!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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" श्रद्धा – अन्धविश्वाश और विश्वास ! "
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नारायण ! श्रद्धा शुद्ध कैसे हो और बढ़े कैसे ? श्रुतिभगवती बताती है " हविषा वर्धयामसि " हवि के द्वारा , आहुति के द्वारा ही श्रद्धा बढ़ती है । क्या देना है , कौन सी चीज है जो देकर श्रद्धा बढ़ती है ? वेद बताता है " यो मा ददाति स इदेवमावाः " जो पुरुष मुझ परमात्मा को अपना विश्वास देता है , यही आहुति है । तिल , जौ , चावल की आहुति देने से श्रद्धा नहीं बढ़ती । श्रद्धा बढ़ाने के लिये अपने चित्त के विश्वास की आहुति देनी पड़ती है अर्थात् परमात्मा को विश्वास देना पड़ेगा । विश्वास और श्रद्धा का फरक आपको इस सत्संग माला के पूर्व क्रम में बता आये हैं । विश्वास तो हर - एक में है ही । परमात्मा को अपना विश्वास देना है , जब आप परमात्मा का विश्वास करते हैं वही परमात्मा को अपना विश्वास देना है । परमात्मा को भी आप जानते तो हैं नहीं , विना परिचय के ही विश्वास देना है । पहले परमात्मा पर हम अपना विश्वास ही देते हैं । किस रूप में देते हैं? परमेश्वर है ; क्या है - यह मैं नहीं जानता हूँ , कैसा है - यह भी मैं नहीं जानता हूँ लेकिन मेरा यह दृढ विश्वास है कि यह जगत् शून्यमय नहीं है ; सारे सृष्टि - ब्रह्माण्ड के अन्दर इन सबको चलाने वाला कोई है । उपनिषद् में बताया , " अस्ति ब्रह्मेति चेद् - वेद संतमेनं ततो विदुः " " ब्रह्म है " यदि ऐसा तुमको निश्चय हो तो भी तुम सन्त हो । क्या है , कैसा है यह अभी पता नहीं , हमारा उसका क्या रिश्ता है यह भी पता नही लेकिन है इतना निश्चय है । जैसे आप व्यापार के लिये दूकान खोलते हैं , दूकान खोलने के पहले आपने कहीं दस करोड़ रुपये रखे हुए देखे हैं ? लेकिन आपका विश्वास है कि दस करोड़ रुपये हैं जो दुकान चलने पर मेरे पास आ सकते हैं । विश्वास करते हैं कि रुपये हैं । कहीं नौकरी करने आप जाते हैं तो विश्वास देते हैं । वहाँ यह तो नहीं सोचते हैं कि क्या पता यह फर्म बीस साल तक चलेगी ही और हमको महीने के महीने वेतन देंगे ही । सरकारी नौकरी भी आप कर लेंगे तो " मुझे समय से पहले रिटायर करके भेज देंगे " यह सब अविश्वास नहीं करते हैं । केवल विश्वास के आधार पर प्रवृत्ति करते हैं । ब्याह करके जिस लड़की को घर में लाते हैं क्या उस लड़की के स्वभाव को देख लेते हैं ? आजकल शक्ल तो देख भी देते हैं , वह भी आज तक हमारी समझ में नहीं आ पाया कि क्या देखते हैं ! क्योंकि उस समय वह ऐसी सज - धज कर सामने आती है किसी को पता नहीं चलता ; लेकिन स्वभाव को कैसे देख पाइयेगा ? किसी के साथ साल भर रहकर भी क्या पता लगता है कि उसका स्वभाव कैसा है? विश्वास ही तो करते है आप कि धोखा नहीं देगी । इसी प्रकार परमात्मा है - बस इतना ही विश्वास अभी कर रहे हैं । अन्य सभी क्रियाओं में बिना देखे हुए , बिना अनुभव किये हुए ही विश्वास से