Wednesday, 13 January 2016

कृपाशंकर जी 4

विक्रम संवत् २०७२
पौष , तृतीया , शुक्लपक्ष , मङ्गलवार

!! श्रीकृपाशंकरेन्द्र गुरुभ्यो नमः !!

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: श्रीमद्भगवद्गीताजी के - “ अक्षरब्रह्मयोग ” :
: { ५ } :
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नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं " मय्यार्पितमनोबुद्धिः " । मन का काम है संकल्प - विकल्प । साधक का जो भी संकल्प विकल्प होता है वह परमात्म - विषयक होता है । " मुझे यह पूजा करनी है , इसके लिए यह सामग्री लानी है । इस प्रकार उसके अर्थात् साधक के जो भी संकल्प - विकल्प उठते हैं , वे परमात्म - सम्बन्धी ही होती हैं। बुद्धि का काम है निश्चय करना । बार - बार वह परमात्मा को बताने वाले उपनिषद् आदि जो शास्त्र हैं , उन्हीं का ऊहापोह से विचार करता है , उसी में बुद्धि को लगाता है । साधारण व्यक्ति को कोई गाली दे दे तो वह दिन - भर या और ज्यादा समय इसी चिन्तन में लगाता है कि क्यों दी , इत्यादि । भगवदर्पितबुद्धि वाला साधक सांसारिक विषयों में इस प्रकार विचार नहीं करता । वह देखता है गाली शब्द है , परमेश्वर का अधिभूत भाव है । वह शब्द मुझे अच्छा नहीं लगा , यह अधियज्ञ भाव है । मैंने गलत कर्म किया है , इसलिये उसने गाली दी है , गाली देने वाला भी भगवान् ही है । इस प्रकार वह परमेश्वर की विभूति के ही दर्शन करता है , उसी का विचार और निश्चय करता है । उसका विचार है कि यह परमेश्वर की विभूति है कि बुरे कर्म का फल मिलता ही है। गाली सुनकर उसको उस परमेश्वर का ही स्मरण आता है जिसने बुरे कर्म का फल दिया। जैसे अच्छे कर्म का फल देने वाला वह है वैसे ही बुरे कर्म का फल देने वाला भी वही है। साधारणतया जब अच्छे कर्म का फल आता है तो लोग कहते हैं " भगवान् की कृपा से ऐसा हुआ । " मतलब उनका यही होता है कि भगवान् ने कर्मफल दिया ; वे मानते हैं कि कुछ तो किया ही होगा तब भगवान् ने कृपा की है । कृपा का जो वास्तविक अर्थ है अनुग्रह , किसी कर्म का फल नहीं , वह तो शुरू में समझ में ही नहीं आता । पुण्यफल के लिये तो कह देते हैं कि भगवान् की कृपा से मिल गया । पर दुःख होने पर भगवान् की कृपा नहीं मा7ए । पाप का भी फल देने वाला तो वही है , उसी की कृपा से दुःख होता है। जो " मय्यार्पितबुद्धिः " है वह सदा भगवत्कृपा का अनुभव कर पाता है । मुझे वासुदेव में ही उसका संकल्प - विकल्पात्मक और निश्चयात्मक वृत्ति स्थित रहती है । जब मन बुद्धि लगी हुई है परमात्मा में, तभी परमात्मा का स्मरण चलता है । " सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर " का उपाय है " मय्यार्पित- मनोबुद्धिः ।

नारायण ! इसी बात को भगवान् और स्पष्ट करते हुए बताते हैं :

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥

अर्थात् " हे पार्थ ! " एकमात्र परमेश्वर का ही आकार बनाना रूप अभ्यासात्मक योग में संलग्न एवं विषयान्तर की ओर न जाने वाले चित्त से शास्त्रानुरी चिन्तन करता हुआ साधक दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है ।

