जय जय सियाराम चरणरज शरणम् !!
जय जय श्यामाश्याम चरणरज शरणम् !
एक विनय है , इस लेख को पढ़ने से पूर्व आप को वर्तमान होना होगा ! अगर आप यहाँ कहाँ है अभी तो जब समय पढ़े ! देह ही नहीँ मन भी संग हो ! अतः सविनय निवेदन है कि कम से कम दो मिनट मौन हो जाईये .....
मौन आपको वर्तमान करता है । चित् (मन)यहाँ-वहाँ रहता है , हो सकता है अभी मैं देह से तो मन्दिर हूँ , पर चित् और कहीँ अतः पहले यहाँ होना है जहाँ वर्तमान में है ।
चित् गमन करता रहता है , और करेगा भी , बंध गया तो अवसर छुट भी जाते है । उसे सही दिशा में जाना है अतः पहले वर्तमान में हो , मान लें भीतर तो किसी मॉल में किसी वस्तु में और कहू संग चलो तो वहाँ से सीधा नहीँ जाया जा सकता क्योंकि पहले संग के लिए मिलना होगा , जिसके लिए मैं और आप पूरे हो कर गंतव्य तक जा सके । अतः वर्तमान में नहीँ कहीँ और है तो मौन हो जाएं और समय लेकर पढ़े ......
अगर समूह में वर्तमान में होना है तो "कीर्तन" सुंदर है । समूह में साधक ना होने पर मौन अभिनय हो सकता है । अतः समूह में कीर्तन से वर्तमान हुआ जा सकेगा । कीर्तन से मन स्वतः आ ही जाता है । कीर्तन आपको वर्तमान करता है अतः बड़ा दिव्य अवसर है । हमारे पास तीन काल है भुत-भविष्य-वर्तमान । और हम तीनोँ में ही रहते है , कभी भुत में कुछ तलाशते है कभी वर्तमान में कभी भविष्य में । अतः लालसा कैसी भी हो काल चाहिये , हाँ मूल रस कालातीत होने में है । काल से परे । यें अद्भुत घटना है । अगर योग है तो जो परम् सुख होगा वह वर्तमान में होगा , ऐसे ही अन्य । ईश्वर नित्य है , काल से परे । फिर भी पुराणोक्त देखें तो काल में भी है । जैसे राम नित्य है परन्तु त्रेता में अवतरित भी हुए है । अगर नित्य स्वरूप हमारा है तब तो नित्य ईश्वर स्वरूप से जब चाहो तब मिलन है , जैसे नारद आदि जी , और भगवान शिव संग नन्दी आदि जी । नित्य स्वरूप से पहले हम काल में है , कहीँ न कहीँ .... मोक्ष की लालसा भविष्यकाल ही तो है ।
कल भाई जी (पोद्दार जी) का लेख पढ़ रहा था । कृपा से दिव्य रस मिला । तब tv देखना था , परन्तु भीतर से तब जैसे सन् 50 से 60 के आस पास में हूँ , ऐसा भाव हुआ और tv के प्रति अचरज हुआ । जैसे उस समय हुआ हो । कुछ गौर किया तो लगा जैसे 2016 का स्मरण ही नहीँ । लगा भाई जी के सत्संग में ही हूँ । ऐसा क्यों हुआ , कारण उनके शब्द । अगर हम वर्तमान में हो और पहले कहे शब्दों में खो जाते है तो उस ही वातावरण को जीने भी लगते है ।
जैसे भगवान सूर्य की रश्मि एक रेखा बनाती हुई आती है वैसे ही ।
कभी फ़िल्म देखते समय भी , कुछ पौराणिक या इतिहास पढ़ कर भी उस समय के कालखण्ड में हम पहुँच जाते है और जैसे ही कोई बाहर से विचलित करें तो लगता है वर्तमान में क्यों आ गए ।
प्रत्येक शब्द का निश्चित काल है ,फेक्वेंसी है । एक कोड है और कोई भी लेख पुस्तक या ऑडियो हमें अपने मूल समय में ले जा सकता है ।