व्यवहार कर लेते हैं । यह मुझे मारेगा या नहीं , इससे मुझे फायदा होगा या नहीं इत्यादि सब विचार बिना किये हुए भरोसे से ही आप विवाह , नौकरी व्यापार इत्यादि सारा व्यवहार करते हैं । बस इतना ही भरोसा परमात्मा पर करना है । कई बार लोग कहते हैं कि " अगर भजन किया और परमेश्वर नहीं मिला तो ? " हम उनसे कई बार कहते हैं कि नहीं मिला तो न मिले यह व्यापार है , घाटा - नफा दोनों हो सकते हैं । " है " इतना विश्वास ही प्रवृत्ति के प्रति पुष्कल कारण हो जाता है । यह पहली आहुति विश्वास की हुई ।
नारायण ! परमात्मा कहता है कि " जिसने मुझे यह विश्वास दे दिया , वह मुझे प्राप्त कर लेगा। " यह कहने वाला संसार में आपको कहीं मिलने वाला नहीं है । आप धन पर बचपन से आज तक विश्वास रख रहे हैं तो विश्वास रखने से क्या धन मिल गया ? लड़की घर के आन्दर आकर भाई से झगड़ा नहीं करायेगी क्या इस विश्वास के कारण झगड़ा रुकवा लेते हैं क्या आप ? डॉक्टर के पास जाकर दवाई लेकर ठीक हो जायेंगे - तो क्या ठीक हो जाते हैं ? संसार में विश्वास सर्वत्र अपेक्षित है लेकिन विश्वास के साथ कुछ और भी चाहिये । श्रुति कहती है कि परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये यह विश्वास ही चाहिये कि वह मुझे प्राप्त होगा । जब वरणी आप देते है तो मौलि बाँधते हुए पण्डित जी महाराज कहते हैं –
" व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् ।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥ “
श्रद्धा के द्वारा आपको सत्य तत्त्व का दर्शन हो जायेंगे । जितना - जितना परमेश्वर का विश्वास बढ़ता जायेगा उतना ही उतना वह श्रद्धा रूप में आता जायेगा और उतना ही उतना परमेश्वर के उस मङ्गलमय रूप का आपको साक्षात्कार होता चला जायेगा । श्रद्धा सत्य - प्राप्ति का पुष्कल कारण है । यह इसकी विशेषता हुई ।
नारायण ! श्रुति ने यहाँ कह रही हैं - " यो मा ददाति " जो मुझे अर्थात् परमात्मा को विश्वास देता है , कितना देता है ? यह नहीं लिखा है । यहाँ पर आपको जरा धबराहट होंगी। हमारे यहाँ वैदिकों के अन्दर यह नियम है कि जहाँ सीमा न लिखी हो वहाँ अपरिच्छन्नता को ग्रहण करना पड़ता है । जहाँ कहा है कि " इतना दो " वहाँ तो निश्चित हो गया , लेकिन जहाँ नहीं कहा , वहाँ अपरिच्छिन्न दें , क्योंकि सीमा नहीं बताई । लोक में भी यही बात है । " ब्राह्मण इस पंक्ति में बैठ जायें , तो ऐसा नहीं कह सकते कि सनाढ्य बैठे , सरयुपारी न बैठे । जब ब्राह्मणों को भोजन कराने का कहा तो जो भी वहाँ ब्राह्मण प्राप्त हैं उन सबको करना पड़ेगा । इसी प्रकार वेद कहता है कि अपना विश्वास दो और यह कहा नहीं कि कितना दो तो अपना सारा विश्वास परमात्मा को देना पड़ता है । अन्यत्र कहीं भी हमको यदि कोई विश्वास प्रतीत होता है तो वहाँ से हटाकर एकमात्र परमात्मा पर ही विश्वास रखना है । अपना सारा विश्वास जो परमात्मा को दे देते हैं वे उसे प्राप्त कर लेते हैं क्यौंकि उनके अन्दर आस्तिक्य आ जाता है। आस्तिकता का मतलब ही यह भाव होता है कि परमात्मा है । इस बुद्धि वाली हवि देनी है। एक दिन में ही तो सारा विश्वास नहीं देंगे , जितना - जितना आप विश्वास देंगे उतना - उतना विश्वास आपका बढ़ता जायेगा । पहले - पहल विश्वास देने में मनुष्य डर लगता है । बहुत - सी चीजें मनुष्य दूसरे को दे सकता है , हृदय का विश्वास देना बड़ा कठिन है ।
