!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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" श्रद्धा – अन्धविश्वाश और विश्वास ! "
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नारायण ! अश्रद्धा । आज अश्रद्धा बढकर घर तक पहुँच गई । पुत्र को पिता पर श्रद्धा नहीं है कि मेरी उन्नति और मेरे प्रेम के कारण ही पिता मेरे ऊपर खर्च कर रहा है । वह सोचता है कि " यह आगे जाकर चाहते हैं कि मैं इनका काम करूँ , यह मुझे अपना औजार बनाना चाहते हैं । " इसलिये पुत्र को पिता पर श्रद्धा नहीं है । कई बार लड़के आकार हमसे पूछते हैं " महाराज ! पिता जी इस विषय में ऐसा कहते हैं , मैं क्या करूँ ? " उनको तो हम नहीं कहते , लेकिन हमारे दिल में बड़ी चोट लगती है , उस व्यक्ति को लेकर नहीं , वरन् इस बात पर कि पिता के कहने पर भी इसको संदेह हो रहा है कि पिता किसी मतलब को तो सिद्ध नहीं करना चाह रहे हैं ! इस सम्भावना से ही तो वह आकर हमसे पूछ रहा है । बीस साल तक उसको पिता ने बड़ा किया और उसमें अपने प्रति श्रद्धा नहीं दे सका । उधर पुत्र के प्रति पिता को भी श्रद्धा नहीं है । पहले आदमी दुनिया भर से कर्जा लेकर अपने बड़े लड़के को पढ़ा देता था क्योंकि जानता था कि यह योग्य हो जायेगा तो कर्जा भी उतार देगा और छोटे भाईयों की भी तरक्की करेगा । आज पिता को यह श्रद्धा नहीं है कि मेरी बड़ी उमर में यह मुझे दो समय भोजन भी देगा । घरों में ताले हैं । यह अपना देश वह था जहाँ विजयनगर साम्राज्य के अन्दर तेरहवीं - चौदहवीं शताब्दी में विदेशी लोग आये , वापिस अपने देश जाकर उन्होंने लिखा है कि " यह बड़ा विचित्र देश है जहाँ कोई ताला लगाना नहीं चाहता , घरों में कुण्डी लगाकर चले जाते हैं । " आज उस देश में सास बहु के लिये और बहू सास के लिये अलग ताला अपनी आलमारी में लगाती है । और हमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि बीस साल बाद पति - पत्नी भी अलग - अलग ताला लगाने लग जायेंगे । शुरूआत होता हमने देख लिया है । यह श्रद्धा का अभाव है , और कुछ नहीं है । ऐसे ही प्रजा और राजा में अश्रद्धा का भाव है । राजा भी करेगा तो प्रजा के मन में हमेशा यह है कि यह कोई न कोई अपना मतलब सिद्ध करना चाह रहे हैं । वस्तुतः यह प्रजा का कोई लाभ करना चाहते हैं - यह मन में नहीं आता । उधर राजा प्रतिदिन सोचता रहता है कि यह सारी प्रजा मेरा विरोध करना चाह रही है , यह उसके मन में बैठा हुआ है । कर - अधिकारी के पास जाने वाला व्यापारी भी अश्रद्धालु है " ईमानदारी से टैक्स रिटर्न भरूँगा तो भी यह मानेगा थोड़े ही , इसको तो ऊपर से कुछ देना ही पड़ेगा इसलिये पहले ही चोरी करें । " अफसर को व्यापारी पर श्रद्धा नहीं है , वह सोचता है कि " यह आया है तो जरूर चोरी करके ही आया होगा । ठीक थोड़े ही लिखकर लाया होगा ।" राजा - प्रजा इत्यादि सर्वत्र अश्रद्धा ही अश्रद्धा है ।
नारायण ! एक बार एक सज्जन हमारे पास आकर कहने लगे कि " आजकल जगह - जगह बड़े उपद्रव हो रहे हैं । कानून व्यवस्था खराब हो रही है क्या करे ? " हमने कहा पहले तो सारा पुलिस विभाग बन्द कर दो । कहने लगे " महाराज ! यह आप क्या कह रहे हैं ? " हमने कहा बिल्कूल ठीक कह रहे है । तुम ऐसा करोगे नहीं , यह भी जानते हैं , लेकिन तुम्हारी पुलिस पर यहाँ की जनता का विश्वास नहीं है । किसी के घर चोरी हो गई तो उसे पक्का पता है कि मैंने रिपोर्ट लिखाई तो भी चोर का पता नहीं चलेगा । जाकर लिखाते जरूर हैं इसलिये कि बीमा कम्पनी से पैसा मिल जायेगा ! इसलिये नहीं कि अपना माल वापस मिल जायेगा । पुलिस को रिपोर्ट लिखाता है तो पुलिस भी समझती है कि लिखाने वाला ही शायद चोर होगा! कभी इस प्रकार का मौका मिला होगा तो पता होगा कि वे ऐसी बात करेंगे कि पहले तुम ही चोर हो , उन्हें तुम्हारे ऊपर ही संदेह है । यह कोई पुलिस विभाग थोड़े ही है! इसलिये इसको बन्द करो तो शायद कुछ उपद्रव कम हो जायें ।