इसी विज्ञान के विस्तार से हम फोन पर बात कर सकते है । ब्रह्माण्ड में इतने शब्द होने पर भी सही कोडिंग से कहीँ भी संवाद हो सकता है । अगर अपनी ऊर्जा का स्तर तीव्र है तो बिना शब्दों के भी अप्रत्यक्ष रह आंतरिक भाव समझे जा सकते है ।
आज इस वक़्त आप कुछ लिख लें , तारीख़ सहित और उसे फिर दस दिन या महीने भर बाद स्वयं ही सुने । आप उस समय लिखें जाने वाले समय के एहसास को पायेगें ।
कई पद और शास्त्रों , मन्त्रों को उनके मूल स्वरूप निश्चित राग में ही गाने पर जोर दिया जाता है । सही तरीके से हम उसे निभाए तो स्वतः किरण मय हो वहीँ स्वयं को पायेगें ।
शब्द जोड़ता है । समस्त आवरण में सूर्य रश्मियां है । और हम अपनी रश्मी को ना रोकें तो वह कही भी जा सकती है ।
एक घटना का मुख्य रूप से निवेदन है , परम् दिव्य तत्वबोधि भक्त पं गोपीनाथ कविराज जी की जप माला टूट गई उस समय वें अपने दिव्य गुरु जी योगिराज विशुद्धानन्द जी परमहंस जी के नित्य संग में अनेको दिव्य दर्शन कर चुके थे । माला शास्त्रीय ढंग से गुंथी जा सके इस हेतु बिखरे रुद्राक्ष के दाने और रेशम को लेकर बाबा के पास गए , उनसे प्रार्थना की । उन्होंने रुद्राक्ष के दानों को और रेशम को गोमुखी में रखकर उसे अपनी मुट्टी में भींच लिया । फिर दो तीन बार उस पर हाथ फिराकर गोमुखी उन्हें दे दी । ऐसा करने में 3 से 4 सेकण्ड से अधिक समय ना लगा । कविराज जी ने गोमुखी से माला निकाल देखी तो शास्त्रोक्त विधि से सुंदर गुंथी माला मिली । सुमेरु , गाँठे सब विधि से केवल 3 सेकण्ड में । पूछने पर गुरु जी ने कहा यें वायुविज्ञान का कार्य है । तुम जिसे अल्प समय कहते हो , वह वास्तव में अल्प नहीँ । काल में सूक्ष्म स्तर में चले जाने पर उसी में दीर्घकाल का भी कार्य हो जाता है ।
इस तरह सूक्ष्म प्रवेश हो सर्व काल में , लीला के चिंतन में नाम के सुमिरन में सूक्ष्म स्तर तक जुड़ जाया जाएं तो युगों की दुरी शीघ्र ही लगेगी । इस तरह अगर प्रत्येक दिन को वर्ष समान जीना आ जाए तो काल सूक्ष्म हो जाएगा । मान लें 3 दिन में कोई काम होने को है , 3 दिन बाद भगवान मिलेंगे तो वेदना अगर 3 दिन 3 मिनट में हुई तो काम हो जाएगा । या वेदना 3 दिन की 3 साल में निभी तो समय अधिक अनुभूत् होगा ।
आज मूल विषय नहीँ हो पा रहा ... कभी । फिर भी मान लीजिये
हम चिंतन करें कि नन्दलाल ने गोवर्धन को उठाया हुआ है सन्मुख सखियों संग श्री राधा बैठी है और वें मुस्कुरा रहे है और राधा जु को निहारने में खो ही गए है ।
अब इन शब्दों को पढ़ पहले जहाँ शब्द उत्पन्न हुआ वहाँ आपकी रश्मि आएगी फिर यहाँ से दर्शन तक जाएंगी । इस तरह गहन आंतरिक सम्बन्ध हो तो संग भ्रमण हो सकता है । जैसे हम रामचरित के आश्रय से राम तक जाते है । पहले शब्द अपनी उत्पत्ति फिर लीला दर्शन तक , यहाँ जिन्हें तुलसीदास जी से सहज आश्रय प्राप्त होगा वह वैसे ही निकटता से लीला के दर्शन कर सकेगा । स्वयं के प्रयास से कठिन होगा , क्योंकि यहाँ शब्द वही होने पर भी