Thursday, 14 January 2016

अंधविश्वास और विश्वास 3

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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" श्रद्धा – अन्धविश्वाश और विश्वास ! "
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नारायण ! श्रद्धा से जीवन में सरसता , निर्मलता , एकाग्रता और स्थिरता , अशक्य को शक्य करने की सामर्थ्य , क्रिया में प्रवृत्ति । जिसको असम्भव समझें उसे वह सम्भव समझता है और कर लेते है । कौन ? श्रद्धावान् । केवल समझना तो अंधविश्वास में भी होता है लेकिन वहाँ क्रियाशीलता नहीं होती ,  करके देखने की दृष्टि नहीं होती , " हो जायेगा " यही भावना बनी रहती है । श्रद्धा में होता है कि " कर लेंगे । " क्रियाशीलता का उद्दीपन श्रद्धा के द्वारा होता है । श्रद्धा की जितनी कमी होगी उतना ही क्रियाशीलता में उद्दीपन अर्थात् तेजी नहीं आयेगी । अश्रद्धालु व्यक्ति भी संसार में व्यवहार तो करता ही है लेकिन उसमें दृढ अनुभूति का अभाव है। " कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहितः " ऋग्वेद में एक मन्त्र आया है । वह कहता है कि यदि दाहिने हाथ से मैंने ठीक काम किया तो मेरे साथ परमात्मा है , मेरे बायें हाथ में फल न आये यह हो नहीं सकता , जीत मेरी निश्चित है । बहुत वर्ष पहले ऋग्वेद के उपरोक्त मन्त्र को एक बार पढ़ा तो मन में विचार आया कि भगवान् जय दे रहे हैं , जब बड़े से कोई चीज़ लेनी हो तो दाहिने हाथ में लेनी चाहिये । यहाँ वेद  ने कह दिया " जयो मे सव्य आहितः " बाये हाथ में जय है । बहुत विचार करते रहे हम । विचार करने से उसका रहस्य प्रकट हुआ कि कर्म के लिये परमेश्वर ने दाहिना हाथ दिया है । जिस समय में जीत हो रही है उस समय में भी चित्त में भूल करके कहीं कर्म न करने का भाव न आ जाये ! जीत के साथ ही , पूर्ण सफलता मिलने पर लोग सो जाते हैं । जेल आदि में जाकर , बहुत परिश्रम करके राष्ट्र में घोषित आपात् - स्थिति खतम हो गई ,  प्रजातन्त्र आ गया । लेकिन अब हम उसे भूले जा रहे हैं ! उस समय खुशी तो दस -  पन्द्रह दिनों में मना ली ,  लेकिन उसके बाद क्या किया ?  मनुष्य हर्ष में फूल कर जो सफलता मिली है उसीमें रह जाता है । इस सम्भावना से - कि आगे क्रिया करना न छोड़ दे - वेद भगवान् कहते हैं कि जिस समय भगवान् सफलता दे रहे हैं उस समय सफलता को तो दूसरे हाथ से ले लो और दाहिने हाथ में फिर भी क्रियाशीलता वैसी ही बनी रहे । पहाड़ की एक चोटी पर पहुँचे , वहाँ ठहरिए मत , अगली चोटी पर चढ़ने के लिये तुरन्त प्रयत्न प्रारम्भ कर दें । श्रद्धा मनुष्य को क्रियाशील बनाती है , अशक्य को भी  " मैं शक्य कर सकता हूँ  " यह दृढ निश्चय कराती है ।
 
