्रियाशील होती है और अन्धविश्वास क्रियारहित होता है । श्रद्धा हमेशा मनुष्य क्रियाशील बनाती है , एक शक्ति देती है जो असम्भव को भी सम्भव कर जाये । साधारण मनुष्य को जो चीज असम्भव लगती है वह भी श्रद्धावान् को न केवल सम्भव लगती है वरन् वह उसे सम्भव कर जाता है , यह क्रियाशीलता है । अंधविश्वास मनुष्य को इसके विपरीत क्रियाहीन बनाता है , उसकी क्रिया में कमी लाता है । यह दोनों के अन्दर मूलगत भेद है । दूसरी बात , श्रद्धा से श्रद्धेय में स्थिरता और एकाग्रता आती है । श्रद्धेय अर्थात् श्रद्धा का विषय , जिस पर श्रद्धा आप श्रद्धा कर रहे हैं , श्रद्धा के द्वारा उसमें चित्त भी स्थिर होगा और एकाग्रता भी होगा । श्रद्धेय विषय को छोड़कर चित्त कभी अनेकता की तरफ नहीं जायेगा , न केवल एक समय के लिये नहीं जायेगा वरन् उसके अन्दर स्थिरता रहेगा । इसलिये स्थिरता के कारण किसी भी समय वह श्रद्धेय विषय से दूसरी तरफ नहीं जायेगा । अंधविश्वास में ये दोनों चीज़ें नहीं हैं । अंधविश्वास में स्थिरता कभी नहीं होती है , अंधविश्वासी का रूप होता है कि इस समय एक बात मान ली , कुछ समय के बाद कुछ और मान लिया । और जितने काल तक एक को माने हुए है उतने काल तक एकाग्रता भी नहीं होती , उसका मन अंधविश्वसनीय पर नहीं टिकता । भिन्न - भिन्न पदार्थों की तरफ मन जाता रहता है । श्रद्धेय अर्थात् श्रद्धा का विषय वहाँ गौण होता है और खुद स्वयं और उसकी कामनायें प्रधान होती हैं । अंधविश्वास के अन्दर कामना और खुद प्रधान होता है । अगर आपमे कुछ कामना और खुद की प्रधानता है तो मान लें कि आप पक्के अंधविश्वासी हैं । श्रद्धा के अन्दर ठीक उसके विपरीत वैराग्य , निष्कामता और श्रद्धेय पदार्थ है उसमें वैशिष्ट्य होता है । सावशेष ......
शिव - शिव कहिए ..... आनन्द रहिए
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