नारायण ! कितना सुन्दर भगवान् के उपरोक्त श्रीमुख हैं - परमात्मा में इस प्रकार से मन - बुद्धि का जो समर्पण है , अर्थात् बार - बार इस प्रकार से परमात्मविषयक वृत्तियों को ही बनाना , यह हो गया " अभ्यास योग " । ये सब जो रूप बतलाये थे , ये उनके लिए मदद करते हैं । स्वधर्माचरण करने में ये सब चीजें उपस्थित होती हैं और उन सब में परमात्मा की विभूति की दृष्टि बनेगी , तभी एकमात्र परमात्मा का चिन्तन चलेगा । मोटी भाषा में यह समझ लें : आदमी की नाक हैं , कान हैं , आँखें हैं , ओठ हैं , हाथ हैं , पैर हैं, छाती हैं , कमर हैं । इनमें से किसी भी चीज़ का स्मरण हो तो स्मरण हो आदमी का ही रहा है । जब आप आँख का स्मरण करते हैं तो " उसकी आँख है " इस रूप में ही स्मरण होता है । किसी मुर्दे की आँख का स्मरण तो होता नहीं ! इसी प्रकार ये जो विभूतिया बतलाई थीं , ये सारी हैं परमेश्वर की । अधियज्ञ रूप सामने आवे , अधिदैव आवे , अध्यात्म आवे , जो भी आता है , उसको देखकर स्मरण किसका हो रहा है ? जिसकी ये सब विभूतियाँ हैं उस परमात्मा का । भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर स्वामीजी अपने भगवद्गीताभाष्यम् में " एकस्मिन् तुल्यप्रत्यावृत्ति - लक्षणः " कहते हैं । ब्रह्माकार वृत्ति के अन्दर वृत्ति अखण्ड अर्थात् एक ही आकार की होती है । तुल्य आकारों की नहीं होती है । किन्तु यहाँ परमात्मसंबंधी होने से सब वृत्तिया आपस में एक जैसी है । इसलिये स्वधर्म - आचरण करते हुए हर चीज के द्वारा परमात्मा का स्मरण होता रहता है । होगा यह विभूति वाले परमात्मा का , सगुण परमात्मा का । भगवान् कहते हैं " अनन्यगामिना । " चित्त अन्यगामी न होवे । अर्थात् परमात्मा से अन्य आकार की वृत्तियाँ न बनाये , " यह परमात्मा नहीं है " ऐसी वृत्ति नहीं बनाये । जो परमात्मा के स्वरूप को नहीं समझ कर देवता - विशेष का स्मरण करते हैं , वे अनन्यगामी चित्त नहीं बना सकते । भगवदर्पितचेता ही केवल परमात्मा की वृत्ति बनाते हैं , उससे भिन्न अर्थात् परमात्मरहित वृत्ति नहीं बनाते । वृत्तियाँ अनेक तो बनाते हैं पर सब होती परमात्मा की हैं । परमात्मा से अन्य तरफ जाने वाली नहीं होती हैं ।

नारायण ! भगवान् कहते हैं " चेतसा " , ऐसा जिसका चित्त है , वह " परमं दिव्यं पुरुषं याति"; परम अर्थात् जिससे और कोई अतिशय नहीं है । सगुण परमेश्वर से अधिक कुछ नहीं है । कहीं कोई विभूति होवे , ज्ञान की विभूति , क्रिया की विभूति , किसी प्रकार के ऐश्वर्य आदि की विभूति , वह सब परमात्मा की विभूति से निकृष्ट ही होगी । उससे श्रेष्ठ किसी की विभूति हो नहीं सकती । परमात्मा निर्गुण रूप से भी सगुण की अपेक्षा ऐश्वर्य आदि के कारण श्रेष्ठ नहीं है, उसका अधिष्ठान होने से उससे श्रेष्ठ कहा जाता है । ऐश्वर्य , विभूति इत्यादि की परमावधि सगुण परमेश्वर ही है । वह परम पुरुष दिव्य है , द्युलोक में है , प्रधानरूप से सूर्य - मण्डल में विद्यमान है । उसको " याति " प्राप्त करता है । इसलिए उसको " सूर्य - मण्डलभेदी " कहते हैं । सूर्य - मण्डल के अन्दर जो परमात्मा का रूप है , उसको वह प्राप्त होता है ।