नारायण ! भगवान् भाष्यकार शङ्कर स्वामी के एक शिष्य का नाम " सनन्दन " था । उनके ऊपर भगवान् भाष्यकार का विशेष प्रेम था । इसलिये उन्होंने उन्हें " ब्रह्मसूत्रम् " तीन बार पढ़ाया । सर्वत्र शिष्यों में कानाफूसी होने लगी कि " इस पर आचार्य भगवान् ज्यादा प्रेम करते हैं " । भगवान् भाष्यकार समझ गये कि लोगों के मन में तरह - तरह की बातें आ रही हैं । एक बार वे गङ्गा के किनारे बैठे थे और बाकी सारे शिष्य लोग दूसरे किनारे पर घूमने गये हुए थे । पुल वहाँ से बहुत दूर था । नदी तेजी से चल रही थी । नाव इत्यादि से भी पार नहीं किया जा सकता था । अकस्मात् भगवान् भाष्यकार शङ्कर स्वामी ने आवाज दी , " अरे ! कोई जल्दी आओ । " शिष्यों ने सुन लिया । सबने कहा , " दौड़कर चलें । " सनन्दन ने सोचा, " गुरुजी ने जल्दी आने को कहा है । यहाँ से पुल तक जाने में तो बहुत देर लगेगी । उन्होंने आवाज दी है जल्दी आओ । इसका मतलब हुआ कि जहाँ खड़े हैं वहाँ से जल्दी से जल्दी पहुँच सकें चल दें - यह गुरुजी की आज्ञा है । " वे सीधे ही गङ्गा की ओर चल दिये । जैसे ही गङ्गा की तरफ चलने लगे , लोगों ने कहा " क्या कर रहे हो ? " बोले " पार कर रहा हूँ  । " लोगों ने कहा , " डूब जाओगे , तैरकर नहीं जा सकते । " सनन्दन ने कहा , " जिन चरणों का आश्रय लेकर हम लोग संसार से तर गये वे ही गङ्गा भी तरायेंगे । " संसार की कोई सीमा नहीं है । उसे भी तरण कर जाने की आशा जिस गुरु के चरणों के प्रेम के कारण , भक्ति के कारण हमारे अन्दर है तो यह इतनी सी नदी पार नहीं की जा सकती ! यह कहते हुए वे नदी के वक्षस्थल पर चलने लग गये । संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जिसका नायक , जिसके अन्दर सच्चिदानन्द रूप से परब्रह्म परमात्मा न रहता हो । जो पदार्थ है , जिसका ज्ञान होता है वे सब पदार्थ ब्रह्मरूप हैं । यह अतिधन्य वेदान्त की दृष्टि है । सांख्य कहता है कि कुछ जड प्रकृति और कुछ चेतन पुरुष है । पुरुष तो समझ लेगा ,  प्रकृति बेचारी क्या समझेगी! लेकिन वेदान्ती तो  " सर्वं शिवमयं जगत् " सर्वत्र शिव को ही देख रहा है । यह सारा विराट् ब्रह्माण्ड जिसका शरीर है ,  गङ्गा जी भी तो उसी का शरीर है और उसमें भी गङ्गा तो अतिशुद्ध है । शरीर में भी कोई शुद्ध ,  कोई अशुद्ध अङ्ग हो सकता है । लेकिन गङ्गा तो अतिशुद्ध है ।  वह कैसे भूल सकती थी कि किस की आज्ञा को मानकर जा रहे हैं  ?  श्रद्धेय  की  आज्ञा मानकर जा रहे थे । वे गङ्गा के वक्षःस्थल पर चलने लगे । मन में कोई विचार ही नहीं हुआ कि पानी पर कैसे चलें । श्रद्धा कभी भी सोचकर नहीं हुआ करती है । उस गङ्गा पर जहाँ - जहाँ वे पैर रखते गये वहाँ - वहाँ कमल निकल आये , उन पर पैर रखते हूए इस पार से उस पार पहुँच गये । प्रेम से भगवान् भाष्यकार ने उनको हृदय से लगाया । दूसरे शिष्य भी देखते रह गये कि " यह जो उसके अन्दर श्रद्धा की पूर्णता है , इसके कारण ही भगवान् भाष्यकार का इस पर विशेष प्रेम है । "

