Tuesday, 19 January 2016

भक्ति सूत्र 5

भक्ति सूत्र 5 --

यत्प्राप्य न किग्चिक्षाग्छति न शोचति
न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति।

… “न किसी वस्तु की इच्छा करता है। “ क्योंकि जिसने भक्ति को जान लिया, वस्तुएं व्यर्थ हो गयीं।

तुम जब कभी खयाल किया—प्रेमी एक-दूसरे को वस्तुओं की छूट देने लगते हैं! वह प्रेम का लक्षण है। क्यों, अब वस्तुओं का मोह नहीं रह जाता। वस्तुएं देने योग्य हो जाती हैं, पकड़ रखने योग्य नहीं रह जातीं।

जिसे तुम प्रेम करते हो उसे तुम सब देना चाहते हो। इसलिए कंजूस प्रेम नहीं कर पाते। कृपण आदमी के जीवन में कोई प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि कृपणता और प्रेम एक साथ नहीं हो सकते, एक ही घर में उन दोनों का निवास नहीं हो सकता।

निजाम हैदराबाद भक्त आदमी थे। लेकिन मैंने सुना है कि वे दुनिया के सबसे बड़े संपत्तिशाली आदमी थे। इतनी बड़ी संपत्ति और किसी के पास नहीं। लेकिन कृपण तुम ऐसा आदमी न पाओगे। जो टोपी उन्होंने सिंहासन पर बैठते वक्त पहनी थी, वे चालीस साल उसको पहने रहे। उससे बास आती थी। वह इतनी गंदी हो गयी थी। वे उसका धुलने नहीं देते थे, क्योंकि धुलने में कहीं बिगड़ न जाए, कहीं खराब न हो जाए। वे मरते दम तक उसी को पहने रहे। मेहमान सिगरेट अधजली छोड़ जाते तो ऐश-ट्रे से वे इकट्ठी कर लेते थे–खुद पीने के लिए! यह तुम भरोसा न करोगे। और यह आदमी भक्त था! पांच बार इबादत करता था भगवान की। यह असंभव है। यह बिलकुल असंभव है।

यह आदमी किसको धोखा दे रहा है, अभी तो इस आदमी के जीवन में प्रेम भी नहीं है। जली सिगरेटें, झूठी सिगरेटें संभालकर रख लेना, फिर फुर्सत से पीएंगे!

जहां भी तुम कृपण को पाओ, वहां तुम समझ लेना कि अगर वह भगवान की बातें कर रहा हो, प्रेम और भक्ति की बातें कर रहा हो, तो वे किसी गहरे घाव को छिपाने की तरकीबें हैं। कृपण कभी भक्त नहीं हो सकता। कृपण प्रेमी ही नहीं हो पाता। वह पहली ही सीढ़ी नहीं चढ़ता, दूसरी पर तो पहुंचेगा कैसे ,

जब तुम प्रेम करते हो, तत्क्षण तुम्हारी पकड़ वस्तुओं से उठ जाती है, तुम भेंट कर सकते हो, दान दे सकते हो! और देकर तुम प्रसन्न होते हो, उदास नहीं। और जो तुमसे ले लेता है, तुम उसके अनुगृहीत होते हो कि उसने हलका किया। तुम ऐसा नहीं सोचते कि वह तुम्हारा अनुगृहीत होए, क्योंकि अगर उतना भी रह गया तो सौदा हुआ फिर तुम कृपण हो। हिंदुस्तान में रिवाज है कि ब्राह्मण घर आये तो पहले उसे भेंट दो, दान दो, फिर दक्षिणा भी दो। दक्षिणा का मतलब होता है धन्यवाद कि तुमने भेंट स्वीकार की! दक्षिणा बड़ा अदभुत शब्द है! पहले दो, और चूंकि ब्राह्मण ने स्वीकार किया, वह इनकार भी कर सकता था, फिर दक्षिणा दो कि धन्यभाग कि “तुमने स्वीकार किया! तुम इनकार कर देते तो मेरा प्रेम अधूरा वापस लौट आता! तुमने द्वार दिया!”