नारायण ! दो भाई थे । एक का नाम धीरू और दूसरे का नाम भीरु था । जंगल में एक बार दोनों खो गये । उस घनाघोर जंगल में चारों तरफ घूमते रहे लेकिन कहीं से उन्हें वापिस घर जाने का कोई ढंग का रास्ता नहीं मिला । दीर्घ काल तक वहीं घूमते रहे , उनके पास में कपड़े भी नहीं थे , नहाना - धोना भी मुश्किल था । कपड़े मैंले भी हो गये और उनमें जुएँ { एक तरह कीड़ा } पड़ गई थीं । इधर - उधर पेड़ों से छिलकर उन कपड़ों के चीथड़े भी हो गये लेकिन कोई उपाय न था । इस प्रकार घूमते हुए अतिदीर्घकाल के बाद एक बार एक तालब के किनारे पहुँचे । बड़ा ही सुन्दर तालाब था , कमल खिल रहे थे , देखकर बड़े प्रसन्न हुए । तब तक देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा बगीचा है जिसमें बड़े ही सुन्द - सुन्दर फल लटक रहे हैं , बड़े सुन्दर फूल भी थे । उन्होंने सोचा कि " बड़ा बढ़िया उपवन मिल गया , चलकर फल खायें। " फल खाने के लिये आगे बढ़े । वहाँ एक सूचना पट्ट पर लिखा हुआ था - " अरे भवाटवी के पथिकों ! तुम लोग यहाँ पहुँच गये यह तो बड़ी अच्छी बात है लेकिन भूल कर भी इस वगीचे के फूलों को सूँघना मत और फलों को खाना मत । इन फूलों के अन्दर ज़हर भरा हुआ है । इनको सूंघने वाला मूच्छित हो जाता है । इसी प्रकार ये फल भी विषैले हैं । इनको खाने वाला कुछ करने योग्य नहीं रह जाता । इसलिये तुम लोग इधर मत जाना । जो भी तुम्हारे कपड़ें हैं वे सब उतार देना , और यह जो तालाब है इसमें स्नान करना , इसमें उतर जाना , भय मत करना कि इस तालाब में जायेंगे तो कहीं डूब जायेंगे । यह अमृत सरोवर है , इसमें कोई डूबता नहीं उल्टा इसमें स्नान करने से ताजगी आ जाती है । इसमें तरह - तरह के कमलों की सुन्दर सुगन्धि प्राप्त करके तुम्हारा जितना भी चित्त क्लांत हुआ है , वह सब थकावट दूर हो जायेगी । जब इस तालाब के पार पहुँचोगे तब तुमको वहाँ एक बड़ा भारी शेर खड़ा हुआ दिखाई देगा । दीखेगा शेर ही , लेकिन डरने की जरूरत नहीं । उल्टा उस शेर पर बैठ जाना । वह शेर तुम्हें पास ही पहाड़ी पर ले जायेगा । वहाँ तुम भगवान् शङ्कर का सुन्दर मन्दिर देखोगे और जैसे ही वहाँ जाकर भगवान् शङ्कर पर अभिषेक करोगे तुम स्वयं भी शिवस्वरूप सहस्राक्ष महादेव हो जाओगे । " यह सूचना दोनों भाईयों ने पढ़ा ।
