>> न देहं न प्राणान्न च
सुखमशेषाभिलषितं ,
न चात्मानं
नान्यत्किमपि तव
शेषत्वविभवात् ।
बहिर्भूतं नाथ !
क्षणमपि सहे यातु शतधा ,
विनाशं तत्सत्यं मधुमथन !
विज्ञापनमिदम् ।।
भावार्थ - हे नाथ ! एक
मात्र भगवान के शेष
रहना ही जीव का स्वरुप
है । अतएव इस भगवत्
कैँकर्य रुप ऐश्वर्य से अलग
रहने वाले अर्थात् आपके
दास्य (शेषत्व) के वैभव से
बर्हिभूत अपने शरीर ,
प्राण , आत्मा ,
तथा समस्त प्राणियो से
अभिलषित सुख एवं
दूसरी जो भी वस्तु हो , मै
एक क्षण के लिए भी सहन
नहीँ कर सकता ।
...हे नाथ ! आपकी सेवा के
अयोग्य अर्थात् आपके
दासत्व से रहित पूर्वोक्त
शारीरिकादिक पदार्थ
के सैकडोँ टुकडे क्यो न
हो जाएँ पर उनसे
मेरा कोई प्रयोजन
नही है ।
... हे मधु दैत्य संहारक !
आपकी सेवा में यह
मेरी सच्ची विज्ञप्ति (प्रतिज्ञा)
है ।
>>> आलवन्दार स्तोत्र
से ...
Friday, 8 January 2016
रहस्य भाव 76
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