भिन्न दर्शन बनेगा । जैसे नित्य एक सी चाय पीने के लिए दूध आदि समान चाहिए और बनाने वाले भी समान ही हो , अगर अलग व्यक्ति बनाएगा तो ताप कम ज्यादा होने से रासायनिक क्रिया बदल जायेगी । अतः आश्रय से दर्शन सहज होता है । यही कारण है कि सन्तों ने भगवत् मिलन सहज कहा । रामजी के लीला दर्शन के लिए हमे त्रेता में होना होगा , और कृष्ण जी के लिए द्वापर , और बुद्ध के लिए कलयुग में ही , बुद्ध निकट समय में है तो भीतर दूर नहीँ जाना होता , और किन्हीं बौद्ध भिक्षुक का आश्रय हो तो और सहज होगा । चैतन्य महाप्रभु आदि रसिकाचार्य के आश्रय से कृष्ण लीला सहज होती है वरन् भजन मयी तप को द्वापर तक जाना हो । बिना आश्रय कुछ साधक कृष्ण चरित्र में भगवत् गीता के आश्रय से वहाँ तक पहुँचते है । परन्तु फिर ज्ञानमय हो ब्रजमाधुर्य से वंचित रह जाते है । काल की दुरी नापना ही तप है , प्रतीक्षा है । सन्त आश्रय इसे सहज करता है ।
इस विषय का जैसा दर्शन हुआ , वैसा निरूपण ना हुआ क्योंकि तब कृपामय आवरण था और अब केवल स्मृति अंश । परन्तु इस तरह यात्रा की जा सकती है , और हम करते ही है , संसार में कई बार बचपन के चित्र को देख बचपन जी उठता है । भविष्यवेत्ता भी सटीक साधन सूत्रो से भविष्य नाप और माप कर दर्शन करते है , उस समय वें हमारे भविष्य में ही तो खड़े होते है ।
आपने चाबी वाली कलाई घड़ी भीतर से को देखा है । देखना । फिर नवग्रह के खगोलीय चित्रों के संग चाबी वाली घड़ी को समीप रख देखना । दीवाल घड़ी को भी भीतर से देखना । अंतरिक्ष ईश्वर की इस सृष्टि के कालगणना के यंत्रो से सजा है । यन्त्र है ग्रह , कुछ बड़े । ऐसे कई अंतरिक्ष और यन्त्र है ईश्वर के ।
उसी आधार पर ज्योतिष आदि है । योगी जन अपने पिछले जन्मों को देख सकते थे । एक सीधी रश्मि(किरण) की तरह मन कही भी जाता है । और इसी को ध्यान से , साधना से नियंत्रित कर सदा अपने इष्ट चरण तक ध्यान किया जा सकता है ।
जब भागवत् पढ़ते है तब मन सीधा उन ही परिवेश में होता है , भागवत् कथा सुनकर वहीँ जहाँ वाचक स्वयं पहुँचा हो तो ,कभी भगवान की लीला कभी सन् 2016 कभी 2020 की कहने पर एक रूप रस नहीँ बन पाता और आश्रय लेने पर भी दर्शन नहीँ बन पाते । जो भगवत् चरण या लीला का दर्शन कर रहा होगा वह तत्काल वर्तमान ना होगा , फ़िल्म से वर्तमान होना पीड़ादायक है , तो लीला का विषय तो दिव्य है । और ऐसी स्थिति में सत् शब्द के श्रवण से वैसी सृष्टि सबमे दृश्य होगी । परम् रसिक सन्त के लीलात्मक ग्रन्थ से भी दर्शन दिव्य बनेंगे और वही अगर कोई व्याख्याता आदि के ग्रन्थ हो उनमें भगवत् दर्शन ग्रन्थ की रचना में ना बने तो सुंदर शब्द भी कहीँ नहीँ ले जायेंगे । आगे हम सूर्य विज्ञान और गुरु तत्व की व्यापकता पर भी गहनतम बातें करेगें , जब ऐसा प्रकाश होता है तब लिखा नहीँ जा सकता , वो समय रसवर्षा के स्नान का होता है । क्रमशः ....
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