नारायण ! अश्रद्धा का रोग बड़ा भयंकर होता है । श्रुतिभगवती कहती हैं " श्रद्धां कामस्य मातरं " बड़ी विलक्षण बात श्रुति कह रही हैं , " जितनी भी तुम्हारी कामनायें हैं उन्हें पूर्ण करने के लिये माता का रूप श्रद्धा ही धारण करती है । जिस समाज या राष्ट्र के अन्दर श्रद्धा नहीं रहेगी वहाँ कोई किसी कामना का भोग भी नहीं कर पायेगा । लौकिक कर्म भी श्रद्धा के बिना सफल नहीँ हो पाते । अलौकिक कर्मों में तो नियम ही कर दिया है कि बिना श्रद्धा के किया हुआ कर्म कोई फल पैदा नहीं करता । इसी प्रकार लौकिक उपासना भी श्रद्धा से ही फल देती है । उपासना अर्थात् मानसिक क्रिया में भी श्रद्धा फल देती है । यह मेरी माँ है , मेरा मामा है , मेरा बाप है या मेरा ताया है आदि सब श्रद्धा के ही तो सम्बन्ध हैं। सारे सम्बन्धों का बीज श्रद्धा ही है । अतिधन्य कृष्ण भक्त सुरदास जी ने एक प्रश्न उठाया है कि भगवान् को बच्चे छेड़ रहे हैं " नंद गोरे यशोदा गोरी तुम कत श्याम शरीर " माँ गोरी , बाप गोरे , तू कहाँ से काले रंग का आ गया ? तेरे को कहीं धुएँ से उठा लाये हैं! यदि मनुष्य के मन में अश्रद्धा का बीज आ जाता है तो वह सारी लोकिक उपासना अर्थात् सारी लौकिक मानसिक क्रियाओं में भी फैल जायेगा । वहाँ भी बिना श्रद्धा के काम नहीं चलेगा । इसी प्रकार लौकिक ज्ञान में भी मनुष्य को श्रद्धा ही करनी पड़ती है । न जाने इन आँखों के द्वारा हमको कितनी बार भ्रमज्ञान होता है । प्रायः लोग कहते हैं कि किसी का विश्वास करो तो धोखा देता है , हम कहते हैं कि तुभ कभी लेखा - जोखा रखो कि तुम्हारी आँखें कितनी बार धोखा देती है ? रास्ते में जा रहे हैं , हम कहते हैं कि इस मोटर का नम्बर 3235 लगता है , पास वाला कहता है नहीं 3236 है । क्या इसका मतलब है कि तुम आँख का विश्वास करना छोड़ देते हो ? कान कितनी बार आधी बात सुनता है आधी नहीं सुनता , स्पर्श कितनी बार धोखा देता है , जीभ से कितनी बार धोखा खाया है , लेकिन श्रद्धा ही तो करते हैं कि ये कभी - कभी धोखा देते हैं लेकिन धोखा देना इनका स्वभाव नहीं है । यह श्रद्धा ही तो है । अगर इनके ऊपर अश्रद्धा आ जाये तो मनुष्य के सारे काम रुक जायें , कुछ भी नहीं हो सकता । इसलिये लौकिक उपासना और लौकिक ज्ञान भी श्रद्धा के बिना नहीं हो सकते ।
नारायण ! मनुष्य का सबसे उत्तम अङ्ग अपना सिर है लेकिन जब नाई आता है तो उसके आगे अपना सिर दे देते हैं और वह बड़े छुरे की धार खूब तेज करता है लेकिन तुम्हें पता है कि यह हज्जाम कई लोगों की हजामत बना चुका है , आज तक किसी को भी धोखा नहीं दिया , मेरी इससे दुश्मनी नहीं , यह क्यों मुझे धोखा देगा - इस भावना के कारण ही अपना सिर नीचे करते हो । और अगर कहीं अश्रद्धा का भाव आ जाये कि शास्त्र में लिखा है " नराणां नापितो धूर्तः " इसका कभी विश्वास मत करों , तो फिर सभी लोग जटाधारी बाबा होकर घूमोगे ! टिकट लेने जातो हो , वहाँ खिड़की के अन्दर एक ही हाथ जा सकता है । या तो पहले तुम टिकट देने वाले पर श्रद्धा करके उसे पैसा दो और फिर वह तुम्हें टिकट दे या वह पहले तुम्हें टिकट दे और फिर तुम उसे पैसा दो । अगर दोनों अश्रद्धालु हो जायें तो टिकट नहीं खरीदा जा सकता क्योंकि उस खिड़की में हाथ तो एक ही जा सकता है । सभी लौकिक व्यवहारों के अन्दर भी श्रद्धा की आवश्यकता है । बड़े परिश्रम से मनुष्य धन कमाकर लाता है और अपनी पत्नी को दे देता है , श्रद्धा ही तो है। अगर उसे संदेह हो कि यह एक दिन सारा उठाकर भाग जायेगी , कभी कदाचित् हो भी जाता है , लेकिन जो ऐसा संदेही व्यक्ति होगा , क्या उसे कोई शान्ति की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी? असम्भव हो जायेगी । भोजन करने बैठते हो तो भी श्रद्धा अपेक्षित है । घर में भोजन करो चाहे ढाबे में जाकर करो और वह ढाबा चाहे बहुत बड़ा हो जैसे " ओवेराय इंटरकांटिनेंटल " , है तो ढाबा ही ; वहाँ भी तुम्हें श्रद्धा ही है कि ये लोग दो सौ रुपया भोजन का लेते हैं तो कोई धोखाधड़ी की चीज नहीं देंगे , तभी वहाँ घपाघप खाते हो । यदि अश्रद्धा हो जाये कि ये लोग क्या पता जहर देकर हमें मार ही डालें , कोई ठिकाना नहीं , तो फिर भूखे ही रहना पड़ेगा । इसलिये जितने लौकिक व्यवहार , जितने लौकिक सम्बन्ध और जितने लौकिक ज्ञान हैं वे भी सारे श्रद्धा के सहारे हैं । श्रुति बताती है कि श्रद्धा शुद्ध कैसे हो और बढ़े कैसे ? इस पर अगले क्रम में विचार करेंगे : सावशेष ...,
शिव शिव कहिए ...... आनन्द रहिए
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