विक्रम संवत् २०७२
पौष , प्रथम , शुक्लपक्ष , रविवार
!! श्रीकृपाशंकरेन्द्र गुरुभ्यो नमः !!
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: श्रीमद्भगवद्गीताजी के - “ अक्षरब्रह्मयोग ” :
: { ३ } :
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नारायण ! अर्जुन का अन्तिम प्रश्न भगवान् से था कि जिन लोगों ने अपने शरीर - मन को वश में कर लिया है , वे अन्त - काल में आपको कैसे समझते हैं , कैसे जानते है , कैसे स्मरण करते हैं ? उसका प्रकार बताते हुए भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं :
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
अर्थात् मृत्यु के समय भी मुज परमेश्वर को ही याद करते हुए शरीर छोड़कर जो जाता है वह निःसंशय मेरी वास्तविकता प्राप्त करता है ।
नारायण ! अर्जुन ने पूछा कि प्रयाण के समय आपको कैसे जाना जाये ? भगवान् जवाब में कहते हैं " अन्तकाले च " भगवान् के श्रीमुख पर ध्यान दें , भगवान् क्या कहते हैं ? भगवान् कहते हैं कि " अन्तकाले च " चकार का तात्पर्य क्या है ? " चकार " का तात्पर्य है कि जिसने यावद् जीवन स्मरण किया है , उसी को मृत्यु के समय स्मरण होगा । अतः यह आशा लगा कर वैठे नहीं रहना है कि अन्त में भगवान् का स्मरण कर लेंगे ! यावद् जीवन भगवत्स्मरण करने पर ही संभव है कि अन्तिम काल में उसका स्मरण होवे । " मामेव " अर्थात् मेरा ही , " ही " शब्द को संस्कृत भाषा में हमेशा किसी को हटाने के लिए कहा जाता है । दस चीज़ें रखी हुई हैं । किसी को कहते हैं आप " इनमें से जो मर्जी उठा लो । " उठाने वाला दसों उठा कर ले जा सकता है । इसलिए कहते हैं " इनमें से एक ही चीज़ उठा कर ले जाना । " यहाँ " ही " अर्थात् बाकी मत उठाना । या किसी को भोजन के लिए निमन्त्रण देते हैं " तुम ही आना । " अर्थात् पत्नी बच्चों को साथ में मत लाना । ठीक इसी प्रकार से मेरा ही , अर्थात् जो प्रत्यग् आत्मा से अभिन्न परमात्मा का रूप है उसी का । बाकी जितने यहाँ अपने अध्यात्म , अधिभूत , अधियज्ञ , अधिदैव इत्यादि रूप कहे हैं उन सबका नहीं , केवल जो शुद्ध रूप है उसी का " स्मरन् " स्मरण करते हुए रहना है । ध्यान दें , स्मरण उसी का होता है जिसका आपने ज्यादा अनुभव किया है । चाहे जैसी भयङ्कर परिस्थिति आये , चूँकि उसका इतना स्मरण किया हुआ है , इसलिये आपको वही झट स्मरण हो जाता है । अन्तिम समय बड़ा भयङ्कर होता है । इसलिये एक भक्त परमेश्वर से कहता है कि आज ही मेरा मन परमात्मा में सर्वथा लीन हो जाये । जिस प्रकार से पानी दूध में घुस जाता है तो फिर वहाँ पानी नहीं रह जाता , इसी प्रकार से मैं आपमें ऐसा घुस जाऊँ कि प्रत्यगात्मा और परमात्मा में कोई भेद न रह जाए । कहा यह कि " विशतु मानसराजहंसः " मन घुस जाये , किन्तु मन तो यों एकमेक होगा नहीं , आत्मा ही परमात्मा से एक हो सकता है । तब , मन घुस जाए इसका मतलब क्या है ? मन ब्रह्माकार वृत्ति बनाता है , ब्रह्माकार वृत्ति बनते ही आत्मा और ब्रह्म की एकता स्फुट हो जाती है । फिर वहाँ रहा हुआ मन भी किसी प्रकार का परिच्छेद नहीं कर पाता क्योंकि परिच्छेद करने वाला जो अज्ञान है वह वृत्ति से हट चुका है । चूँकि वहाँ केवल परमात्मा रह गया इसलिये कहा जाता है कि उसी में घुस गया । रस्सी को भ्रम से साँप समझकर जब रोशनी में रस्सी देख लेते हैं तब साँप कहाँ जाता है ? यह भी एक जवाब हो सकता है कि उस रस्सी में ही वह साँप घुस गया । साँप रस्सी में घुसा नहीं है , परन्तु रस्सी आते ही सर्प नहीं रहा , इसलिए उसी को " घुस गया " ऐसा कह देते हैं । इसी प्रकार ब्रह्माकार वृत्ति के बनते ही बुद्धि नहीं रह जाती , इसलिये कहा जाता है कि वह परमात्मा में ही प्रविष्ट हो गई ।