नारायण ! वेदान्तशास्त्र के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ - " अद्वैतसिद्धि " को लिखते हुए आचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती जी कहते हैं कि हम तो संन्यासी हैं , हमारे पास क्या धन है ? लोग कहेंगे बड़े दरिद्र हो , लेकिन " श्रद्धाधनेन मुनिना मधुसूदनेन " हमारे पास श्रद्धा का धन है । विचार करिये , यदि भारतीय स्टेट बैँक का मैनेजिंग डायरेक्टर या कस्टोडियन कहीं जाये तो क्या उसे यात्री चैक साथ में लेकर जाना पड़ेगा , क्या वह सोचेगा कि " यदि मैं नहीं ले जाऊँगा तो मुझे वहाँ रुपये नहीं मिलेंगे " ? कौन - सी ऐसी शाखा होगी जो उसके दस्तखत पर रुपया न दे ? ये चैक - वैक तो हम  टटपूँजिये लोग लेकर घूमते रहते हैं कि कहीं जाने से पहले दस हजार के यात्री चेक या ए ॰ टी ॰ एम कार्ड रख लेते हैं । ऐसे रिजर्व बैंक के गवर्नर को कहीं नोट बाँधकर नहीं ले जाने पड़ेंगे , वह सब तो हम लोगों के लिये है । ठीक इसी प्रकार इस समग्र सृष्टि के अधिनायक के ऊपर , परमेश्वर के ऊपर जिनकी श्रद्धा है , जो जानते हैं कि वह मुझे सर्वत्र देने के लिये बैठा हुआ है , वे भी क्या सामान्य पदार्थों को लेने के लिये सोचेंगे कि " यह पदार्थ मिलेगा तब काम होगा " ? यह तो जब तक उस पद पर नहीं पहुँचे , श्रद्धा पैदा नहीं हुई , तब तक की बाते हैं । इस प्रकार से उन लोगों न सनन्दन को देखा तब उनके मन में आया हुआ संदेह दूर हो गया , समझ गये कि गुरुजी तो श्रद्धा की दृष्टि को देखकर इस पर प्रेम करते हैं ।

नारायण ! श्रद्धा मनुष्य में इस प्रकार क्रियाशक्ति लाती है , अंधविश्वास नहीं लाता है । सनन्दन खड़े नहीं रह गये कि " गुरुजी तो सर्वसमर्थ हैं जो चाहे कर लेंगे , हम बेचारे उनकी क्या मदद कर सकते हैं , हमें तो पूर्ण विश्वास है कि गुरुजी सर्वसमर्थ हैं । " क्रियाशक्ति को सनन्दन रोक लेता तो मतलब होता कि अंधविश्वासी है ।

नारायण ! श्रद्धा और अंधविश्वास दीखने को एक जैसे दीखते हैं लेकिन बिल्कुल अलग होते हैं। श्रद्धा मनुष्य को क्रियाशील और अशक्य को शक्य कराती है । अंधविश्वास ऐसा नहीं कर पाता , यह दोनों में फरक है । इसलिये श्रुतियाँ कहती हैं कि श्रद्धा से अश्रद्धा को जीत लो ।

नारायण ! अतिधन्य ऋग्वेद के १५१ वें सुक्त कहता है –

" श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां माध्यंदिनं परि ।
श्रद्धा सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेहि नः ॥ "