इसलिए प्रेमी अनुगृहीत होता है देकर। भक्त सब लुटाकर अनुगृहीत होता है।

“…….किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता है, न द्वेष करता है। “ क्योंकि जब इच्छा ही नहीं रही तो द्वेष कहां! द्वेष तो इच्छा की छाया है। जब तक तुम इच्छा करते हो तब तक तुम द्वेष भी करोगे। क्योंकि जो वस्तु तुम चाहते हो, वह अगर किसी और के कब्जे में है तो तुम क्या करोगे, तुम द्वेष करोगे। तुम ईष्या करोगे। तुम जलोगे। “… न आसक्त होता है। “ क्योंकि जब इच्छा ही न रही…।

समझ लो इसको ठीक से। जिसके जीवन में वस्तुओं की इच्छा है, उसका अर्थ है कि उसने प्रेम को नहीं जाना–पहली बात। वह चूक गया। वस्तुएं तो पड़ी रह जाएंगी, प्रेम साथ जाता है। थोड़ा जाता है, भक्ति होती तो पूरा जाता। उतना जाता जितना प्रेम था। जितना खालिस सोना था, साथ चला जाता, शेष विजातीय पड़ा रह जाता।

अगर तुम प्रेम तक नहीं पहुंच पाए तो उसका अर्थ केवल इतना है कि जो भी इकट्ठा कर रहे हो, वह सब मौत छीन लेगी। इसलिए कृपण मौत से डरता है। जीता नहीं और मौत से डरता है। जीने की तैयारी करता है, जीता कभी नहीं। क्योंकि जीने में तो खर्च है। जीने में तो प्रेम लाना पड़ेगा। जीने की तैयारी करता है, जीता कभी नहीं। क्योंकि जीने में तो खर्च है। जीने में तो प्रेम लाना पड़ेगा। जीने में तो व्यक्तित्व प्रवेश कर जाएंगे, वस्तुओं की दुनिया समाप्त हो जाएगी। न, वह सिर्फ जीने की तैयारी करता है, मकान बनाता है जिसमें कभी रहेगा, धन इकट्ठा करता है जिसको कभी भगोगे, शादी करता है, पत्नी, जिससे कभी प्रेम करेगा, फुर्सत से, बच्चे पैदा करता है कि कभी जब समय होगा, सुविधा होगी, तब एक बार आशीर्वाद बरसा देंगे। मगर वह दिन क भी आता नहीं, वह तैयारी ही करता है। एक दिन मौत उसे उठा लेती है। और जो भी उसने इकट्ठा किया था, वह सब पड़ा रह जाता है। इसका भय सताता है।

इसलिए कृपण डरता रहता है और हर के कारण और भी कृपण होता जाता है। मौत के खिलाफ इंतजाम करता है।

मौत के खिलाफ एक ही इंतजाम है—और वह है प्रेम। मौत के खिलाफ दूसरा कोई इंतजाम नहीं है, कोई सुरक्षा नहीं है। कोई बीमा-कंपनी मौत के खिलाफ सुरक्षा नहीं दे सकती। सिर्फ प्रेम…। क्योंकि प्रेम के क्षण में तुम वस्तुओं से ऊपर उठते हो और व्यक्तित्व दृष्टि में आता है, व्यक्तियों का संसार शुरू होता है, वस्तुओं का समाप्त होता है। तब वस्तुएं साधनरूप हो जाती हैं। तुम प्रेम के लिए उनका उपयोग करते हो, लेकिन वे तुम्हारा उपयोग नहीं कर पातीं। जब तुम वस्तुओं की इच्छा करते हो तो जो वस्तुएं तुम्हारे पास हैं, उनमें तुम्हारी आसक्ति होती है : कोई छीन न ले! और जो तुम्हारे पास नहीं हैं, दूसरों के पास हैं, उनसे तुम्हारा द्वेष होता है, क्योंकि उनके पास हैं और तुम्हारे पास नहीं है। इच्छा के दो पहलू बन जाते हैं फिर : अपने पास जो है उसे पकड़ो, और दूसरे के पास जो है उसे छीनो। तब सारा जीवन एक छीना-झपट, एक आपाधापी, एक दौड़-धूप हो जाती है, हाथ कुछ भी नहीं लगता। मरते वक्त हाथ खाली होते हैं।

… “न आसक्त होता है, न उसे विषय-भोगों में तुम्हें उत्साह तभी तक है, जब तक तुम्हें परम भोग का स्वाद नहीं मिला। क्षुद्र को भोगता आदमी तभी तक है जब तक विराट के भोग का द्वार नहीं खुला। कंकड़-पत्थर बीनते हो, क्योंकि हीरे जवाहरातों का पता नहीं। कूड़ा-कर्कट इकट्ठा करते हो, क्योंकि संपत्ति की कोई पहचान नहीं है।