नारायण ! भक्त क्यों भगवान् से प्रार्थना कर रहा है कि आज ही ब्रह्माकार वृत्ति बन जाए ; अन्तिम समय में बना ले , इतनी जल्दी क्या है ? वह स्वयं कहता है कि जब प्राणों के प्रयाण का समय होगा , अन्तकाल होगा , तब कफ , वात और पित्त तीनों घातु प्रकुपित हो जायेंगे , कण्ठ भी अवरुद्ध हो जायेगा । पता कैसे चलता है कि कोई मर गया ? अन्त में एक मृत्यु क्षण की " हिचकी " आती है । उस हिचकी के आते ही जानकार लोग समझ जाते हैं कि अब मर गया । मरते समय कण्ठ का अवरोध हो जाता है । उस समय हम ब्रह्माकार वृत्ति बना सकें, केवल परमेश्वर का स्मरण कर सकें , यह तो एकदम असम्भव है । इसलिये भक्त की प्रार्थना है कि पहले ही यह हो जाए ।
नारायण ! भगवान् कह रहे हैं " कलेवरम् मुक्त्वा " इस शरीर को छोड़कर । जब तक देहाध्यास रहता है , " मैं देह हूँ " यह अभिमान रहता है , तब तक " मैं ब्रह्म हूँ " , ऐसा कभी होता नहीं । देहाभिमान छूटने से ही ब्रह्मावबोध सम्भव है " मेरे भाई बहना ! " ज्ञानकाल में जैसे ही " मैं ब्रह्म हूँ " यह अनुभव होता है वैसी ही " मैं देह हूँ " यह अनादिकाल का जो शरीर पकड़े रहना है , वह छूट जाता है । जिनका यह अभिमान् छूट गया , उनका जिस समय प्राण का अवरोध होता है , उस समय भी उन्हें ब्रह्मरूपता स्पष्ट ही प्रकाशित होती है। इसलिए भगवान् यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि " अन्तकाल में ऐसा बनना " वरन् उनका स्पष्ट श्रीमुख है कि देहाभिमान को छोड़ कर तुम इस भाव को प्राप्त कर लो ।
नारायण ! भगवान् कहते हैं " यः प्रयाति । " शरीर के अन्दर प्राण चलते हुए सब को दीखते हैं। जब न दीखें तब लोग यही समझते हैं कि जीव राम अब गया । अतः बौद्ध लोगों ने दो शब्द बनाए " निर्वाण " और " परिनिर्वाण " । बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ उस दिन निर्वाण तो हो गया । कई बार बुद्ध ने कहा है कि " उस दिन के बाद कहीं कुछ नहीं हुआ । जो होना था तभी गया । " फिर भी उनका शरीर तो दीखता रहा । शरीर दीखना भी बन्द होने पर " परिनिर्वाण " कहते है । इसी प्रकार जब तक जीवन दीखता रहता है तब तक हम लोग आत्मवेत्ता को जीवन्मुक्त कह देते हैं । जब शरीर दीखना बन्द हो जाये तब उसे विदेह मुक्त कह देते हैं । लेकिन मुक्त तो एक जैसा ही है , क्योंकि उसने ज्ञान के समय शरीर के साथ सम्बन्ध को छोड़ दिया । दूसरों की दृष्टि में जीते हुए मुक्त होने पर भी अपनी दृष्टि में तो केवल मुक्त है । इसी प्रकार से दूसरों की दृष्टि से वह देहरहित मुक्त होता है , विदेह मुक्त होता है । अपने स्वरूप में तो वह एक जैसा है । इस प्रकार से शरीर छोड़ कर जो जाता है " स मद्भावं याति " वह जो प्रत्यगात्मा से अभिन्न मेरा परमात्मभाव हैं , उसको पा जाता है । ऐसा भगवान् कहते है । विष्णु शब्द का अर्थ ही होता है सर्वव्यापक । सर्वव्यापक कहीं जा कैसे सकता ? जो कहीं न होवे वह वहाँ जाये । जाना तो तब होता है जब एक स्थान को आप छोड़ सकें और दूसरे स्थान में आप पहले से न होवें । व्यापक होने से विष्णु न किसी स्थान को छोड़ सकते हैं और न किसी जगह वे पहले से नहीं हैं कि वहाँ जाएँ । इसलिए " मद्भावं याति " अर्थात् जब तक सबको उसकी प्रतीति देह - विषयक हो रही थी , अब लोगों की प्रतीति वैसी नहीं रही । घड़े का दृष्टान्त देता हूँ समझ लें सामने घड़ा हो तो आपको दो आकाश दीखते हैं , एक घड़े से सीमित हुआ आकाश जिसको संस्कृत भाषा में घटाकाश कहते हैं और दूसरा उसके बाहर का आकाश , महाकाश । आकाश को आप कहीं ले जा सकते हैं क्या ? घटाकाश को आप नहीं ले जाते , घट को ले जाते हैं ; जहाँ - जहाँ आप घट को अर्थात् घड़े को ले जाते हैं, वहाँ आकाश पहले से ही है , इसलिये घटाकाश प्रकट दीखता है । आपने जब घड़े को फोड़ दिया , घड़ा दीखना बन्द हो गया तब क्या घटाकाश कहीं गया क्या ? फिर भी क्या कहा जाता है ? " घटाकाश महाकाश में लीन हो गया " ऐसा कहते हैं क्योंकि अब आपको घड़ा दीखना बन्द हो गया तो घटाकाश की प्रतीति बन्द हो गई । परन्तु आकाश में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । इसी प्रकार देह के कारण आपको प्रतीत हो रहा था कि यह जीवन्मुक्त है , देह की प्रतीति हट जाने पर आपको लगता है कि यह विदेह मुक्ति है , परन्तु वह सब समय देहाभिमान से मुक्त है अतः सिर्फ " याति " न कहकर भगवान् ने " प्रयाति " कहा ; " मद्भाव " में जाने का यही प्रकर्ष है ।
नारायण ! भगवान् के श्रीमुख हैं " अत्र संशय न अस्ति । " इस विषय में किसी भी प्रकार का संशय नहीं है । कुछ लोगों की मान्यता है कि मुक्त भी पुनः प्रकट होता है ! मुक्त पुनः प्रकट हो नहीं सकता क्योंकि मुक्त तो विष्णुरूप है । विष्णु अपनी माया शक्ति के द्वारा कहीं अपने को प्रकट करता हुआ - सा दीखे तब भी होता नहीं है । लोग शंका करते हैं कि अधिकारिक पुरुष फिर से कैसे आते हैं ? यह समझ लेना चाहिये कि आधिकारिक पुरुषों को प्रारब्ध वाले शरीर ही मिलते हैं । जिसका प्रारब्ध एक से अधिक शरीरों का है वह एक से अधिक शरीरों में प्रकट हो जाता है । " मैं मर गया " , " मैंने अब जन्म लिया"; ये सब उसके लिए वैसा ही है जैसे हम कहते हैं " मैं सो गया , मैं जग गया । " जैसे एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने पर हमें किसी नवीनता की प्रतीति नहीं होती इसी प्रकार यह देह नहीं रहा वह देह हो गया इससे किसी भी प्रकार का फर्क आधिकारिक पुरुष को नहीं होता । किसी को बचपन में ज्ञान हो गया , उसके बाद उसका शरीर जवान भी होगा, प्रौढ भी होगा , वृद्ध भी होगा । शरीर में इन सब परिवर्तनों के होने पर भी उसका ब्रह्मरूप वैसा का वैसा स्थित रहता है । इसी प्रकार अन्य शरीरों के अन्दर प्रतीति होने पर भी वह अपने ब्रह्मरूप में ही स्थित रहता है ।
नारायण ! लोगों को ऐसा समझ में आता है कि एक - एक कर मुक्त होते चले गये तो संसार खत्म हो जाएगा ! शंका करने वाले वस्तुतः संसार की वास्तविकता के भ्रम से ग्रस्त हैं । जिस प्रकार जो सान्त संख्याओं के सामान्य गुणों से ही परिचित होते हैं उन्हें अनन्त की बात कही जाती है तो कुछ समझ में नहीं आती । दो संख्यायें जुडने से बढ़नी चाहिए पर क्या अनन्त के अन्दर कुछ जुड़ कर बढ़ोतरी होगी ? जैसे गणित का यह रहस्य साधारणतः समझ में नहीं आता वैसे ही संसारसत्यता की दृष्टि से ग्रस्त लोग सोचते हैं कि संसार है , उसमें से एक - एक जायेगा तो अन्त में कुछ नहीं रह जाएगा । इस प्रकार के संशयों को काटने के लिए भगवान् ने अपना स्पष्ट मत बतला दिया कि उसके बाद एकमात्र विष्णु ही रह जाता है , इस विषय में संदेह की कोई जगह नहीं है । सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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