नारायण ! धीरू ने कहा , " किसी बुद्धिमान् ने यह लिख दिया था , बड़ा अच्छा किया जो अपने को सावधान किया । " धीरू कहने लगा " मुझे तो यह बेकार की बात लगती है । सामने साक्षात् जो पेड़ों के सुन्दर फल दीख रहे हैं , लिखा है कि इन्हें खाओ नहीं । सुन्दर फूल दीख रहे हैं , लिखा है कि उन्हें सूंघो नहीं और छाया दीखती है वहा वहाँ आराम मत करो । अपने कपड़े - लत्ते भी फैंक दो । माना कि अपने कपड़े पुराने और जुओं वाले हो गये हैं , फिर भी अपनी चीज कहीं फेंकी जाती है । और लिखा है इस तालाब के अन्दर निर्भय होकर उतर जाओ । इसके अन्दर इतने कमल हैं , कहीं अपने फँस गये तो ? और मान लो अगले पार पहुँच गये , तो शेर कभी किसी को छोड़ता नहीं है , वह तो खा ही जायेगा । मान लो नहीं खाया , उस पर बैठकर हम चले और उसने पहाड़ी पर जाकर कहीं गिरा दिया तो ? और इतना सब होकर भी हम लोग ऊपर पहुँच गये , और शङ्कर भगवान् का अभिषेक कर भी लिया और कुछ नहीं हुआ तो ? इसलिये मुझे तो यह विश्वास की बात नहीं जँचती । यह तो सब ऐसे ही लगता है । इसलिये हम तो चलकर बढ़िया फल खाकर आराम करें । "
नारायण ! धीरू उसे समझाने लगा । " ऐसे घबराने से काम नहीं चलेगा । देखो , जो उन वृक्षों के नीचे लेटे हैं वे हिल भी नहीं रहे हैं जबकि अपने को यहाँ आये हुए काफी देर हो गई , इसलिये कुछ - न - कुछ जरूर गड़बड़ी है , नहीं तो कोई उठा होता , कोई खा रहा होता । कपड़े तो अपने पहले ही ऐसे हो गये हैं , कम से कम नहाकर तरोताजा तो हो जायेंगे । माना शेर भयंकर होते हैं लेकिन यह कोई जरूरी नहीं कि सर्वत्र भयङ्कर हों । ऐसे - ऐसे किस्से सुने गये हैं कि शेर के पैर से किसी ने कांटा निकाल दिया तो दस साल बाद भी उस शेर को याद रहा और जब उसी व्यक्ति को उस भूखे शेर के सामने डाला गया तो उसने उसे नहीं खाया क्योंकि उसे याद रहा कि इस व्यक्ति ने मेरे प्राण बचाये थे। फिर हमारे पास कौन से ऐसे हीरे - पन्ने हैं जो किसी ने धोखा देने के लिये लिखा हो ? इसलिये तुम घबराओ नहीं , तालाब की तरफ ही चलें । भीरु ने कहा , " तुम जाओ , हम तो जाने वाले नहीं हैं । पता नहीं तुम्हारी बुद्धि को क्या हो गया है ? बहुत समय के बाद एक अच्छी जगहग मिली है । " यह कहकर भीरु वहाँ गया , फूलों को सूंघने लगा । उसे मस्ती आने लगी , खुश हुआ कि बढ़िया हो रहा है । आगे जाकर फल खाये विषैले तो थे ही , थोड़ी देर में उसे मुर्छा आ गई । और वही उसका काम तमाम हो गया ।
नारायण ! धीरू कपड़े खोलकर जैसे ही सरोवर में गया , बड़ा हल्का महसूस हुआ , मल - मलकर , रगड़ - रगड़कर स्नान किया और सुन्दर कमलों की सुगन्धि से उसकी सारी क्लान्ति मिट गई । उसके मन में हुआ कि सूचना पट्ट पर ठीक ही लिखा हुआ है । आगे जब दूसरे किनारे पर पहुँचा तो उसे शेर दिखाई दिया । एक बार तो उसके मन में हुआ कि यह शेर है , पता नहीं क्या करे । लेकिन देखा कि वह चुपचाप खड़ा है , कुछ नुकसान नहीं कर रहा है। धीरे से पास गया तो भी शेर ने कुछ नहीं किया । वह उस शेर पर बैठ गया और शेर ने उसे ऊपर पहुँचा दिया । ऊपर पहुँचकर उसने शिव जी का अभिषेक किया तो उसके साथ ही उसे शिवसायुज्य की प्राप्ति हो गई और स्वयं वह सहस्राक्ष महादेव रूप हो गया । इस कथानक का रहस्य अगले क्रम में बतायेंगे :
सावशेष .....
शिव - शिव कहिए ...... आनन्द रहिए
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