यह लक्षण है भक्त का कि उसे विषय-भोगों में कोई उत्साह नहीं होता। कामी को सिर्फ विषय-भोग में उत्साह होता है, और कोई उत्साह नहीं होता। प्रेमी को विषय-भोग में उत्साह नहीं होता, किन्हीं और चीजों में उत्साह होता है, अगर उनके सहारे काम भी चले तो ठीक। जैसे समझो : अगर तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में हो, तो तुम चाहोगे कि दोनों बैठकर कभी शांत आकाश में तारों को देखो। कभी नहीं चाहेगा यह। कामी कहेगा, “क्यों फिजूल समय खराब करना, तारों में क्या रखा है, एक दफा देख लिये सदा के लिए देख लिये।” कामी को तो शरीर में रस है, तारों में नहीं, चांद में नहीं, पक्षियों के गीत में नहीं। दो प्रेमी बैठकर सितार सुन सकते हैं, या दो प्रेमी बैठकर शांत, मौन ध्यान कर सकते हैं, प्रार्थना कर सकते हैं। उस प्रार्थना के माध्यम से ही अगर काम भी जीवन में आ जाए तो उन्हें कोई विरोध नहीं है। लेकिन शुरू उन्होंने प्रार्थना की थी। चांद को देखते-देखते वे करीब आ जाएं और एक-दूसरे का हाथ-हाथ में ले लें तो उन्हें कुछ विरोध नहीं है, लेकिन देखना उन्होंने चांद को शुरू किया था।

प्रेमियों की आंख एक-दूसरे पर नहीं होतीं, एक साथ किसी और चीज पर होती है। कामियों की आंख एक-दूसरे पर होती है, और किसी चीज पर नहीं होती। प्रेमी किसी और तीसरी चीज को देखते हैं अपने से पार। प्रेम का कोई गंतव्य है, काम का कोई गंतव्य नहीं है। काम अपने-आप में समाप्त हो जाता है। प्रेम अपने से पार जाता है। जो पार ले जाए, जो अतिक्रमण कराये, जो तुम्हें तुमसे ऊपर देखने की सुविधा दे, वही प्रेम है। तो, प्रेमी कभी बैठकर सितार सुनेंगे, या कभी गीत गाएंगे, या कभी नाचेंगे, या कभी खुले आकाश के नीचे लेटेंगे, या कभी सागरतट पर घूमेंगे, कभी सागर के नाद को सुनेंगे। लेकिन प्रेमी, कामी नहीं!

प्रेमी का कुछ लक्ष्य है जो दोनों से पार है। लेकिन बार-बार उस लक्ष्य से वे अपने पर लौट आएंगे। भक्त कभी नहीं लौटता–गया सो गया! वह जब चांद की तरफ गया तो गया, गया, गया, फिर नहीं लौटता। भक्त पीछे लौटना नहीं जानता। कभी तो कहीं जाता ही नहीं, प्रेमी जाता है, लौट, लौट आता है, भक्त गया सो गया।

काम ऐसे है जैसे पिंजरे में बंद पंछी, कहीं जाता नहीं, वहीं पिंजरे में ही उछल-कूद करता रहता है, वहीं हलन-चलन करता रहता है। बस पिंजरा उसकी सीमा है।

प्रेम ऐसे है जैसे कबूतर उड़ते हैं आकाश में, फिर अपने घर में वापस लौट आते हैं। पिंजरों में बंद नहीं हैं। न लौटें तो कोई उन्हें बुलाता नहीं है, कोई पकड़ने नहीं जा सकता, अपने से लौट आते हैं। घर के ऊपर एक छत्ता लगा दिया होता है। उड़ते हैं दूर आकाश में, बड़ी दूर की यात्रा करते हैं, थकते हैं, लौट आते हैं वापस। प्रेमी ऐसे पक्षी हैं जो पिंजरों में बंद नहीं हैं, जाते हैं दूर अपने से पार, लौट-लौट आते हैं। भक्त ऐसा पक्षी है जो गया सो गया, उसका लौटने का कोई घर नहीं है। उसका घर सदा आगे है—और आगे! वह जब तक परमात्मा तक ही न पहुंच जाए तब तक यात्रा जारी रहती है।

“भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय- भोगों में उत्साह होता है।” --- क्रमशः ....

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