भगवान् कहते हैं " अनुचिन्तयन् " , " अनु " अर्थात् " बाद में " , उपदेश से भली प्रकार जब समझ लिया है , उसके पश्चात् । पहले शास्त्र और आचार्य के उपदेश से जिसको समझ लिया है , उसका अनुचिन्तन होता है । अगर ठीक तरह से समझा ही नही गया तो यह चिन्तन करना शक्य नहीं है । इसलिए बार - बार सन्तजन कहते हैं कि सत्संग के द्वारा परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप को समझना बहुत जरूरी है । प्रायः यह कमजोरी उपासकों में रह जाती है कि परमेश्वर के ठीक रूप को समझ कर निश्चय किए बिना ही सोचते हैं कि उपासना कर लेवें , क्योंकि मानते हैं कि उपासना का मार्ग सरल है , ज्यादा बुद्धि नहीं खटानी पड़ती है । ऐसा भ्रम लोगों में है । निश्चय तो आपको उतनी ही मेहनत करके परमेश्वर के सगुण रूप का करना ही पड़ेगा , तभी आगे आपका अनुचिन्तन हो सकेगा , अन्यथा चिन्तन भी गलत चीज का करेंगे । सरलता उपासना के अन्दर इसलिए नहीं है कि बुद्धि पूरी नहीं लगानी पड़ती , सरल इसलिए है कि उतना वैराग्य नहीं चाहिये । ज्ञानमार्ग में वैराग्य की कठिनता है । वैराग्य के बिना निर्गुण भाव मेँ स्थिति नहीं बन पाती । दूसरी मुश्किल है योग्य गुरु की उपलब्धि होना । परमात्मा के सगुण रूप को जानने में तो शास्त्र और शास्त्र - ज्ञानी से ही काम हो जाएगा । परन्तु निर्गुण रूप को समझने के लिए खाली शास्त्र - ज्ञानी से काम नहीं होगा , " श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं " अनुभवी की जरूरत है , तत्त्वसाक्षात्कार करके स्वभावतः परमात्मभाव को छोड़कर और किसी चीज में निष्ठा वाला जो नहीं होता वही दृढ बोध करा सकता है । ऐसा गुरु मिलना अपने हाथ में नहीं है । जबकि सगुण परमात्मा का निश्चय करके उसका अभ्यास योग करना अपने हाथ में है । बुद्धि तो उपासना मार्ग में भी लगानी पड़ेगी ।

नारायण ! उपासना मार्ग के बड़े - बड़े जितने आचार्य हुए भगवान् श्री रामानुज , भगवान् श्री मध्व , भगवान् श्री निम्बार्क , भगवान् श्री बल्लभ उन सब आचार्यों ने ब्रह्मसूत्र आदि का विवेचन उतने ही आग्रहपूर्वक किया है जितना ज्ञानमार्गीयों ने । किसी ने यह नहीं माना कि विचार की जरूरत नहीं है । विचार आवश्यक है , तभी उन्होंने किया है , नहीं तो काहे को करते , उनका विचार ठीक हुआ था या गलत हुआ , यह दूसरी बात है , लेकिन विचार की आवश्यकता सभी आचार्यचरण मानते हैं । यह परम्परा नयी आई है " पढ़ना लिखना पण्डित का काम , भज ले बेटा सीता - राम । " सीता - राम कौन है जिसका भजन करें ? यह विचार के बिना नहीं समझ पाते । महात्माओं में एक कथा प्रसिद्ध है : एक लड़की को गुरु जी ने कह दिया था कि " नारायण मधुसूदन " भजन किया कर । करती रही । थोड़े सालों के बाद उसका ब्याह हो गया । उसके पति का नाम मधुसूदन , ससुर का नाम नारायण था । अब उसका भजन बन्द हो गया ! ससुर का और पति का नाम तो ले नहीं सकती । साल - दो साल में उसका बच्चा पैदा हो गया । अब उसका भजन वापिस शुरू हो गया " लल्लू के पिता जी , दादा जी ! " क्योंकि उसे लगा कि नारायण मधुसूदन तो लल्लू के पिता जी और दादा जी हैं । अगर नारायण मधुसूदन का रूप समझे नहीं होगे तो इस प्रकार का भजन हो जाता है । परमेश्वर को भी इसीलिए अनेक लोग देवता - विशेष ही मानते हैं क्योंकि उनके वास्तविक स्वरूप का निश्चय करते नहीं हैं । इसलिए भगवान् ने " अनुचिन्तयन् " कहा , शास्त्र और आचार्य के उपदेश से ठीक प्रकार का निश्चय करके तब उसका ध्यान ठीक प्रकार से करना है। साववेष .....

नारायण स्मृतिः

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