वैदिक ऋषि कहते हैं कि वस्तुतः प्रार्थना के योग्य कौन है ? प्रभात काल में हम श्रद्धा का ही आवाहन करते हैं , श्रद्धा को बुलाते हैं । आप भी बुलावें । चाहे शास्त्रीय कर्म हों , चाहे लौकिक उपासना हो , चाहे शास्त्रीय उपासना हो , चाहे लौकिक ज्ञान हो अथवा अलौकिक ज्ञान हो , सर्वत्र श्रद्धा एक प्रधान कारण है । श्रद्धा के बिना किया हुआ लौकिक कर्म भी फल उत्पन्न नहीं करता । यह एक बड़ी भारी समस्या है क्योंकि अपने भारतवर्ष में और विशेषकर हिन्दुओं में इस समय अश्रद्धा का राज्य चल रहा है । समस्या यह है कि हम लोगों के व्यवहार में भी कहीं श्रद्धा नहीं है । लौकिक कर्मों में भी श्रद्धा नहीं है । विद्यार्थियों में श्रद्धा नहीं है कि " यदि मुझे विषय ठीक तैयार है तो मैं प्रथम आऊँगा । " हम देख रहे हैं कि प्रत्येक विद्यार्थी के मन में अश्रद्धा है कि अध्यापक लोग तो जान - पहचान वालों को नम्बर दे देते हैं , रुपया खाकर नम्बर दे देते हैं अथवा ऊपर - नीचे दो - चार वाक्य देखकर नम्बर दे देते हैं । " यदि मैं ठीक पढ़ूँगा तो प्रथम आऊँगा " यह श्रद्धा बच्चे में नहीं है । इसलिये पढ़ने में परिश्रम नहीं होता । दूसरी तरफ जब अध्यापक परीक्षा की कापी देख रहा है तो उसमें भी श्रद्धा नहीं है । सोचता है कि बच्चे ने जो लिखा है वह नकल  करके लिखा है , किसी दूसरे अध्यापक से लिखवाकर रट कर लिखा है अथवा गुपचुप अपनी उत्तरपुस्तिका किसी पी . एच . डी . वाले को हजार रुपया देकर उससे लिखवा ली है । बच्चे को भी श्रद्धा नहीं है और अध्यापक भी जब उस परीक्षा की कापी को जाँचता है तो उसे भी श्रद्धा नहीं है । " यदि पढ़कर के हम योग्य निकले तो हमको उत्तम नौकरी मिलेगी या उत्तम व्यापार मिलेगा " इसकी भी श्रद्धा नहीं है । हर - एक व्यक्ति सोचता है कि " क्या जानते हो " यह जरूरी नहीं है , " किसको जानते हो " यह जरूरी है ! " सब बेईमान है " हम नहीं कह रहे हैं , केवल यह कह रहे हैं कि श्रद्धा का अभाव है । जब आप किसी को नौकर रखते हैं तो उस समय में भी " यह योग्य है " इस पर श्रद्धा नहीं है । हमें पता है कि इस लड़के ने कॉमर्स में बहुत अच्छी योग्यता प्राप्त की है लेकिन चूँकि मेरा भतीजा  भी तैयार है इसलिये उस पर भी विश्वास करो , दूसरे की पढ़ाई का विश्वास मत करो । भतीजा काम तो सीख ही जायेगा लेकिन यह योग्य कहीं आगे जाकर न जाने क्या धोखा दे ! जो नौकरी या काम ढूँढने जा रहा है उसे भी श्रद्धा नहीं है और जो नौकरी या काम दे रहा है उसे भी श्रद्धा नहीं है । काम मिलने के बाद " मैं अच्छा काम करूँगा तो मेरी उन्नति होगी " यह श्रद्धा नहीं है । सम्भवतः जो मालिक को जितना मक्खन लगा सके , अर्थात् जितनी जी - हजूरी कर सके , उसे उतनी ही उन्नति की आशा है , " मेरा काम बढ़िया होगा तो मुझे उन्नति की आशा है " यह श्रद्धा नहीँ है । उधर मालिक को भी यह श्रद्धा नहीं है कि जो ज्यादा काम कर रहा है वह ईमानदारी से कर रहा है , सोचता है कि " यह तो सारे व्यापार को अपने हाथ में , अपनी मुट्ठी में लेना चाहता है । " इसलिये दोनों तरफ अश्रद्धा है । सावशेष .....

शिव शिव कहिए .... आनन्द रहिए

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